शिक्षा, लेखन व संचार
बनारस में रहता था. समय ही समय था. हुआ ये कि बड़का “साहितकार’ और खेमे के ‘मठ’ दद्दू जी (असली नाम नहीं) के घर इस आशा में जाता था कि शायद कुछ पढने-मगने के लिए कुछ मिल जाये… सुना था नम्बर-वंबर भी ये ही डिसाइड करते थे, सो लालच.
उनका नाम दरशन से एक-बटा सात सौ छियासी था.
खैर… हिंदी ‘साहित के पुरोधा’ का बनारस के ‘सेंट जॉन’ में दसवीं में पढने वाला नाती खड़ा था. दद्दू जी अपनी नई-नई आई एक किताब का कलेवर निहार रहे थे… कई पड़ी थीं.
नाती ने भी एक उठा ली. वह उलट-उलट देख रहा था… बोला… ‘दद्दू, कौन बेवक़ूफ़ ये पढ़ता होगा? इसका कोई अर्थ ही नहीं निकलता! एक बार मैंने अपने दोस्तों को बांटनी चाही तो मेरे दोस्त लोग कहते है कि ‘तुम्हारे दद्दू से अच्छा वेद प्रकाश शर्मा है कम से कम प्लेटफ़ार्म पर बिकता तो है.’
अब उन कालजयी रचनाकार का चेहरा देखने ही लायक!!! बात आई-गई हो गयी.
हमने भी उनका बुढापा खराब नहीं किया कि घर ही में कम्युनिज्म का पलीता निकल गया. लेकिन जान लीजिये –
वे जबरा मठ थे… ”भिषभिद्यालय का भिभाग” (करेक्शन न लगाएं… उन दिनो बनारस में ऐसे ही बोला जाता था) तो छोड़ दीजिये देश भर का ‘छिक्क्षा’ कंटउर (कंट्रोल) में रहा.
57 टाइटिल (कूड़ेदान गौरव) पब्लिश हो चुके हैं. खुद ने शायद ही एकाध बार देखे हों. रिकॉर्ड है इस समस्त जगत ने धोखे से भी नहीं पढ़ा होगा. अगर इम्तिहान न देना हो या कहीं भाषण, इंप्रेशन न मारना हो तो.
एक बार मेरे एक दोस्त ने पढने की कोशिश की… मरते-मरते बचा…!
बाद में ‘दुनिया की रक्षा के संकल्प’ के साथ उसने इनके (पूर्व भिभागाध्यक्ष के) लिए सुपाड़ी भी देनी चाही.
कहता था… ‘साला जीवित रहा तो और कूड़ा लिखेगा… कोर्स में रखवाएगा. सब मेरी तरह मरते-मरते बचेंगे. जाने कितने मर भी गये होंगे. इस लिए लोकहित होगा, इसका मरना.’
बड़ी मुश्किल से उसका फितूर छूटा था.
लेकिन कौनो नया ‘फीएचडी’ भी इन हीं के ‘साहित’ पर होना ‘नेससरी.’
धीरे-धीरे चेले के चेले के चेले भी देश के तमाम ‘भिनभरस्टियों’ पर खाबिज!
ऊ बात दर-असल ई थी कि इनके छपरकनाती के एक रिश्तेदार सोवियत हुइ आये थे… खान्ग्रेसन में वैचारिक टोटा रहा… देश-भेष का चिन्तन दूनो तरफ छपे गांधी जी से आगे ही न गया तो… वामी-सामी-झामी-कामी चिन्तन ने मिलकर ‘पखानावाद’ तैयार किया… बिलकुल ‘ट्रिपल मिक्सचर’! जो इहै गुरु जी लोग पूरत-चापत रहे… संडास लिखि-लिखि!
कौनो तीस किताब… कौनो 48 तो कौनो 89 किताब… सब फ्रस्ट्रेटड… दुखियारी… रुदाली… अवसादी…
नकारात्मक कूड़ा, जो कभी पढ़ने लायक न समझा गया… न घरे न बाहरे. फटे अखबारी रद्दी पर जिल्द चढ़ी जैसी.
