मेरी मां एक ठेठ कहावत कहती हैं, नयी वधुओं के लिए, खुद को बहुत योग्य और स्थिर समझने वालियों के लिए. वह कहावत है-
“अइसन रहती कातनवाली,
काहे फिरती ग..ग..ग… उघाड़ी”
यानी, यदि बुनने का इतना ही शउर होता तो फलाने अपना अमुक अंग-विशेष उघाड़ कर क्यों चलती?
[घेट्टो मानसिकता से निकलेंगे, श्रीमन्? – 1]
इसे मोहम्मडन और वामी-कौमियों के संदर्भ में देखिए. पहले, मोहम्मडन को देखिए.
पूरी दुनिया में 51 देश इनके कानून से चलते हैं, उन देशों की छोड़िए, पूरी दुनिया परेशान है- शरीयत से.
बावजूद, इसके लगातार आपको-हमको क्या सिखाया जाता है? कि… आतंक का मज़हब नहीं होता, और फलाना धर्म तो शांति का धर्म है… वे तो कुछ भटके हुए लोग हैं, जो इसे बदनाम कर रहे हैं…
पूछना चाहिए इनसे, कि भइए, जब तुम्हारा कोई हाथ ही नहीं है किसी मामले में, तो फिर इतनी सफाई क्यों…? बात तो वही हो गयी न…. अइसन रहती कातनवाली….
इसी तरह, वामी-कौमी पिछले तीन साल से फासीवाद को घरों में आ गया बता रहे हैं. बताते-बताते बेचारों के पास खड़े होने की भी ज़मीन नहीं बची, पर बाज़ नहीं आ रहे हैं.
अब देखिए, म.प्र. में पकड़े गए 11 हिंदुओं में से एक ‘बलराम’ की असलियत सामने आने लगी है… तो कैसा मातमी सन्नाटा पसरा है, उन गलियों में?
इसके पहले डॉ. नारंग वाले मामले में भी इन लोगों ने फर्जी आइडी से ट्वीट कर पांसे पलटने की कोशिश की थी न… और, कसाब ने भी कलावा बांध रखा था… एके 47 वाले हाथ में, यह तो याद होगा ही न?
देखिए, मोहम्मडन के धर्म और मार्क्सवाद में ज़रा सा फर्क है, बस… ज़रा सा धागा हैंचो, तो दोनों एक ही हैं.
दोनों ही को बाड़ेबंदी पसंद है, दोनों को ही अपने अलावा पूरी दुनिया दुश्मन/काफिर दिखती है, दोनों ही की व्याख्या (किसी भी संदर्भ में) अंतिम और बहस से परे होती है और दोनों ही जब तक संख्या में कम होते हैं, मजलूम, दीन-हीन, शोषित-पीड़ित आदि-इत्यादि रहते हैं और जहां बहुमत में आए, वहीं दूसरों (दीन वालों) को काटना शुरू….
अरब से लेकर केरल तक गवाह है… बाक़ी आप सोचिए और देखिए…
सवाल लेकिन वही है… काहे फिरती ग…ग…ग…..उघाड़ी?