इंग्लैंड में लाखों हिन्दू हैं. प्रतिशत में कम से कम उतने ही जितने भारत में ईसाई. पर भारत में शिक्षा, मीडिया, पॉलिसी मेकिंग और जनमानस पर क्रिश्चियन सोच और और स्ट्रेटेजिक तंत्र का जो कब्ज़ा है उसकी तुलना नहीं हो सकती.
बल्कि यहाँ पीढ़ियों से रहने वाले हिन्दू परिवार हैं, जिनमे से कइयों ने अपनी पहचान और संस्कृति बचा रखी है. वहीं, कई हैं जो अपने आप को सिर्फ अपनी भूरी चमड़ी से पहचानते हैं.
और जो भारत से नए आये परिवार हैं, उनकी प्रतिरोध क्षमता तो बहुत ही तेजी से क्षीण हो रही है. जबकि जगह-जगह किसी न किसी रूप में हिन्दू समाज अपने त्यौहार मना रहा होता है, वहीँ कई ऐसे लोग मिले जो यहाँ 10-15 सालों से हैं पर आजतक कभी होली दीवाली नहीं मनायी.
ऐसे ही कुछ परिवारों को साथ लेकर हम लोग यहाँ हर साल होली और दीवाली मनाने का प्रयास कर रहे हैं. नए लोगों को जोड़ने की भी कोशिश करते हैं. दुःख तब होता है जब उन्हें इसमें शामिल होने के लिए कन्विन्स करने का तर्क देना पड़ता है.
एक ऐसी ही महिला को इसके लिए आमंत्रित किया… कहा, आपको यहीं रहना है, कल को आपके बच्चे इसी समाज में बड़े होंगे… अगर आप ही अपने त्यौहार नही मनाएंगी तो आपके बच्चों के पास क्रिसमस और ईस्टर मनाने के अलावा क्या अवसर होगा.
उन्होंने कहा – मेरे बच्चे सभी धर्मों के त्यौहार मनाएंगे…
अब बच्चे क्या करेंगे यह तो बाद की बात है. पहला प्रश्न तो यह आया कि वह कौन सी ग्रंथि है जो हिन्दुओं को ऐसे सोचने को मजबूर करती है… जब आप ही अपने त्यौहार नहीं मना रहे हैं तो आपके बच्चे “सभी” धर्मों के त्यौहार कैसे मनाएंगे? हाँ, “अन्य” सभी धर्मों के त्यौहार जरूर मनाएंगे.
और सभी धर्मों के त्यौहार मनाने की कौन सी मजबूरी है? यह मजबूरी और किसी की तो नहीं है, हमारी ही क्यों है? किसका कर्जा खाया है हमने, किसके बंधुआ गुलाम हैं, किससे अप्रूवल खोज रहे हैं?
क्या अगर आप “सभी” धर्मों का “सम्मान” करने की मजबूरी महसूस नहीं करते तो आप सच्चे हिन्दू नहीं हैं? कहाँ लिखा है, कहाँ से आया यह उच्च विचार?
हिन्दू धर्म का कौन सा धर्म ग्रन्थ अन्य धर्मों के आने के बाद लिखा गया है, जिससे आपने यह निष्कर्ष निकाल लिया?
जब हमारी धर्म संस्कृति विकसित हुई तो ये “अन्य” धर्म तो थे ही नहीं? फिर उनका “सम्मान” करने की शिक्षा कैसे और कब दे दी गयी? इस्लाम और क्रिश्चियनिटी हमारे पॉइंट्स ऑफ़ रेफेरेंस कैसे और कब हो गए?
और इस्लामिक या क्रिश्चियन थियोलॉजी में तो हमारा सम्मान करना नहीं शामिल है. उनकी धार्मिकता में तो हमारे लिए सम्मान तो क्या, वैधता (legitimacy) भी नहीं है. उनकी दृष्टि में तो हम एक वैध धर्म ही नहीं हैं.
हम सिर्फ विधर्मी ही नहीं, अधर्मी, पगान… अँधेरे में भटकते लोग हैं जिस तक उनकी पवित्र किताबों की रौशनी पहुंचाना ही उनका कर्तव्य है.
तो ऐसे में उनकी धार्मिकता का सम्मान करने की यह एकतरफा जिम्मेदारी हम क्यों अपनी तरफ से ओढ़ रहे हैं?
कोई आपका छुआ नहीं खाना चाहता, आपके साथ नहीं बैठना चाहता और आपकी जिद है कि खाएंगे तो एक ही थाली में नहीं तो भूखे रहेंगे…
तो इस ज़िद के नतीजे में आपको तो सिर्फ जूठन ही खाने मिलेगा… मंजूर है तो बैठिये जमीन पर, इंतज़ार कीजिये जूठन फेंके जाने का.
वरना हमारे बाप दादों का भंडारा चलता आ रहा है पीढ़ियों से… जिसमे हम पूरी दुनिया को खिलाते आ रहे हैं इज्जत से… मर्जी है आपकी.