अम्मा

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मृत्यु के ठीक 20 दिन पहले अम्मा की गोद में ज्योतिर्मय

बात उन दिनों की है जब अम्मा को गए लगभग साल भर होने को आया था… जानती हूँ वो जाकर भी कहीं नहीं गयी है… इसलिए हर माह की दोनों एकादशी पर वह अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देती थी किसी न किसी रूप में…

जानते बुझते हुए भी मैं न जाने क्यों फिर भी विचलित हो जाती थी… यहाँ शायद दोनों कारण काम करते थे … पहला मेरा उनके लिए एकादशी का व्रत रखना क्योंकि उनकी मृत्यु पर मैंने साल भर के लिए एकादशी व्रत रखने का संकल्प लिया था उनके लिए. और दूसरा मेरा दिन भर भूखा रहना … लेकिन यदि केवल मेरा भूखा रहना और शरीर तल पर विचलित रहना ही कारण होता तो मैं इतनी हैरान परेशान क्यों होती???

क्या अम्मा को मेरा उनके लिए व्रत रखना पसंद नहीं आ रहा था या मेरे व्रत वाले दिन इसलिए वो बेचैन हो जाती थीं क्योंकि उन्होंने जीते जी मेरे हाथ का बना खाना खाने से इनकार कर दिया था और अंतिम दिन तक मेरे हाथ का खाना नहीं खाया और दूसरी तरफ मैं उनकी आत्मा की शान्ति के लिए एकादशी पर खाना नहीं खाती … अक्सर फलाहार भी नहीं…

फिर सोचा यदि मेरा व्रत रखना उन्हें विचलित कर रहा है तो मैं उन्हें और परेशान नहीं करूंगी… यूं तो साल भर के लिए एकादशी व्रत का संकल्प लिया था लेकिन आज मैं ये संकल्प तोड़ती हूँ और आज ये मेरी आख़िरी एकादशी होगी… लेकिन फिर उन्हें उस वसीयत को मिटाना होगा जिसमें मेरी कोख के जायो का बंटवारा कर दिया गया था… ये शर्त नहीं प्रार्थना है…. हाथ जोड़कर….

इतना कहकर भीगे मन से हाथ जोड़कर बैठी ही थी और अम्मा से प्रार्थना कर रही थी कि किसी ने मेरे कमरे की खिड़की पर जोर से दस्तक दी… जब मेरे आसपास की सारी दुनिया सो चुकी थी, कमरे की खिड़की ऐसी जगह जहां किसी बाहरी व्यक्ति का पहुंचना या किसी बिल्ली और चूहे का उस पर कूद पाना भी नामुमकिन… ऐसे में खिड़की पर अम्मा के अलावा और कोई नहीं हो सकता था…. मैं जानती थी… उस वक्त मेरी आँखों से आंसू ही उनके लिए धन्यवाद बन कर निकले…

मैं अक्सर स्वामी ध्यान विनय से पूछती रहती थी आपको कैसे दिखाई देते हैं ये न दिखाई देने वाले अशरीरी लोग… आप कैसे उनकी बात समझ लेते हैं, लेकिन वो अक्सर मुस्कुराकर चुप हो जाते, क्योंकि उन्हें पता था किसी दिन मैं ये अपने आप ही जान जाऊंगी… इन सब बातों के लिए भी पात्रता अर्जित करना होती है… इसे बोल कर नहीं बताया जा सकता…. और फिर उस रात मैंने जाना कि उन्हें देखा नहीं जा सकता केवल महसूस किया जा सकता है…

अम्मा से ये पहला संवाद था तो केवल संकेत के माध्यम से उन्होंने अपनी बात कही और सच कहूं मुझे ज़रा सा भी भय नहीं लगा… बल्कि मैं कृतज्ञ थी उन्होंने मुझसे अब जाकर सच में संवाद स्थापित किया….. और फिर अगले दिन पता चला हिन्दू कैलेण्डर और तिथि के अनुसार कल ही साल की आख़िरी एकादशी थी…
अम्मा आशीर्वाद देने आई थी…

आज पूरे तीन साल हो जाएंगे अम्मा को गए हुए…. यूं तो तारीख के हिसाब से कल का दिन है लेकिन आज सुबह से पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था अम्मा का आना और जाना इन तारीखों से बंधा हुआ नहीं.. इसलिए शायद उनकी जन्म तारीख भी किसी को मालूम नहीं थी, उन्हें बस इतना याद था कि जिस साल उनका जन्म हुआ था उस साल की दीपावली के बाद पड़ने वाली एकादशी को उनका जन्मदिन आता है… तो उनके बच्चों ने मिलकर वो तारीख ढूंढ निकाली जिस दिन एकादशी थी… वो निकली 14 नवम्बर यानी बाल दिवस…

