कोई व्यक्ति अपने विकास की उच्चतम अवस्था में केवल अपनी मातृभाषा के माध्यम से ही पहुँच सकता है – गांधी
मेरा एक दोस्त है. व्यापारी है. कभी उन्होंने तीन कुत्ते पाल रखे थे. उन कुत्तों में विचित्र विशेषताएं थी. मित्र महोदय ने कई साल लगा कर तीनों को भौंकना छुड़ा दिया और बिल्लियों की तरह ‘म्याऊं’ करना सिखा दिया.
जब भी उन्हें इशारा मिलता वे बोलते “म्याऊं-म्याऊं’ यह देखकर लोग भौचक रह जाते. सुनने के लिए उनके घर मजमा लगा रहता. बहुत सारे बच्चे उन कुत्तों की ‘म्याऊं’ सुनने के लिए वहां जाते.
वैसे कुत्तों से बन्दर बहुत डरते हैं. पर उस दिन जाने क्या और कैसे हुआ. शहर में बन्दरों का प्रकोप बढ़ा हुआ था. दोस्त के घर में अचानक बन्दरों की टोली आ धमकी. कुत्तों ने भगाना चाहा पर आश्चर्य!
उन कुत्तों पर एक साथ बन्दरों ने हमला कर दिया. कुत्ते अपना श्वानत्व (चाहें तो इसे ‘कुत्तत्व’ कह लें) भूल चुके थे. बन्दरों ने बुरी तरह नोच खाया. बन्दरों वाला इंफेक्शन हो गया. तीनों बीमार होकर तीन-चार दिन बाद चल बसे. वह बहुत दुःखी थे.
प्रकृति हर किसी को विशेष वाक्-शक्ति और उसका विशिष्ट चरित्र देती है. दूसरे की वाणी-स्वर अपनाने से, दूसरे की मूल क्षमता तो आती नहीं ऊपर से अपनी गंवा देता है.
कुत्तों ने अपनी भौंकने की प्रभावशीलता और संगठित हमला करने की क्षमता तो गंवा दी, ऊपर से बिल्लियों की पेड़ पर चढ़ने की, फुर्तीलापन, झपट्टा मारने की आदत नहीं अपना पाये. परिणामत: असमय मौत का शिकार होना पड़ा.
घोड़ा हिनहिनाता है, बाघ दहाड़ता है, गाय रंभाती है, कुत्ता भौंकता है, बकरी मिमियाती है, सांप फुसकारता है, हाथी चिंघाड़ता है, सियार हुँआता है… सबकी अपनी-बोली-वाणी होती है जो दूसरे की नकल करेगा अप्राकृतिक स्थिति को प्राप्त होगा, मतलब नियंत्रण खत्म.
दिल्ली के एक फाइव-स्टार होटल में एक बड़ा सेमिनार था. सन 2001 में हुये इस शिखर सम्मेलन में सारे देश का प्रतिनिधित्व था. देश के नामी गिरामी, टेक्नोलॉजिस्ट, साइंटिस्ट, प्रोफेसर, कुलपति, अपने क्षेत्र के मूर्धन्य विद्वान वहां उपस्थित थे.
उनमें से कई लोग देश के महत्वपूर्ण शोध संस्थानों के प्रमुख हुए और एक तो बाद की सरकार में प्रमुख सलाहकार भूमिका में भी पहुंचे. एक से एक वक्ता उस भव्य प्रोग्राम में एक-एक घंटा तक बोल रहे थे. वह विज्ञान पर आयोजित एक बड़ा कार्यक्रम था.
मैं पीछे बैठा लगातार सब को सुन के समझने की कोशिश कर रहा था. कुछ देर बाद मैंने यह महसूस किया कि मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है. अधिकाँश लोगों का ध्यान बातें सुनने में नहीं है.
वहां सभी लोग हिंदीभाषी थे और ज्यादातर वक्ता भी हिंदीभाषी ही थे, परन्तु सबकी बोलने वाली भाषा अंग्रेजी थी. सभी अंग्रेजी में बोल रहे थे. लंबे लंबे सेंटेंसेस, लच्छेदार बनाकर. तमाम तरह की रिसर्च उनकी बातों से झलक रहा था.