बहुत बाद में मैं समझा उस साल मेरा दोस्त सही था, उसे सुपाड़ी दे देनी चाहिए थी.……
दद्दू बर्बाद करके मानें… दद्दू के चेले के चेले के चेले गद्दी पर काबिज हैं. रद्दी लिख-पढ़… कबाड़ लिख-लिख…
देश भर के ‘भिनभर्सिटियों’ में पता कर लीजिये…. वॉल्यूम पर वॉल्यूम केवल इंटरव्यू में ‘भेटेज’ के लिए नकलाये जाते रहे हैं.
अगल-बगल के कई कबाड़ी उहइ बेच-बेच अमीर हुइ गए. मोदिया अकेले का कर लेगा? यह कूड़ा साफ़ करने आगे आओ दोस्तों. यह सबसे खतरनाक हथियार है. जेहन पर वार करने का हथियार.
कंग्रेसियन को लगा कि ‘गन्हिया अर्थनीति’ स्वदेशी-फ्वदेशी करके मौजा-मौजा न करने देगी. नेहरू जी अउर के! तो ‘छिकछा’ में कबाड़ गुरु को बैठा दिए गये.
पहले शिक्षा-मंत्री ‘नुरुल-हसन’ ने बड़ी चतुराई से भारतीय शिक्षा को सनातन चेतना के खिलाफ एक खतरनाक वैपन की तरह इस्तेमाल किया.
शिक्षा जगत में किया गया यह हस्तक्षेप सबसे नए और खतरनाक हथियार के रूप में सामने आया. बड़े सजग तरीके से उन्होने जेहन का शिकार करने का मसौदा तैयार किया.
इन सत्तर सालों में हजारों ‘कबाड़ गुरु’ राष्ट्र की चेतना नष्ट करने में लग गए. प्रो-इस्लामिक वाम तंत्र पढाने में लगा दिए गये. भीष्म साहनी का ‘तमस’ पढ़ाया जाता है. कभी ‘ग’ से गणेश की जगह ‘ग’ से गधा हो जाता है.
कभी समय हो तो सीबीएससी पाठ्यक्रम को ध्यान से चेक करें. स्मृति ईरानी का लोकसभा में दिया भाषण तो याद है न! सभी राज्यो ने कमोबेश यही किया है. क्लास-6-7-8 में चलने वाली किताब ‘हमारे पूर्वज’ 25 साल पहले ही बन्द कर दी गई. घुसपैठिये वामियों का खेल चालू आहे.
आप प्राथमिक किताबों से लिस्टिंग करना शुरू करिए. आप खुद देखिये, बच्चे के दिमाग में क्या भरा जा रहा है. बाप-दादों के प्रति वितृष्णा. खुद के संस्कृति और राष्ट्र के प्रति हीन भावना और अपने पूर्वजों की आध्यात्मिक उपलब्धियों के प्रति घनघोर उपेक्षा और पिछड़ेपन का भाव वहाँ दिखेगा.
जब आप दुनिया के अन्य विकसित देशों के पाठ्यक्रमों से तुलना करने बैठते हैं तो मक्कारी और साफ-साफ दिखने लगती है. प्राइमरी से लेकर परास्नातक तक, भारतीयता, संस्कृति, चेतना, पूर्वज, संस्कारों से नफरत ही नफरत…
जाने कहाँ से ऐसे उपन्यास, कहानियां, कवितायें, आलोचनाएं उठा लाते हैं जो केवल खुद के प्रति हीन भावना से भर दे. लेकिन एग्जाम पास करने की मजबूरी के चलते उसे पढ़ना जरूरी होता हैं. कार्यकर्ता टाइप या फिर परीक्षा के लिए कोर्स.
