जीवन के रंगमंच से : नारीवाद बनाम परम्परा

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मजबूरीवश एक किटी पार्टी नुमा समारोह में जाना हुआ… वहां एक महिला बड़ी खुश नजर आ रही थी… कारण पूछने पर पता चला… आज शादी के बाद पहली बार साड़ी की जगह सलवार सूट पहनकर आई है… उनके घरवालों ने शनिवार और रविवार को सूट पहनने की इजाज़त दे दी है….

मेरा मुंह तुरंत कुछ कहने के लिए खुला था तभी जिनके साथ मैं गई थी उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर इशारे से मना कर दिया….

मैं चुप रह गई… दो कारणों से एक तो वो इतने दिनों बाद साड़ी से दो दिन के लिए छुटकारा पाने की खुशी मना रही थी… दूसरा मैं उन तमाम नारीवादी महिलाओं के आगे इस एक औरत की सोच का प्रतिशत नहीं निकल सकी….

सोशल मीडिया में औरत की मौजूदगी उस औरत के जीवन से कोसों दूर है…. यहां तक पहुंचने में शायद उसे बहुत साल लग जाए….

फिर खयाल आया औरत के लिए जीवन केवल सोशल मीडिया में मौजूदगी और किसी उच्च पद पर आसीन हो जाना ही तो नहीं है… अपनी पहचान और महत्वाकांक्षा के लिए रिश्तों को लांघ जाना ही तो नहीं है….

यदि एक औरत के जीवन जीने का तरीका उसकी अपनी सोच और विचार की परिधि का विस्तार करता हुआ हो… उसमें भले फिर फेसबुक की आभासी दुनिया का दखल न हो, नारीवादी बयानों और राजनीति की दुनिया की उथल पुथल न हो.

उसका आत्मिक विकास उसका अपना निजी दायरा हो जहां किसी और के दखल या हस्तक्षेप की गुंजाइश न हो तो क्या बुरा है.

– माँ जीवन शैफाली

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