मैंने ध्यान दिया कि कोई भी सुन नहीं रहा है. सबका ध्यान बोलने पर लगा हुआ है या फिर खाने पर, कई तो अपना प्रश्न अंग्रेजी में करके इम्प्रेशन जमाने में लगे हुए थे. कुछ तो इधर-उधर की फालतू बातें भी कर रहे थे. किसी का फोकस उधर नहीं दिख रहा था.
मैंने और गहराई से ध्यान दिया तो देखा कि यह भाषा की समस्या थी, लेकिन इंप्रेशन के चक्कर में सब अंग्रेजी में ही बोल रहे थे. प्रस्तुतकर्ता और प्रश्न करने वाले, किसी के भाषण पूरे नहीं सुने गए. ना आयोजक सुन रहे थे, ना वक्ता और ना ही प्रतिनिधि.
घनघोर आश्चर्य था कि उस सभा में सभी हिंदी के सुनने-समझने वाले, हिंदी बोलने वाले, हिंदी में ही 24 घंटा रहने वाले और भाषण अंग्रेजी में?? विकास की भाषा अंग्रेजी मानकर ज्ञान बघारने वाले ज्यादा है न. फिक्स प्रोसीजर फॉलो कर लिया गया. कार्यक्रम अपने समापन के कगार पर था.
आखिरी सत्र में प्रोफ़ेसर दुर्ग सिंह चौहान सर आए. वह उस समय टेक्क्निक्ल यूनिवर्सिटी के कुलपति थे, विदेशों में रहे हैं, नासा में रहे हैं, अमेरिका में लम्बे समय रहे हैं. उनके पास अमेरिका में संघ कार्य का प्रभार रहा है.
मैंने उनके लम्बे-लम्बे लेक्चर अंग्रेजी में सुने है. परंतु उन्होंने उस दिन हिंदी में पूरा विषय रखा. मुझे याद है मैं उनकी बहुत सारी लाइनें रट गया. मैंने बाद में उनसे पूछा कि आप हिंदी में क्यों बोल रहे थे. उनका वह वाक्य आज भी मेरे कानों में गूंजता है “मुझे वास्तव में ही लोगों को कुछ बताना था.”
उस दिन उनकी हर बात पर, हर लाइन पर तालियां बजी. खूब तालियां मुझे यह समझा रही थी कि अपनी भाषा में चीजे ज्यादा समझ में आती हैं. मैं महसूस कर रहा था कि उनकी बातें, ज्ञान, सूचनाएं सब लोग समझ रहे हैं.
मैं नहीं जानता वह कितने बड़े वैज्ञानिक हैं, लेकिन वैज्ञानिकों के उस सम्मेलन में एक ही आदमी की बातें मुझे समझ में आई जो हिंदी में कही गई थी. क्योंकि वह मेरी मातृभाषा है. मैं नहीं समझता कि मेरी अंग्रेजी कमजोर है.
बाद में इस बात को मैंने बहुत गहराई से समझा-सोचा और विश्लेषण किया तो ध्यान में आया कि इस तरह के बहुत से सेमिनार, वर्कशाप, सिंपोज़ियम, समिट देशभर में हर माह आयोजित होते रहते हैं. पर इनमें से एक भी कुछ ख़ास नया नहीं दे जाते. वह केवल प्रोसीजर पूरी करते हैं, वह केवल अपना खानापूर्ति करते हैं.
मोटा मेमोरेंडम छापते है और खूब खर्चा-चर्चा करते हैं. फिर खत्म हो जाते हैं. बिना-समझे और कुछ मिले. देश की जनता के पैसे से होने वाले इन आयोजनों से क्या मिलता है? इंडस्ट्री को ट्रांसफर हुई किसी टेक्नोलॉजी के बारे में कोई विभाग नहीं जानता.