हालांकि वह बू उन किताबों से आती रहती. उस समय भी अच्छी तरह पता होता था कि यह क्या हो रहा है… इस गन्दगी को हाथ नहीं लगाना.
उसी बहाने उसमें ‘भाई लोग’ जरुर घुस गये… साहितकार… कोलाकार… चित्रोकार… जब इगनोर हो गये… कोई उधर मुंह करके…
मैंने उन सब को देखा है. मोहन राकेश सही. वात्सायन अज्ञेय से लेकर राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी तक को और बाद के. कमलेश्वर, गिरिराज किशोर आदि-आदि. मैं यहां जान-बूझकर सभी-नाम और उनकी रचनाएं नहीं लिख रहा.
जब कभी समय हो तो बाहरी लेखकों स्पेशली कोयलो पाउलो के साथ कम्पैरीटिव मूड में उनको देखें-पढ़ें…. तो उनकी अनुभवहीनता, मानसिकता, समझ, आध्यात्मिक उथलापन, और संस्कृति, सनातन के प्रति नफरत झलकने लगता है.
उनकी हीन-भावना आपको भी उन्हीं की दिमागी स्थिति में लाकर खड़ी कर देती है. आप में एक टेस्ट डेवलप होने लगता हैं. शिकार होने लगते हैं उनके ‘लेखन के हथियार का’ जिसकी जड़ें, अरब, रूस और चीन में गड़ी हुई हैं. छायावादी काल के बाद आधुनिकता के नाम पर यह ‘लेखक-तंत्र’ भारत को कब्जे में लेता गया.
वे अपने आपको ‘इमेज’ देने में बड़े निपुण हैं. उन्होंने अपने-आपको एक नया नाम दे दिया – साहित्यिक लेखन… ”इलीट” नाम, थोड़ा ऊंचा, थोड़ा डिफरेंट… श्रेष्ठ है. ‘हम वह लिखते हैं-बोलते हैं जिसे हम ही समझ बोल सकते हैं.
ऑटो बायोग्राफी आफ योगी, महात्मा गांधी, विवेकानंद, तुलसीदास, कालीदास, सूर, कबीर, मीरा, एरोस्मिथ, अल्वा एडिसन, ग्राहम बेल, पाउलो-कोयलो, अल्बैर कामू से ज्यादा बड़े रचनाकार बनने लगे. खुद तो दक्खिन लगे और भाषाओं को भी लगा दिये चोगध.
वे अपनी सड़ी-गली बोर किताबें कला-फिल्मों के नाम पर सिस्टम को दोषी-बुराइयों से भरा ‘जनवादी कूड़ा’… दिमाग़ खाऊ… नीरस, उबाऊ, अप्राकृतिक विचार तीन घंटा झेलवाते है. सिवाय कुछ भड़ासियो के किसी को न जंचती…
किंतु उसे देखने कुछ दिमागी बीमारी से पीड़ित पशु ही जाते थे… अपनी जीविका के चक्कर में… नौकरी-शौकरी-हौकरी… राष्ट्र से जुडी हर चीज को ये क्षति पहुंचाते हैं, धार्मिक प्रतीकों, परम्पराओं पर निशाना रखते हैं.
साहित्य को इन्होंने अपनी मुर्गी बना दिया. आज हिंदी साहित्य में सिर्फ लेखक हैं, पाठक नहीं. कविता, कहानी, उपन्यास सब शोषण और जनसरोकार में बदल कर नष्ट कर दिए.
इस देश को इन लोगों ने बड़ा नुकसान पहुँचाया है. साथ ही पत्रकारिता को भी.
मैं तो 60 से लेकर बनने वाली कूड़ा-करकट कभी न झेल पाया… जो इनके लेखकों और फ़िल्मकारों ने ज़बरदस्ती समाज पर थोपी.
मैं ही क्यों… रूस और चीन में भी अगर ज़बरदस्ती न दिखवाया-पढ़वाया जाता, तो लोग भी उधर मुँह करके मू@# भी न!!
