उत्तर प्रदेश में पहले चरण का चुनाव सर पर है. मुकाबला स्पष्ट रूप से भाजपा और सपा के बीच है. कहीं–कहीं पर बसपा भी लडाई में हैं. एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते, समझ-बूझ कर मतदान करना हम सबका परम कर्तव्य है.
पहले बात करते हैं सत्तारूढ़ दल, समाजवादी पार्टी के विषय में. हिन्दू समाज की तमाम समस्यायों में से एक प्रमुख समस्या याददाश्त का कमजोर होना भी है.
आइए पांच साल पहले लौटते हैं जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने थे. जिसके शपथ ग्रहण समरोह में ही अराजकता के तांडव का स्तर ये था कि कुर्सियां तक टूट गईं, उस मुख्यमंत्री से कानून–व्यवस्था की अपेक्षा करना बेमानी है. पर लोकतंत्र में एक बार सरकार चुन लेने पर उसे पांच साल तक ढोने की मज़बूरी होती है… इसलिए प्रदेश को मजबूरन इसे ढोना पड़ा.
सरकार बने हुए अभी चार महीने भी नहीं हुए थे कि लखनऊ में शांति–दूतों की भीड़ ने जबरदस्त उपद्रव मचाया, महिलाओं के कपड़े तक फाड़ डाले गए. एक साल भी नहीं बीता था कि प्रदेश के कई नगरों में दुर्गा पूजा पर जबरदस्त दंगे हुए, पुलिस का रवैया इतना पक्षपात पूर्ण था कि औरंगजेब की यादें ताजा हो गयीं.
इनकी कारगुजारी से यादव समुदाय के ही तमाम लोग इतने आहत थे कि वो अखिलेश के यादव होने से ही इन्कार करने लगे. कई तो यहाँ तक कहने लगे कि, “ये किसी अन्य सम्प्रदाय का है… कोई यादव ऐसा कर ही नहीं सकता.”
यह कहानी किसी एक जनपद की नहीं बल्कि पूरे प्रदेश की है. मंदिरों से लाउडस्पीकर उतरवाए गए, बड़े–बड़े हज हाउस का निर्माण हुआ. खुली छूट देकर लव–जिहाद संचालन का अड्डा बना दिया गया. मेरठ, बरेली, सहारनपुर की घटनाएँ याद हैं न…
और तो और, अराजकता का आलम ये था कि सरेआम बच्चियों को आम के पेड़ पर फांसी से लटका दिया गया, माने सीरिया का नजारा उत्तर प्रदेश में दिखने लगा. नोएडा में निर्वस्त्र करके दलित महिला–पुरुष की पिटाई का मामला याद है न…
कुम्भ की व्यवस्था का दायित्व आज़म खान को सौंप कर कुंभ में जबरदस्त अव्यवस्था फैलाई गई… दुर्गा नागपाल जैसी ईमानदार अधिकारी को सिर्फ इस लिए बर्खास्त कर दिया गया कि वह गैर–क़ानूनी मस्जिद निर्माण पर रोक लगा रहीं थीं.
इनके काले कारनामे जितना लिखा जाए, उतना कम हैं… संक्षेप में अखिलेश यादव की पांच साल की उपलब्धि ये है कि इन्होंने कैराना और कांधला को हिन्दू विहीन कर दिया.
कुछ हिन्दू, जातिवाद के मद में चूर अपनी जाति के प्रत्याशी को देखकर यह भूल जाते हैं कि हमारी व्यवस्था में विधायक की औकात महज पार्टी हाई–कमान के नौकर जितनी है.
आप के क्षेत्र से खड़ा समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी भले ही आप की जाति का हो या बहुत सज्जन (जो कि अपवाद है) हो पर उसकी औकात सैफई खानदान के नौकर से भी बदतर है… मौका पड़ने पर उसे अखिलेश का आदेश मानने पर विवश होना पड़ेगा.
इतना सब होने के बाद भी यदि कोई हिन्दू दुबारा समाजवादी पार्टी को वोट देने की सोच रहा है तो मान लेना चाहिए उसे अपने परिवार की महिलाओं की, समाज, धर्म, और राष्ट्र की कोई परवाह नहीं है.
मायावती का सदा से ही एक सूत्रीय एजेंडा रहा है, किसी भी प्रकार सत्ता प्राप्त करना. अभी कुछ दिन पहले जिस प्रकार इनके सिपहसालार मियां नसीमुद्दीन चिल्ला–चिल्ला कर बहू–बेटियों को पेश करने की बात कर रहे थे, उससे इस पार्टी का चरित्र स्पष्ट दिखता है.
इस प्रकार, अब उत्तर प्रदेश में हिन्दू के लिए एक मात्र विकल्प बचता है, भाजपा! व्यक्तिगत रूप से इनकी तमाम नीतिओं से असंतुष्ट हूँ, पर इतना जानता हूँ कि भाजपा शासन में किसी के साथ हिन्दू होने के कारण अन्याय नहीं होगा.
लव–जिहाद का खुला खेल नहीं चलेगा. शांतिदूतों का नाम सुनकर पुलिस आप से मुँह नहीं फेर लेगी. भटके हुए नौजवानों को बलात्कार करने की छूट नहीं मिलेगी.
सरेआम गौ हत्या करके किसी अख़लाक़ को दो करोड़ का इनाम नहीं दिया जाएगा. मंदिर निर्माण में भले विलम्ब हो, पर किसी मंदिर का लाउडस्पीकर नहीं उतरवाया जाएगा. हाइवे पर भटके हुए लड़कों को बलात्कार करने की छूट तो नहीं मिलेगी…
हो सकता है भाजपा, कैराना में हिन्दुओं को दुबारा न बसा पाए पर कम से कम किसी और इलाके को कैराना तो नहीं बनाएगी.
इसलिए हर हिन्दू के लिए, उत्तर प्रदेश में फिलहाल एक मात्र विकल्प है भाजपा का चुनाव चिह्न “कमल”…