हाँ, ये अंग्रेजी भाषा के विकास में जरूर योगदान देती है. वक्ताओं के इम्प्रेशन झाड़ने के दौरान हर बार कुछ नए ‘वर्ड’ सुनने-सीखने को मिल जाते हैं. कई बार तो हिंदी-दिवस पर आयोजित सम्मेलन में हिंदी की आवश्यकता पर मैंने लंबे भाषण अंग्रेजी में सुने है.
अपने यहां अंग्रेजी के कुछ स्थापित लेखक हैं. प्रायः वामपंथी है. भारत में खूब पढ़े जाते हैं. चेतन भगत उनमें से एक नाम है. के.आर नारायणन, अरुंधति राय इत्यादि बहुत सारे है, नाम में क्या रखा है.
मैंने उनके बारे में पता किया, वे इंग्लैण्ड में नहीं बिकते, बाहर किसी देश में कोई पूछता-देखता भी नही, जो भी थोड़ी-बहुत पूछ है वह यहीं है. ज्यादातर अनुवाद की किताबें बिकती हैं.
मैंने एक पब्लिशर से पूछा बाहर बिकती है कि नहीं? बताया, बाहर के देशों में इन जैसे बहुत सारे पड़े हैं, उनकी खुद की मौलिक भाषा है ,भाषा-पकड़ प्रवाह उनकी ज्यादा अच्छी होती है, वह लोग बहुत सारे अच्छी किताबें लिखते हैं. काहे को इनको पढ़ेंगे! बाहर के लोग इसे कूड़ा कहते है. उनकी जबरर्दस्त बेस्ट-सेलर किताबों के आगे इनकी क्या बिसात?
उनका कूड़ा यहीं ज्यादा बिकता है. वह भी अंग्रेजी में ज्यादा नहीं स्थानीय भारतीय भाषाओं में. लेकिन यह साहब लोग लिखते रहे हैं अंग्रेजी में, मालिकों की भाषा में लिखते रहे है. वेटेज ज्यादा मिलता है.
इंग्लिश सुनते ही महत्त्वपूर्ण लगने लगता है. उसका बड़ा लाभ है. तब वह भारत में खूब बिकता है. बड़ा नाम हो जाता है. अंग्रेजी के लेखक हैं, अंग्रेजी में लिखते हैं. तब पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी माने जाते हैं.
गजब है! पहले अंग्रेजी में लिखो फिर ट्रांसलेशन करवाओ. इंप्रेशन बनाओ. यही चल रहा है काफी दिनों से. आपने अंग्रेजी के पत्रकारों का रवैया देखा होगा, बड़े भाई बनते है.
हिंदी के फिल्मों के अभिनेता आपस में बात करते हैं तो अंग्रेजी में बोल-बोल कर बात करके दिखाने की कोशिश करते हैं, गिटिर-पिटिर. रोटी हमारे भाषा की खा रहे हैं. दिखावा साहबों की भाषा रहे हैं.
ऐसी हजारो छोटी-छोटी चीजे देखेंगे. लिस्टिंग करिए. वे क्या जाहिर करना चाहते हैं. खुद समझिये. उनका complex है. कुंठा की हिंदी बोल देंगे तो पिछड़े लगेंगे, इज्जत चली जाएगी.
लोगों के घरों में अखबार आता है. अंग्रेजीदां के घर इंग्लिश वाला पेपर मेज के ऊपर रहेगा, हिंदी का अखबार घर के अंदर चला जाएगा. कितना काम्प्लेक्स भरा पड़ा है! यही समस्या है, यह complex (हीन भावना) ही देश की विकास रोके हुए है. हमें इससे लड़ना होगा. यह रोग है इस रोग का इलाज करना होगा.
वे इंग्लिश में इसलिए बोलते हैं, उनकी गलतियां, कम जानकारी, सतही ज्ञान छुप जाए. इस अंग्रेजी-पने से थोड़ी सुपिरियारिटी, थोड़ा सामंतीय बोध, भारत से थोड़ा अलग होने का बोध होता है. वे अपने को शासक रूप में महसूसना चाहते है. सामान्य भारतीय को कैटल (भेड़, बकरी-ढोर) महसूस कराना चाहते हैं.