एक लड़की जिसकी 13-14 साल में शादी हो गयी हो, उसका बचपन तो वैसे ही घर गृहस्थी और 15 साल में हुए पहले बच्चे और 11 माह के बाद उस बच्चे की मृत्यु में खो गया था… उसका जन्मदिन उस दिन होना मुझे लाजमी लगता है… अपने बच्चों से ज़्यादा बच्चों के बच्चों के लिए जान लुटाने वाली के अन्दर का बचपना जब तक झलक आता था…

ये संयोग ही था कि 13 नवम्बर को मेरा गृहप्रवेश हुआ था और अगले दिन 14 नवम्बर को उनका जन्मदिन.. उनके जन्मदिन के दिन उनके कमरे में जाकर जब उनके पाँव छूकर जन्मदिन की शुभकामनाएं देने गयी तो उन्होंने आशीर्वाद देने के बजाय आदेश दिया कि तुम इस घर में मेरी मर्ज़ी के खिलाफ आई हो लेकिन मेरे कमरे में मेरी मर्ज़ी के बिना प्रवेश नहीं करोगी…

मैं साल भर तक उनके कमरे की चौखट पर खड़ी रही… ससुरजी से कुछ काम होता तो दरवाज़े की चौखट पर खड़ी होकर ही बात करती, घर में ननंद के बच्चे आकर नानी के कमरे में नानी के साथ उधम मचाते तो मैं अपने गर्भ में पल रहे बड़े बेटे ज्योतिर्मय के साथ चौखट पर खड़ी रहकर उन्हें देखा करती…. मेरी वजह से तीनों ननंदों ने भी आना छोड़ दिया था…

मैं रिश्तों की नींव में पड़ी दरार सी हो गयी थी… दिन ब दिन और टूटती जा रही थी….

फिर मई 15 आई, ज्योतिर्मय का जन्म होनेवाला था आधी रात को दर्द उठा…. पापा और स्वामी ध्यान विनय मुझे अस्पताल ले जाने के लिए तैयार होकर बाहर खड़े हो गए… मैं पीछे मुड़कर देखती रही अम्मा के कमरे की लाइट बंद थी वो जाग रही थीं लेकिन बाहर नहीं आई…

प्रसव का दर्द असहनीय था, मैं फिर भी उस दरवाज़े की चौखट तक धीरे धीरे चलकर गयी… वहीं से आवाज़ लगाकर कहा- “अम्मा आती हूँ अस्पताल से…”

अम्मा ने तुरंत जवाब दिया- “हाँ ठीक है”

ज्योतिर्मय का जन्म हुआ… अम्मा की तीनों बेटियों के दो दो बच्चे हो चुके थे…   लेकिन तीनों बेटियों के बड़े और इकलौते भाई के घर पहला बच्चा हुआ था….

तीसरे दिन घर लौटी, रात को पतली सी चादर ओढ़े सो रही थी, अम्मा को लगा मैं नींद में हूँ, वो फिर अपने कमरे में गयी फिर धीरे से मेरे कमरे में आई और मुझ पर मोटा सा कम्बल ओढ़ाकर जाने लगी, मैंने तुरंत हाथ पकड़ लिया, और रो पड़ी…. बस इतना कहा आज पोता दे दिया है, कल आपकी तीनों बेटियाँ भी लौटा दूंगी, मुझे अपने बच्चे की कसम है…

अम्मा ने अपने उसी अंदाज़ में डांट लगाई… खबरदार जो कभी बच्चे की कसम खाई…. सारी बातें एक तरफ है… कुछ भी हो जाए जीवन में कभी बच्चे की कसम मत खाना… वो चली गयी अपने कमरे में…

फिर आती, बच्चे को दूर से ही खिलाती, बच्चे को कमरे में ले जाते तो बाजू में उनके बिस्तर पर खेलता रहता… वो गोद में नहीं उठाती… चार पांच महीने का हो गया था… ज्योतिर्मय बहुत जल्दी जल्दी बड़े हो रहे थे… दादी को बहुत अच्छे से पहचान ने लगे थे…. एक दिन वो बैठी थी और वो उनकी पीठ पर चढ़ गया… वो दिन और फिर उनकी मृत्यु  के दिन तक ज्योतिर्मय फिर कभी उनकी गोद से नहीं उतरा….

इस बीच मैंने कब उनके कमरे की चौखट पार कर ली उन्हें भी पता नहीं चला…. लेकिन मैं देख रही थी, और गिन रही थी अपने एक एक कदम आगे बढ़ते हुए… सबसे पहले उनकी बड़ी बेटी आई घर में, फिर सबसे छोटी….

