रणजीत भाई के घर से वापस मैं अपने रिश्तेदारों के घर.. फिर वही मीठा गुजराती खाना, गुजराती कढ़ी, पिछले साल का preserve किया हुआ हाफूस आम का रस… यानी आम का मौसम आने से पहले ही आमरस चख लिया…
दिन में बाज़ार गयी तो बचपन में देखे और खाए फल देखकर बीच बाज़ार में ही आह्लादित होकर चीख पड़ी… गेटली(नारियल पानी के स्वाद वाला जैली नुमा फल), गुजरात के सफ़ेद जामुन, और इस हरे फल का तो नाम भी नहीं पता…
भाई ने चुप कराया बीच बाज़ार में ऐसे चिल्ला रही हो जैसे भगवान् मिल गए… मैंने कहाँ हाँ भगवान ऐसे ही मिल जाते हैं, इतनी ही आसानी से.. आप उसी समय पहचान जाओ, तुरंत आशीर्वाद पाओ…
मैंने फल बेचनेवाली की ओर इशारा किया देखो उसे… जैसे मैं व्यवहार कर रही हूँ वो ऐसे ही प्रतिक्रिया दे रही है… आप आह्लादित है तो भगवान् तुरंत प्रकट होते हैं किसी न किसी रूप में… खैर भाई से इतनी भारी भरकम बात नहीं की, उसे तो बस बहुत साधारण शब्दों में ये बात कही थी कि देखो मुझे देखकर कैसे फलवाली भी खिलखिलाने लगी…
फिर रास्ते में पीया “नीरा”… शायद नीर से ही नीरा शब्द बना हो… पहले शायद पानी इतना ही मीठा होता होगा… इंदौर में भी पीया है इसे लेकिन ये स्वाद वहां कहाँ… बचपन में ये पता चला कि नीरा को यदि धूप में रख दो तो वो ताड़ी बन जाता है जिसको पीने से नशा होता है… तो इसे धूप में रखकर ताड़ी बनाकर खूब पीया लेकिन ये नशा होना किसे कहते हैं ये नहीं जान पाई तब… हाँ अब जान गयी हूँ कि आप चाहो तो सिर्फ पानी से भी नशा हो सकता है और आप चाहो तो सिर्फ “नशा” कह देने भर से नशा हो जाता है…
फिर भाई मुझे घर छोड़कर अपनी दुकान चला गया… घर आकर मसालेवाली चाय पी, वहां का फरसाण खाया… मेरा तो खूब खाया हुआ था ये सब बचपन में.. इस बार सिर्फ इसलिए खा पी रही थी… ताकि लौटकर स्वामी ध्यान विनय को गुजरात के खाने और उसके स्वाद का वर्णन कर सकूं..
इसलिए नहीं कि मैं खाने की बहुत शौक़ीन हूँ, या वो किसी ज़माने में खाने पीने का बहुत शौक रखते थे… इस बार इसलिए खा रही थी ताकि उन्हें बता सकूं.. माँ नहीं मिली.. माँ के गाँव का भोजन, माँ के हाथ के भोजन सा ही होता है…
ताकि उन्हें बता सकूं… मेरी माँ पूरे खानदान में स्वादिष्ट खाना बनाने के लिए प्रसिद्ध थीं…
ताकि उन्हें बता सकूं… मैं अब भी अनाथ नहीं हुई हूँ… जब एक औरत बच्चे को जन्म देती है तो उसका रिश्ता सिर्फ एक शरीर से दूसरे शरीर तक का नहीं होता… माँ के गाँव की गलियाँ भी गर्भनाल की तरह हो जाती हैं… जहाँ पर हम अपना वजूद गाढ़ आते हैं…
मैं जानती थी… माँ से मिलकर भी न मिल पाने का चट्टान सा दुःख मैं चाहे सीने में दबा लूं, स्वामी ध्यान विनय कुरेद कुरेद कर फिर बाहर निकाल लाएंगे… वो हमेशा कहते हैं यात्रा के अगले पड़ाव की यही शर्त है कि पिछली यात्रा में पाँव में चुभी फांस को पहले निकाल लो… जब तक वो फांस घुसी रहेगी आगे की यात्रा का रास्ता नहीं मिलेगा…
इसलिए उनके ध्यान की लगभग सारी प्रक्रियाओं में मुख्य उद्देश्य यही होता है… कि मेरे अन्दर यदि ऐसी फांस दिख रही है तो उसे पहले निकाल लिया जाए… और सच कहूं तो उनकी पूरी कोशिश होती है, फांस भी निकल जाए और मुझे मुझे दर्द भी ना हो… मेरे अन्दर कोई बात यदि गाँठ बन चुकी है तो वो तब तक प्रयासरत रहते हैं जब तक उसे बाहर निकालने में सफल ना हो जाए… तरीके उनके अपने होते हैं… कभी किसी बात के लिए उकसाकर, कभी किसी बात के लिए बहलाकर, झूठमूठ की लडाइयां, क्रोध… या फिर प्रेम…
इस प्रक्रिया में मैं चाहे जैसे प्रतिक्रया दूं… लेकिन अंत में जब खुद को उस फांस से मुक्त पाती हूँ तो मेरा अपना वज़न मुझे कम लगने लगता है… भारमुक्त… वास्तविक नशा शायद इसे ही कहते हैं… हवा में उड़ते हुए अनुभव करना…
ध्यान विनय से मिलने से पहले से ही एक गीत मुझे बहुत पसंद है बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए… आज कल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे… लेकिन इस गाने का अर्थ तो ध्यान विनय से मिलने के बाद ही जाना कि सच में हवा में उड़ने का अनुभव क्या होता है….