आम जन भी वही नकल करते हैं क्योंकि उनका आत्मविश्वास खत्म कर दिया गया है. क्रमश: हिन्दुओं को अंग्रेजी के द्वारा पूरे विश्वास से उनके पितरों के धर्म, अपनी संस्कृति, भाषा को हेय समझा दिया गया है.
अच्छी इंग्लिश उनको आत्मतुष्टि या चरम ज्ञानानुभूति नहीं बल्कि एक सुपरफीशियल सा आर्टिफीशियल टाइप का अंत:सुख देती है.
अपनों और अपनी से काटने का यह भाव अंग्रेजों, फिर कांग्रेसियों ने प्रयासपूर्वक जन्माया है.
मेरे एक मित्र हैं उनकी शिकायत है कि उनको अंग्रेजी नहीं आती इसलिए वे अयोग्य हैं. मैंने उनको बताया, फ्रांसीसियों-जर्मनों-जापानियों-चीनियों, दुनिया के अधिकाँश लोगों को अंग्रेजी नहीं आती. वे योग्य बने हुए हैं. उनका प्रशासन, एजुकेशन, कार्य-व्यवहार सब सही चल रहा है.
अंग्रेजों को भी तो हिंदी नहीं आती. जर्मन को जर्मन आती है. फ्रांसीसियों को फ्रेंच आती है. स्पेनियों को स्पेनिश आती है. चीनियों को मंदारिन. सभी विकसित देश अपनी भाषा के साथ खुश है. विकास कर रहे हैं. उनको बिलकुल नहीं लगता कि फलानी भाषा के साथ ही हम विकसित हो सकते हैं. लेकिन हम हिंदुस्तानी अंग्रेजी नहीं आती तो पिछड़े है, अयोग्य है, नाकाबिल है.
फ्रैंच दुनिया की सबसे मीठी और साहित्यिक भाषा कही जाती है. विकसित आधुनिक देशों के नागरिकों का शौक होता है कि वे फ्रैंच सीखे. वह फैशन माना जाता है. खुद इंग्लैण्ड के लोग दो-चार फ्रैंच शब्द बोल कर अपने को फैशनेबल और इलीट क्लास दर्शाते हैं.
इतना सब होने के बाद भी दुनिया में फ्रांस के अलावा किसी देश के नागरिकों की भाषा फ्रेंच नहीं हो पाई. फ्रैंच अंग्रेजी की तरह 9 लाख करोड़ डॉलर की कारोबारी भाषा नहीं बन सकी है.
अंग्रेजी ने 150 साल पहले ऐसा डिजाइन किया कि वह अपने डोमिनियन स्टेट को अंग्रेजी से भर दे. वह इकॉनमी डिजाइन था. जिसने जेहनी तौर पर हमें गुलाम बनाकर हमसे वसूलना जारी रखा है. ये सब भाषा और धर्म, सब इकोनामी-ड्रिवेन हैं.
अगर भारत मजबूत होता है, सनातन मजबूत होता है तो सब हिंदी मे ही होने लगेगा. इसीलिये चीन, जापान, यूरोप का हर देश, रूस सब की अपनी भाषा है, और वे सारे काम अपनी भाषा में करते हैं. भारतवासी मजबूर हैं, दूसरे की भाषा बोलने मे गर्व महसूस करने के लिए.
वैसे हिंदी और हिन्दू धर्म को साबित करने की जरुरत नहीं पड़ती अगर कुछ पिछलग्गू एजेंट न होते तो. देश गुलाम हुआ सब कुछ लूट लिया गया. सब फिर वापस पाया जा सकता था अगर बड़ी मात्रा में उनके काले रंग वाले एजेंट और अंग्रेजी न छोड़ गए होते तो.