बीच वाली अब भी नहीं आती थी…. लेकिन हमारा रिश्ता अब सास बहू सा होने लगा था… फिर भी उन्होंने जीतेजी कभी मेरे हाथ का खाना स्वीकार नहीं किया.. ये बात अलग है कि मैंने चुपके से किसी और के हाथ का बताकर कई बार उनको खिलाया है और शायद ये बात वो समझ जाती थी फिर भी खा लेती थी बिना जाहिर किये कि वो जान गयी है…

उनके जीते जी उनकी कई आदतों से मुझे घिन्न होती थी… अपने पलंग के पास वो एक बोरी रखती थी… उनको अक्सर ज़ुकाम रहता था और वो बार बार पलंग से उतरकर बाथरूम तक न जाना पड़े इसलिए बोरी पर ही नाक साफ़ कर लेती थी.. मुझे दूर से आवाज़ सुनकर ही उबकाइयां आने लगती थी…

और फिर 15 फरवरी 2014 इसी अम्मा का शरीर जब मेरे सामने निर्जीव सा पड़ा था और मैं उस निर्जीव शरीर में दोबारा सांस फूंक सकूं ये सोचकर उनके मर चुके शरीर को कम से कम दस मिनट तक मुंह से मुंह लगाकर आर्टिफिशल ब्रीदिंग देती रही..

उन्हें ज़ुकाम तब भी था तो मृत शरीर में मेरे द्वारा फूंकी जा रही हवा उनके फेफड़ों में न जाकर उनकी नाक से बाहर आती रही और साथ में उनकी नाक से सारा बलगम निकलकर मेरे मुंह में…. लेकिन मुझे एक बार भी उबकाई नहीं आई…

क्योंकि मुझे होश कहाँ था मैं तो बस कोशिश कर रही थी कि कैसे भी करके उनकी साँसे लौट आए…. लेकिन बहुत देर हो चुकी थी …. उनकी साँसें नहीं लौटी …. लेकिन जब मैं अपने होशो हवास में लौट कर आई तो मैंने अपना मुंह साफ़ किया….

अम्मा की मृत्यु मेरे जीवन में परिवर्तन का सूचक था… कभी किसी व्यक्ति को उसके स्वभाव और आदतों के लिए घृणा मत करो…

अम्मा अपने साथ मेरे स्वभाव से नाराज़गी, नफ़रत और घिन्न, घृणा जैसे शब्द साथ ले गयी और मुझे और निर्मल कर गई…. और फिर उनकी मृत्यु के बाद उनकी बीच वाली बेटी भी घर आ गयी….

अब सब आते जाते हैं… सब ठीक हो गया समय के साथ… लेकिन अम्मा से मैं उनके जीतेजी उनके पहले बेटे (मृत) को नहीं मिलवा सकी… जो एक बेटी के रूप में जन्म ले चुका है.. मैं जानती हूँ वो कहाँ है…. एक दिन पड़ोस में सुहागलें जीमने मुझे बुलाया गया…  मैंने जीवन में कभी पूजा पाठ नहीं की, लेकिन उस दिन न जाने क्या हुआ… माँ की मूर्ति के सामने सर झुका रही थी और मन से एक प्रार्थना निकली… अम्मा, आपका पहला बेटा जिसने एक बेटी के रूप में जन्म लिया है… जिस दिन वो भी उस घर में आ जाएगी… आपका परिवार पूरा हो जाएगा… उस दिन मैं भी सुहागलें जिमवाऊंगी….

पिछले एक हफ्ते से उसके आगमन के संकेत मुझे कहीं न कहीं से मिल रहे थे… आज सुबह से लग रहा था… उसके आने का समय बहुत पास है… मैं पूरी कि पूरी प्रार्थना में बदल गयी…

अम्मा अपना परिवार पूरा करने का आशीर्वाद दो… आपके घर में मेरा आगमन आपका परिवार बिखेरने नहीं, परिवार पूरा करने के लिए हुआ है…

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और फिर एक दिन “वो” कहीं से पारिजात का पौधा ले आई आँगन में बोने के लिए और जगह ढूँढती रही कि कहीं अच्छी जगह उसे बो दे तो उसे धूप, पानी, हवा अच्छे से मिलती रहे और उस पर फूल लग सके… पारिजात के पौधे में बहुत सुन्दर छोटे छोटे सफ़ेद और केसरिया रंग के फूल लगते है. जो रात भर में खिर जाते हैं और सुबह पूरा आँगन खुशबू से महक उठता है… मैं चुपचाप सुनती रही और मुस्कुराती रही शायद उसे पता भी है या नहीं कि मेरे नाम का एक अर्थ पारिजात के फूल भी है और हरसिंगार भी…..

“वो” कौन? बताऊंगी फिर कभी…..

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