परसों जब से भारतीय सेनाध्यक्ष का यह बयान आया है कि, सेना की आतंकवादियों की कार्यवाही की दौरान कोई व्यवधान करेगा या पाकिस्तानी व आईएसआईएस के झंडे ले कर निकलेगा, उसके साथ आतंकवादियों जैसा ही सलूक होगा, तब से नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस के साथ भारत की तमाम सेक्युलर मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवी, मानवाधिकार की दहलीज पर चूड़ियां तोड़ कर, विधवा विलाप कर रहे है.
मेरा अपना पूरा इरादा था कि मैं इस चुनावी दौर में, इस पर कुछ नही कहूंगा क्योंकि इस मुद्दे पर कुछ भी मर्यादित नहीं कहा जा सकता है. लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ लोग इतने विधवा विलाप के आंसू बहा रहे है कि मेरे पैर भीगने लगे हैं और मुझे इस मौसम में गीले पैर बिलकुल भी पसन्द नहीं हैं.
मेरी कश्मीर और सेना के मुद्दे पर सोच बहुत स्पष्ट और असंवेदनशील है. आतंकवादियों के समर्थन में, भारतीय सेना के सामने जो भी सामने आता है चाहे वह 9 साल का लड़का हो या लड़की या 90 साल का मौलाना या मोहतरमा, उन्हें मारने से कोई परहेज़ नहीं करना चाहिए.
इसी के साथ, जो लोग इन कश्मीरियों का समर्थन कर रहे है, भले ही वह सोशल मीडिया पर कर रहे हैं, उन्हें तुरंत कश्मीर भेज देना चाहिए और उनके हाथ में पत्थर दे देना चाहिए.
इनके हाथ में पत्थर आने ही चाहिए क्योंकि इन लोगों को, सेना के आतंकवादियों के विरुद्ध कार्यवाही करने में व्यवधान करने वाले लोकतान्त्रिक और मानवाधिकार के ग्राही लगते हैं.
इन्हें भारतीय सेना और भारतीय तंत्र का विरोध करने का पूरा मौका देना चाहिए ताकि इन लोगों को casuality of war बनने का मौका मिले और कश्मीर की घाटी में ही दफन होने का सौभाग्य मिले.
एक बात समझ लीजिए, कोई भी राष्ट्र तभी ही जीवित रह सकता है जब वह इस जीवन रेखा को व्याधित करने वाले तत्वों को समूल नष्ट करता है.
मेरे लिए लोकतंत्र महत्वपूर्ण तभी तक है जब तक राष्ट्र है. यदि लोकतंत्र की हत्या कर के यदि राष्ट्र बचता है, तो उसकी हत्या करने से भी परहेज़ नहीं करना चाहिए.