हमने धर्म को नहीं टूटने दिया, ये बड़ी उपलब्धि है. 70 साल में भारत के लोग विश्व पटल पर आ सकते थे. इन दो-तीन साल में आ भी गये. विश्व को पता चल चुका है भारत संपेरों-जादूगरों का देश नहीं है. ये एक बड़ी उपलब्धि है. खुद समझिये कैसे, तनिक सा दिमाग लगाने से दिखना शुरू हो जाएगा.
भाषा न आना कोई समस्या नहीं है. यह कोई कमी नहीं है. किसी को किसी अन्य देश की भाषा नहीं आती और रोज-रोज का सामना नहीं होता तो यह कोई अयोग्यता नहीं है. यह दिमागी कमजोरी की निशानी नहीं है.
जब किसी देश में होंगे वहां की भाषा तो खुद ब खुद आ जाती है. उस देश, काल, परिस्थिति की कोई भी भाषा हो आदमी उसे रोजमर्रा उपयोग करते-करते सीख ही लेता है. इसका आई-क्यू से क्या लेना-देना?
लेकिन लाखों बच्चे इसे काम्प्लेक्स के तौर पर जीते है. दिमाग में बैठा दिया गया है कि काबिलियत की पहचान है. हम उसको योग्यता के तौर पर पेश करते हैं. अंग्रेजी आना योग्यता का प्रमाण हो गया है, सभ्यता का प्रमाण हो गया है.
फिर यह हमें मानसिक रुप से कमजोर करता है. हीन महसूस कराता है. हर एक हिंदुस्तानी को यह मानसिक रूप से पीछे छोड़ देता है. अंग्रेजी इस स्तर पर व्याप्त है कि भारत में ही दूसरे को नीचा दिखाने के काम आता है.
गजब है! किसने-कैसे किया… सोचिये.
मैं आंकड़ो, गहन सूचनाओं, ढेर सारी किताबों और इतिहास में नहीं जाऊँगा (उस पर हिंदी दिवस पर खूब मिलेगा). पर जान लीजिये, हिंदी-संस्कृत के अलावा देश की सभी भाषाओं को पूरी चतुराई से समाप्त करने की साजिश की गई थी, उनकी संख्या घट रही है.
इन 150 सालों में अंग्रेजों और कांग्रेसियों ने आपके दिमाग पर एक अप्लीकेशन इंस्टाल कर दिया है. अंग्रेजी भाषा का अप्लीकेशन आपके दिमाग का मेन-मोड बन चुका है. इससे आप केवल अँग्रेजी के ही शिकार नहीं बनते. केवल एक स्पेसफिक मानसिकता में ही नहीं जकड़ उठते बल्कि अपनी पुराने-चीजों, अपने ही देशी भाई-बहिन आपको बाहरी महसूस होने लगते हैं.
एक भाषा अपना लेने मात्र से पुरखों की धरोहर, उनकी शानदार विरासतें, जीवन-पद्धति सब कुछ पोंगा-पिछड़ा-दकियानूस लगने लगता है. बस आप नाम के सनातनी बचते हैं, शेष सब ईसाइयत का मकड़जाल होता है. ईसाई मिशनरियों ने शुरुआती दौर में इसे स्थापित किया. अंग्रेज तो करेंगे ही. परन्तु 1947 के बाद यह इतना कैसे फ़ैल गया?
आज़ादी के बाद गवर्नमेंट मशीनरी की भाषा में गांधी के हथियार ‘स्वदेशी’ को दरकिनार करने के लिए इंग्लिश को प्रमुखता देकर ‘नेहरुआना कल्चर’ को प्रोत्साहित किया गया. इसी से वंश की स्थापना भी सम्भव थी.
शिक्षा-प्रशासन-लोक-व्यवहार में इंग्लिश को बढ़ावा देना शुरू कर दिया गया. अंग्रेजी बोलने वाले लोग रोल-मॉडल माने जाने लगे. उन्हें प्रमुख स्थानों पर पोस्ट किया जाने लगा. सत्ता के कंगूरे पर बैठा कौआ भी महत्वपूर्ण लगता है.
