हमारे पास भाग कर जाने को कोई भूमि नहीं, सो अनिवार्य है संघर्ष

कल इन बॉक्स में एक मैसेज आया… मेरे एक भूतपूर्व सहकर्मी, 1994 के… हाल ही में मुझे फेसबुक पर ढूंढा. चकित और दुखी हुए कि “मुझे पता ही नहीं था कि जिसे मैं एक प्रबुद्ध व्यक्ति मानता था, उसके अंदर एक इतना कम्यूनल फेनाटिक छुपा होगा।”

वैसे उनकी तरफ से कोई अन्य बात नहीं थी, मने कोई ब्लॉक की धमकी वगैरह कुछ नहीं… लेकिन एक बात तो है कि पुराने परिचितों में मेरी छवि पर थोड़ी कालिख जरूर लगेगी… या भगवा लगेगा… उनके लिए दोनों बातें एक ही हैं.

आप जानते ही होंगे कि मेरी करियर एडवर्टाइजिंग में रहा है. वैसे और भी दो अनुभव हैं. जब पहली बार इस्लाम पर आलोचनात्मक हुआ तो एक मुस्लिम मित्र अमित्र कर गए।

बड़ी ही नफासत से, अंदाज बहुत ज़हीन था- “आप की ट्रेन से उतर जा रहा हूँ”… वजह समझने में मुझे देर नहीं लगी, मान-मनौव्वल की कोई जरूरत मैंने भी नहीं समझी। दिमाग बहुत तेज था उनका… दोस्त के तौर पर मैं उन्हें आज भी miss करता हूँ.

मेरी पोस्ट का विषय भी याद है – मोदी को गरियाना चालू हुआ था, उस पर मैंने लिखा था कि अगर आज मीना में अगर एक और स्तम्भ खड़ा करने की इजाजत मिल जाये तो भारतीय मुसलमान मोदी जी के नाम से स्तम्भ बनाएँगे जिसे वे पत्थर मार सकें।

रुख समझकर जनाब रुखसत हुए। लेकिन जहां तक पता है, यह बात हम दोनों में ही रही तो मेरा भी फर्ज है कि उनका नाम न लूँ।

साल भर पहले एक महिला सहकर्मी से फेसबुकिया मुलाक़ात हुई। जब हम साथ काम करते थे, खूब पटती थी हमारी, बहुत अच्छी दोस्ती थी।

इंग्लिश में लिखती हैं और बेहतरीन लिखती हैं। विषय तो जनरल ही होते हैं, नारी, नारी की समस्याएँ और नारी की महानता. हाँ, लेकिन नारीवादी नहीं है, या फिर कहें कि मानतीं हैं कि मर्द केवल गाली के भागी नहीं हैं। पिता, भाई, मित्र, पति, पुत्र भी है और उनके प्रति प्रेम भी है.

काफी संतुलित व्यक्तित्व है उनका, हो सकता है कि कोई कॉमरेडनी उनके साथ लंबे समय तक न बैठ पाये और उसमें इनका कोई दोष नहीं होगा।

खैर, हम फेसबुक पर मिले, बातें होनी लगी. लेकिन उन्हें मेरे पोस्ट्स से आपत्ति होने लगी और अपनी बात को लेकर वे आग्रही भी होने लगी कि मेरा दृष्टिकोण पूर्वाग्रह से दूषित है।

तर्कों या तथ्यों से मतलब नहीं था… उनका कथन था कि मैं ऐसी कहाँ हूँ, आप मुझे तो जानते हैं तो आप को मेरे मज़हब को ले कर ऐसे नहीं कहना चाहिए.

मेरा उत्तर एक ही था कि काश बाकी लोग भी आप के जैसे ही होते. चलिये, जो नहीं हैं और जिनके बारे में लिख रहा हूँ, उनका आप कभी विरोध भी नहीं करती।

कभी किसी को मुस्लिम शेर चीते लकड़बग्घे कहता तो सुना नहीं। ये हिन्दू ही हिंदुओं को ही कहते पाये जाएँगे। इसे आप लोगों का “मौनं सम्मतिलक्षणम” नहीं मानें तो क्या मानें?

मारा गया, वो आतंकी होता है, उसका कोई धर्म नहीं होता लेकिन अगर कोई कह दे कि आतंकी का अंतिम संस्कार इस्लामी रिवाज़ से न हो तो तुरंत सब को आपत्ति होती है.

यानी जिंदा था तो उसका कोई धर्म नहीं था, गुनाहगार था लेकिन मारे जाते ही उसका मुर्दा मासूम हो जाता है और उसे इस्लामी तरीके से न दफनाएं तो जुल्म हो जाता है.

खैर, मोहतरमा अमित्र हुई, ब्लॉक किया और उसके बाद मैंने देखा कि काफी पुराने सहकर्मी अमित्र हो गए। सारे हिन्दू।

बस मित्र रहे थे, कभी लाइक कमेन्ट से अस्तित्व का एहसास कराया नहीं था। चूंकि मैं तब तक अवकाश प्राप्त कर चुका था, कोई फर्क नहीं पड़ा.

लेकिन सोचता हूँ, अगर एडवर्टाइजिंग में एक्टिव होता, उम्र में दस-पंद्रह साल छोटा होता तो शायद मुश्किल हो जाती।

इस्लाम हमेशा निरीक्षण करता रहता है और हस्तक्षेप के लिए तैयार रहता है। ये अपने आप में एक लंबी पोस्ट का विषय है, इसपर लिखूंगा आपके पास भी अगर इनके Monitoring and interference के अनुभव हों तो अवश्य साझा करें. जागृति आवश्यक है.

और हाँ, शुरुआत में जिनका जिक्र किया है वे व्यक्ति पारसी हैं। उनको मैंने इतना ही कहा कि भाई आसपास की कोई खबर नहीं रखते क्या, दुनिया में क्या हो रहा है?

और हाँ, आप के पूर्वजों के लिए भाग आने के लिए हिंदुस्तान तब बचा था… मेरे वंशजों के लिए अन्य भूमि बची नहीं है, सो संघर्ष अनिवार्य है.

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