तो बस इन सारी चीज़ों के स्वाद के पैकेट बनाकर उस सीने में छुपाकर रखे चट्टान पर रख दिए और पूरा प्रयास यह कि कैसे इन सब बातों से उस चट्टान को रेत कर दूं… समंदर किनारे की रेत…
रेत?? हाँ शाम को पांच बजे के लगभग जब आँख बंद करके थोड़ा आराम कर रही थी… तभी तो लगा था जैसे किसी ने कान में हौले से कहा… “तीथल”..
मैंने झटके से आँख खोली, भाई को सन्देश भेजा, जल्दी घर आओ… मैं तो भूल ही गयी थी यहाँ तो समंदर भी है… समंदर के बारे में सोचकर ही मेरे पैरों में रेत सरसराने लगी थी… लहरों की आवाज़ साँसों में सुनाई देने लगी…
और जब तीथल के समंदर किनारे पहुँची तो किनारा खिसककर बहुत अन्दर की ओर चला गया था… लेकिन समंदर किनारे आकर उसके खारे पानी को न छूऊँ भला ऐसा हो सकता है… तो मैं धीरे धीरे पैर जमाते हुए चली जा रही थी…. मेरे पंजे लगभग रेत के अंदर धंस रहे थे… अब गिरी कि तब गिरी वाली स्थिति में भी समंदर तक पहुँची… बरसों बाद अपने किसी पुराने इश्क़ की तरह उसे देखा… छुआ…
मैंने इसके पहले समंदर को इतना शांत नहीं देखा था… प्रकृति की नीरवता के साथ एकाकार होना क्या होता है शायद मैं पहली बार जान रही थी.. मुझे लगा जैसे मैं पूरी कि पूरी शांत गहरा समंदर हो गयी हूँ… समंदर से बाहर निकल उन चट्टानों को भी छूकर देखा जो समय के साथ रेत हो जाएंगे..
शाम को डूबते सूरज के साथ मैं भी जैसे कहीं डूब रही थी … कहाँ? नहीं जानती… कई बार लोगों से सुना है फलानी जगह जाकर मैं शून्य हो गया या फलाने ऊर्जा क्षेत्र में मुझे ध्यान घटित हुआ..
लोग मुझसे भी पूछते हैं ध्यान की विधियां बताइये ना… मैं क्या कहूं उनसे… मैं सच में नहीं जानती ध्यान घटित होना किसे कहते हैं…. इसे तो बस “होना” कहते हैं… ये मुझे समझ आया…. तो बस मेरा “मैं” हट गया था प्रकृति का “वो” हट गया था… इससे अधिक मेरे पास कोई अनुभव या इस स्थिति के लिए कोई भारी भरकम शब्दावली नहीं है…
बस ऐसी ही भावदशा में वहां से निकलकर आसपास के दो भव्य मंदिरों में गयी, पहला स्वामी नारायण मंदिर दूसरा अपने साईं बाबा…
दोनों मंदिरों से होकर जब लौट रही थी तभी एक गली के कोने में नज़र पड़ी… एक बोर्ड लगा था… उस पर लिखा था ओशो ध्यान केंद्र… एक बार फिर दढ़ियल ने फंसा दिया…. कैसे अगले भाग में बताती हूँ ना…
(यात्रा जारी है)
पहले भाग यहाँ पढ़ें –
यात्रा आनंद मठ की – 1 : पांच का सिक्का और आधा दीनार
यात्रा आनंद मठ की – 2 : जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
यात्रा आनंद मठ की – 3 : यात्रा जारी है
यात्रा आनंद मठ की – 4 : Special Keywords To Optimize Your Search
यात्रा आनंद मठ की – 5 : तू आख़िरी स्थिति में ही है, देर न कर, संयोग के बिखर जाने में देर नहीं लगती