अर्थ-शास्त्र का मान्य सिद्धांत है ‘जॉब-मार्केट’ मालिकों की भाषा के इर्द-गिर्द ही पनपता है और मालिकानों के हित सत्ता-प्रतिष्ठानों में निहित होते हैं. वाणिज्य और कारोबार में अंग्रेजी की प्रधानता खड़ी ही इसलिए हुई क्योकि ‘तत्कालीन सरकारों’ का रुझान यही दिख रहा था. अंग्रेजी को न्यायपालिका की भाषा बनाकर उसे मुख्य भाषा में बदल दिया गया. इसके पीछे कौन सी सोच काम कर रही थी, समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है.
यह सही है कि अंग्रेजी का कारोबारी दायरा बहुत बड़ा है. दुनिया के 87 देशों के पूर्व-शासक होने की वजह से इंग्लिश बोलने वालों की संख्या बहुत बड़ी है. यह बाकायदा बनाई गई है. भारत में असहज होते हुए भी यह आत्मसात करा दी गई है.
अकादमिक गतिविधियों और मीडियाटिक वार, मनोरंजन के माध्यम से ऐसा करने में उन्होंने कामयाबी पाई है. आज के अधिकतर साइंस, इंजीनियरिंग, मेडिकल की किताबे, इंस्ट्रूमेंटेशन, इंटरटेनमेंट, कम्प्यूटर लैंग्वेज, आई-टी, साफ्टवेयर, अंतरराष्ट्रीय संपर्क का भाषाई आधार अंग्रेजी है.
पर यह कब्जावादी नीति से जन्मा है. लेकिन शासन, न्याय, वर्क-शाप, सेमिनार, प्राथमिक-शाला, सहज मनोरंजन, आपसी सम्पर्क, सीखने व एक-दूसरे से भावनात्मक अंतर्देशीय सम्पर्क के लिए दूसरे की भाषा अपनाना निहायत ही हास्यास्पद है.
वह केवल इम्प्रेशन मारने के लिए नहीं है. वह कहीं न कहीं आप के ‘स्वत्व’ पर आक्रमण जैसा है. धीरे-धीरे आप वह खोने लगते है जो पितरों की दी हुई है. इसके माध्यम से वह सोच में घुसते हैं. अपना सब कुछ खोने लगते है. वेश-भूषा, पहनावा, खानपान, और पूजा-पद्धति तक.
यह गिटिर-पिटिर अपने साथ. पहले अपने देशी लोगो को हेय समझाता है, फिर आपको अंदर तक बताता है कि आप तो इनसे अलग हैं, कुछ ही दिन बाद अधनंगा पन. अपने बाप के कपड़े और नाम पिछड़ा लगने लगता है, फिर पिज्जा-सालसा के साथ आपको हनुमान जी, और अपने संतजनों में आस्था घटती चली जाती है.
एक आदमी का सम्पूर्ण विकास उसकी अपनी भाषा में ही होता है. एक बच्चा दूसरे की भाषा में क्या समझेगा-सोचेगा-आगे बढ़ेगा?
पर हम अंग्रेजी में पढ़ा-बढ़ा कर उसका क्रिएशन, विकास मार देते हैं. इन सत्तर सालो में एक भी आविष्कार क्यों नहीं किया? एक भी नोबल-प्राइज़ लायक काम नहीं, एक भी मौलिक रचना नहीं हुई है. ज्ञान-विज्ञान-मेडिकल-टेक्नोलॉजी का एक भी शोध-रिसर्च नहीं हुआ.
आप खुद को धोखा देने के लिए कुछ न कुछ गिनाने में लग जाएंगे. जो दो-चार दिख रहे हैं वह वैश्विक प्रतिस्पर्धा नहीं नौकरियों में. फिल्मों, साहित्य ब्लॉक के हम घर-बग्घा की तरह है. जहाँ तुलना दूसरों से हुई, हम गायब.
ध्यान से देखिये अगर कही टॉप पर कोई हो गया होगा तो धोखे या अन्य कारण से. ईमानदारी से सोचियेगा कि हम 125 करोड़ लोग अपने अनुपात का 2 प्रतिशत भी आविष्कार नहीं दे सके? नये प्रयोग? थीसिस? ओलम्पिक? अन्य विज्ञान-धर्मी उपलब्धि?
