
एक बार मेरे यहाँ बाज़ार में इस्कॉन से जुड़ी कुछ विदेशी महिलायें शुद्ध भारतीय परिधान में भगवत गीता और कुंती के जीवन पर आधारित किताबों के साथ हिन्दू धर्म का गौरव ज्ञान बखान कर रहीं थी.
इसी बीच दो-तीन ननें जिन्हें देख कर ही पता चल रहा था कि ये कन्वर्ट हैं, वहां से गुजरीं.
तभी दो-तीन लोग उनके पास पहुँच गये और उनसे कहा, “वो देखो, विदेश के किसी ईसाई परिवार में जन्मी इन महिलाओं को, हमारे कान्हा के जीवन ने इन्हें इतना प्रभावित किया कि अपने तमाम सुखों और वैभवों को छोड़कर ये लोग इस छोटे शहर में कृष्ण चरित सुनाने के लिये आ गयीं और तुम लोग कितनी बदनसीब हो कि राम और कृष्ण के देश में जन्म लेने के बावजूद मध्य-पूर्व के किसी ईसा और युहन्ना के लिये अपना सब कुछ बदल लिया? जरा भी शर्म बाकी हो तो प्रायश्चित कर लो.”
आजतक चैनल पर माँ सीता और श्रीराम पर अंजुमन मिन्हाज ए रसूल के अध्यक्ष मौलाना सैयद अतहर देहलवी द्वारा किये गये भद्दे कमेंट के बाद मैंने वो किताबें खंगालनी शुरू की जिसमें इस महाद्वीप के बाहर के मुस्लिम विद्वानों ने प्रभु राम और श्रीकृष्ण के बारे में अपने विचार व्यक्त किये हैं.
अरब के एक काव्य संग्रह में (जिसमें अरब के कई मशहूर कवियों और शायरों की रचनाये संकलित है) ‘नकल मलकूलात हजरत मौला अली अलैहिस्सलाम’ शीर्षक से एक गजल है जिसमें 11 शेर हैं, उसमें दुनिया की हर मशहूर कौमों में गुजरे वलियों या अवतारों का जिक्र है. इसमें हमारे कान्हा का भी वर्णन आता है. वो शेर है-
‘अबुल हसन मयखवा नादानम बुलअशर अजमादेरम् पसमनमई नामेमन ई नस्तगुफतम् मरतो रा।
हिंदयानम् किशने खॉनंदगिरजे यानम् इतकिया, दर फरंगम शबते आओ दरखता बाबुलिया।।’
अर्थात् मुझे अबुल हसन कहतें हैं मेरा मादरी नाम रबअुलअशर है. इसलिये ये मैं ही हूँ और ये मेरा ही नाम है. इनमें से खासतौर पर तुम्हें बतलाता हूँ, हिंदू जिसे किशन (कृष्ण) कहते हैं, गिरिजा वाले उसे मुत्तकी कहते हैं, फिरंगी उसे शबतिया कहते हैं और खताला देश के लोग उसे बाबुलिया कहतें हैं.
छठी शताब्दी हिजरी में इस्लामी विद्वान व इतिहासकार दैलमी ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था ‘फिरदौसुल अंबिया‘. इस किताब में उन्होंने लिखा है ‘हिंदुस्तान में एक नबी हुआ जो सांवले रंग का था और जिसका नाम काहिन था’.
काहिन से मुराद कृष्ण है, जो सांवले रंग के थे.
एक और बुज़ुर्ग हुए जिनका नाम था हजरत मजहर जानेजाना साहब. इन्होने अपनी किताब में ‘दरबयान आनीने कुफ्फारे हिंद’ शीर्षक से लिखे एक आलेख में लिखा था, जानना चाहिये कि आयते-करीमा के हुकुम के रू से और ‘इम्मी उम्मातिन इल्ला खहा फीहा नजीर‘ और अन्य कई दूसरी आयतों की रू से हिंदुस्तान के मुल्क में कई अवतार प्रकट हो चुके हैं जिनमें प्रसंग उनकी अपनी पुस्तकों में दर्ज है.
मजहर जानेजाना साहब ने तो आगे ये लिखा है कि ये लोग (राम, कृष्ण) खुदा के वली, दोस्त या नबी थे.
रोचक बात ये भी है कि ये बुजुर्ग, राम और कृष्ण का नाम लेने के बाद उसके साथ सम्मानसूचक संबोधन ‘अलैहेसलाम’ लगाते थे.
भारत भूमि से बाहर जन्में इन विद्वानों ने राम और कृष्ण को नबी कहा है, इसकी वजह ये है कि अरब अवतार नहीं समझते पर जिसे वो सबसे अधिक एहतेराम के लायक समझते हैं, उसे नबी कहकर बुलाते हैं. राम और कृष्ण के लिये उन्होंने नबी शब्द प्रयुक्त कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित की है.
चैनल पर बदज़बानी करने वाले मौलाना सैयद अतहर देहलवी के नाम में भले सैयद लगा हो पर मेरा दावा है कि उनके पूर्वजों में छः-सात, आठ या दस पीढ़ी पहले कोई रामलाल ही रहा होगा.
इसलिये सवाल है कि ये कौन सी ज़ेहनियत है जो मज़हब तब्दील कर लेने के साथ ही अपने बाप-दादों और पूर्वजों का एहतेराम भी भूल जाती है?
मज़हब की तब्दीली ज़ेहन में ऐसी कौन सी तब्दीली कर देता है जो उसे उसके अपने पूर्वजों से ही घृणा करना सिखा देती है? मज़हब की तब्दीली राष्ट्रपुरुषों के अपमान का हक़ कैसे दे देती है?
हम मध्य-युगीन वहशी मानसिकता के नहीं है कि मौलाना सैयद अतहर देहलवी के सर काटने के फतवे जारी कर दें पर ये प्रश्न तो व्यथित करने वाला है ही कि ऐसी ज़ेहनियत अगर इतनी बड़ी तादाद में किसी मुल्क में हो तो फिर उस मुल्क का सर्वनाश होने से कौन और कैसे बचायेगा?