शायद दो सालों से गीता प्रेस सुर्खियों में आ रहा है. हड़ताल आदि की खबरें आती थी, बाद में पैसों की तंगी की अफवाहें उड़ाई जाने लगी. समय समय पर गीता प्रेस के व्यवस्थापन से मीडिया में विज्ञप्ति भी जारी होती है कि ये बस अफवाह है और कोई कमी नहीं है… इत्यादि.
मुझे इसमें एक बहुत ही गंदी साज़िश की बू आ रही है. देखिये संभावनाएं.
पहली संभावना यह है कि कुछ लोग, जिनका गीता प्रेस से संबंध नहीं, जनभावना का लाभ लेकर घपला करने की कोशिश कर रहे हों.
“गीता प्रेस बंद हो रहा है” की गुहार लगाकर फर्जी अकाउंट बनाकर पैसे ऐंठे हो किसी ने तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा.
हो सकता है यह एक वार्षिक घोटाला-घपला भी बना हो… महामारी जैसा समय समय पर प्रकट होता हो.
दूसरी संभावना और खतरनाक है. ‘भेड़िया आया रे’ वाली कहानी यहाँ लागू होगी.
गीता प्रेस वैसे भी शत्रुओं के रडार पर है. अगर हर साल या रह रह कर अफवाहें उड़ाते रहे तो लोग ध्यान देना बंद कर देंगे.
कहेंगे – कुछ नहीं भाई, अफवाह है, हर साल उठती है. प्रेस ठीक चल रहा है, कुछ नहीं होने वाला. अभी व्यवस्थापन से विज्ञप्ति आती ही होगी. अपने-अपने काम पर लग जाओ.
सब अपने-अपने काम पर लग जाएँगे. व्यस्त थे, व्यस्त हो जाएँगे. किसी को समय नहीं होगा, ना ही रस यह देखने का कि विज्ञप्ति आती भी है या नहीं.
क्या है ना, कहानियाँ तो एक बार बनती हैं, उनके पात्र समय के चलते बहुत बदलते हैं. अपनी चालें बदल लेते हैं.
इस कहानी का भेड़िया भी समय के साथ बदल गया है. कहानी का बच्चा तो लोगों के मजे लेना चाहता था और मारा भी गया भेड़िये के हाथों.
यहाँ भेड़िया दर्शन देता है, लोग दौड़े तो छुप जाता है, नजर नहीं आता. या खुद ही अफवाहें उड़ा रहा होता है ताकि लोग आयें और चिढ़कर खाली हाथ लौट जाएँ.
वो यही सोच रहा है कि लोग जो हैं, एक दिन आना बंद कर देंगे, जब वो आ कर बड़े इत्मिनान से शिकार कर खाएगा.
सुना है कि पुराने जमाने में, भेड़ियों का उपद्रव बढ़ता था तो तब के लोग खदेड़ कर मार देते थे, फिर किसी बड़े भेड़िये की पूंछ काटकर बाड़े के दरवाजे पर टाँगते थे.
फिर लंबे समय तक भेड़िए वहाँ का रुख करने से बचते थे. कई बार मुझे पुराने जमाने के लोगों की सोच पर आश्चर्य होता है, बड़ा सही सोचते थे वे लोग!