टॉप हंड्रेड थिंग्स वर्ल्ड-लीडरशिप में एक भी हिन्दू नाम नहीं है… ग्लोबल सब्जेक्टिव लीडरशिप की छानबीन कर लीजिए. 100 फील्ड्स में टॉप नाम आप खुद चुनिये और हमें भी बताइये.
एक ही बात दिखेगी, हमने केवल आई-टी प्रोफेशनल दिए हैं. उसमे भी नियंता-निर्माता नहीं, नौकरी करने वाले दिए हैं. नौकर बनाये है हमने. लेकिन टॉप थॉट-लीडर्स नहीं दिए.
क्यों?
पैसे वाला रोना मत रोइयेगा… शुरूआती दौर में किसी के पास नहीं होता. न जुकरबर्ग के पास, न ही बिल गेट्स के पास. फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट 2-6 हजार डॉलर से शुरू हुये थे. दुनिया के सारे बड़े काम इसी तरह के इनोवेशन से शुरू हुए थे.
क्योकि चिंतन-मनन-आविष्कार-आइडिया-इनोवेशन-ध्यान-एकाग्रता-फोकस अपनी भाषा से आता है. कोई भी क्रियेशन हमेशा वह शक्ति ही करती है, वैज्ञानिक तो माध्यम बनते है. परम-चेतना हमेशा देव-वाणी में संवाद कायम करती है. वह मातृभाषा होती है. दूसरों की भाषा नाटकीयता तो पैदा करेगी, ज्ञान न देगी. परमात्मा नाटकीयता और झूठ नहीं झेलता, न कुछ भेजता है.
संस्कृत और मातृभाषाओं से यही डर था कि वह लीड कर सकती थीं, वह नेतृत्व कर सकती थीं… और ऐसा वे क्यों चाहने लगे?
यह तो सनातन प्रवाह को स्थापित कर देता. प्राचीन चेतना को स्थापित कर देता. उनके हाथ से दुनिया भर में फैला उनका कारोबार निकल जाता, लीडरशिप निकल जाती. यह कारण था.
मैं यह नहीं कह रहा कि अंग्रेजी न सीखिये, खूब सीखिये, दुनिया के साथ चलिए, कई भाषाएँ सीखिये इससे दिमाग तेज होता है. उनकी किताबें भी पढिये. ज्ञान-विज्ञान बढाइये. लेकिन जहाँ आप सभी की मातृभाषा है वहां अंग्रेजी का रौब झाड़ने की क्या जरूरत?
वह एक मानसिकता बन चुकी है. उस मानसिकता को छोड़ दीजिए. अंग्रेजी-वादी सुपिरियोरिटी को त्याग दीजिये. वह हमें गुलामी की याद दिलाता है. वह किसी को बड़ा बना देता है, उससे डर, विशिष्टता प्रदान कर देता है. आपके आपस में बोलने मात्र से वह उनके साथ कुत्ते और मालिक की भावना से भर देता है.
उन्होंने अंग्रेजी थोप दी. आपका विकास रोक दिया. उन्होंने स्वतंत्रता दी आपको किंतु अग्रेजी से स्वतंत्रता नहीं दी. अपने भाषाई एजेंट बैठा गये. नेताओं के रूप में, ब्यूरोक्रेट के रूप में… जिनका काम था उनके हितों की रक्षा करना.
वे लगातार इस भाषा से हमारी जड़ो पर प्रहार कर रहे हैं. सनातन काल प्रवाह को रोकने के लिए अंग्रेजी उनका हथियार बन चुका है. इस हथियार की ताकत से अपना पूर्णत्व बाहर लाने से हमें टोक-रोक दिया गया है.
हमे सेल्फ-हीलिंग देनी होगी स्व-सम्मोहन देकर… इस गुलामी से बाहर निकलिए. इस आघात को खत्म करिए. हमें खुद हथियार बनना पड़ेगा.
क्रमशः 15