दिन भर की कोशिशों के बाद भी स्वामी ध्यान विनय मुझे आज रुला नहीं सके. पिता की मृत्यु पर नहीं रोई तो उनके प्रथम मृत्यु उत्सव पर कैसे निकलते आंसू… ह्रदय कुण्ड में की बची हुई नमी तो पिछले दिनों वलसाड यात्रा के दौरान माँ के ह्रदय की सूखी नदी में ममता खोजने में खर्च हो गयी….
मैं सदा से बहुत खर्चीली रही हूँ… जितना प्रेम कमाती नहीं, उससे अधिक तो खर्च कर देती हूँ… फिर खाली झोली फैलाए इंशाजी साथ गुनगुनाते रहते हैं
… जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या,
इंशाजी उठो अब कूच करो इस शहर से दिल को लगाना क्या…
दिल बार बार इस भौतिक जगत से उचट सा जाता है… बस मन में एक ही विचार… जाना है… बस चले जाना है…
आज की उनकी ध्यान की सारी प्रक्रियाओं के बीच मैंने खुद को इतना तटस्थ रखा कि पता ही नहीं चला कि अपने ही अपशब्दों के छींटों से खुद के ही आत्मा के कपड़ों पर दाग़ लगाती रही…
उनका क्या है वो तो जैसे इस भौतिक दुनिया के है ही नहीं… बिलकुल पारदर्शी… वो तो हर बार बेदाग़ निकल आते हैं….
मैं अपने ही बनाए हुए दाग़ देख देख फिर से आज क्या खोया क्या पाया का हिसाब लिए उनसे रूठकर बैठी थी. विचारों की इन्हीं उथल पुथल के साथ कम्प्युटर पर अपना काम कर रही थी कि मेरे बाजू वाले कम्प्यूटर से स्वामी ध्यान विनय इनबॉक्स में धीरे से एक किस्सा दे गए… और उठ कर चल दिए…
मैं नहीं जानती उन्हें पता होता है या नहीं, कि डूबते के लिए एक तिनका कितना बड़ा सहारा होता है… मैं डूबना नहीं चाहती वो जानते हैं… लेकिन मेरा सर्वस्व सब कुछ छोड़कर पूर्ण समर्पण के साथ डूब जाने को तैयार खड़ा है, वो ये भी जानते हैं… मैं उस Threshold पर खड़ी हूँ जहां एक छोटा सा धक्का भी मुझे आर या पार के निर्णय तक पहुंचा सकता है…
लेकिन जैसा ऊपर कहा… डूबते को बचाने के लिए एक तिनके का सहारा भी काफी है…. वो तिनका पकड़ा गए क्योंकि वो जानते हैं अभी इस भौतिक जगत के बहुत सारे कर्मों का हिसाब किताब बाकी है..
किस्सा कुछ यूं है-
मीरा सन्त रैदास की शिष्या कैसे बनी? मीरा नामक चित्रपट में एक प्रसंग दिखाया है.
मीराबाई सन्त रैदास को मिलने जाती है. सन्त रैदास पानी डाल कर चमड़े को साफ कर रहे थे. मीराबाई सामने खड़ी रही. रैदास जी अपने काम में इतने रम गये थे कि, चमड़ा साफ करते हुए गन्दे पानी के छींटे मीरा की शुभ्र साड़ी पर गिर रहे थे, इसका भान भी उन्हें नहीं हुआ.
थोड़े समय बाद हाथ रोक कर रैदास जी ने मीराबाई को ओर देखा तो सारी साड़ी छींटों से भर चुकी थी. उन के मुख से निकला – “अरे तुम तो मेरे रंग में रंग गयी हो.”
बस! सन्त रैदास मीरा के गुरु हो गये. नमस्कार किया और उसी गुरुत्व को धारण कर मीरा वहाँ से चल दी.
बस! अपना ही लिखा वो लेख याद आ गया कि – आपमें शिष्यत्व है तो प्रकृति का गुरुत्व प्रकट होगा ही…