मैंने नहीँ उतारा रेनकोट
पार्टी का इकलौता था मैं
जिसकी दिखी नहीँ कोई खोट,
मैंने नहीं उतारा रेनकोट।
कोयले की कालिख में जब,
सारी कांग्रेस गयी डूब थी,
मौन व्रत के हथकंडे ने मेरी,
लाज बचाई खूब थी।
इस कोयले के कीचड़ से मुझे
बचानी थी अपनी लँगोट,
इसीलिए
मैंने नहीं उतारा रेनकोट।
2जी के घोटाले में तो,
मामला बहुत गंभीर था।
फिर भी मैं चुप था क्योंकि,
मैडम के पास गिरवी मेरा जमीर था।
मेरी यह चुप्पी बनी,
हरबार कांग्रेस की ओट।
मैंने नहीँ उतारा रेनकोट।
इतिहास से कुछ सीख ना पाया,
बार बार सिर्फ तलवे सहलाया।
उस निकम्में पप्पू के हाथों
अपना अध्यादेश भी फड़वाया।
रोक ना पाया मैं कभी किसी को,
जब खूब मची लूट खंसोट।
फिर भी मैंने नहीँ उतारा रेनकोट।
देस के दफ्तर में परदेसी नेता
इस आनंद का क्या जोड़ है?
कम्बल ओढ़ के घी पीने का,
अपना मजा ही कुछ और है।
एक दशक का सत्ता सुख,
वो भी बिन मांगे एक वोट।
सो, मैंने नहीँ उतारा रेनकोट।
– Amrendra Singh
(नोट : व्यंग्य को व्यंग्य की तरह पढ़ा जाए)
रेनकोट उतारनें क्या कठिनाई थी ? अन्दर कपडे तो पहने थे ना ? कपडे पहन कर कोई नहाता है क्या ?