किसी भी नये बच्चे को, जो स्वस्थ दिमाग का हो, एक बार दिखाने की कोशिश करके देख लीजिए!
वैसे भी, आज, अगर पुराने साहित्यकारों को छोड़ दिया जाए तो इनका कूड़ा कौन पढ़ता है?
स्टाल पर कभी दिखा? कोई उसे खरीदता है?
पांचवे दशक के बाद कोई ऐसी खास रचना नहीं हुई कि जन साधारण खरीद कर पढे. जबकि जेके रोलिंग की हैरी पॉटर (अनूदित किताबें) पढ़ने वाले घरो में मिल जाएंगी.
संस्कृत लेखकों से लेकर बंगला, मराठी, तमिल, गुजराती, राजस्थानी, उड़िया आदि-आदि से मन भर जाय तो, टॉलस्टॉय, दिदेरो, अपटन सिंक्लेयर, प्लेखानेव, लुइस सिंक्लेयर, स्तान्धाल, फेदव, फेदीन से लेकर बाल्जाक और गोर्की- दास्तेवोस्की, जैक लंडन तक… अल्बेर कामू… पाउलो-कोयलो… उसी समय अमेरिकन नॉवेल लुडलूम, आर्थर सी क्लार्क… किम स्टेनले रॉबिंसन… एन डिश… अर्लस्टेयर रेंनाल्डस, जाफ रीमैन, जूर्ल्स बर्न्स… रुइकर… होल्डस्टाक… होगन, वर्जीनिया वुल्फ से शुरू होकर वाल्टर स्काट… थॉमस मूर… चार्ल्स डिकेन्स… वाशन… वाल्टन… जेन आस्टिन… लॉरेंस स्टेन… हेनरी जेम्स… मोटे-मोटे उपन्यास अनूदित रूप में आप चटखारे ले-लेकर पढ़ेंगे… विशेषकर साइंस फिक्शन.
पुराने जमाने के प्रेमचंद, परसाई, सुदर्शन, शिवानी से लेकर देवकीनन्दन खत्री तक… कुछ न मिलता तो सूर-कबीर तुलसी गा लेंगे पर इन 70 सालों में लिखा कूड़ा कभी न पचा पाएंगे. दूर से देखते ही महकने लगता है कि रद्दी है… कि यह दिमाग बदलने के हथियार है. 70 साल पहले हिन्दी के उपन्यासकारों की रचनाएं 80 भाषाओं में ट्रांसलेट होती थीं. लोग-बाग अच्छा पढ़ने के लिए हिन्दी सीखते थे.
विश्वविद्यालयों में हुआ यह एकाधिकारपना ही भाषाओं के अध:पतन का मुख्य कारण और जिम्मेदार है. मूल-सनातन प्रवाह से जु्डी प्रतिभाओं को आगे ही नहीं आने दिया जाता. हिन्दू-हतोत्साहन प्रोजेक्ट बतौर एक शस्त्र इस्तेमाल होता है.
वे कोशिश करते है कि उसे जातिवार विभाजित कर सकें. इसमें ‘बांटो और राज करो’ की नीति छुपी है. दलित साहित्य, अमीर साहित्य, ब्राह्मण साहित्य, जन साहित्य, देशवादी साहित्य… इन्हे किसने जना है?
केवल एजेंडा समझिए. दुनिया के ‘बड़े पुरस्कारों’ में इनकी रचनाए देखी हैं? उनकी रचनाओ पर फिल्म वगैरह?
देश भर कि यूनिवर्सीटियों के विभागों पर काबिज चर-खा रहे 30 हजार से अधिक लोग क्या करते है? जो तरह-तरह के पंडे-पंडाइन हैं, वे क्या करते हैं?
कुछ स्वयंभू-स्वघोषित मिल जाएंगे…पर शर्त लगाता हूँ कि अगर बहुत ही जरूरी दबाव न हो तो इधर हिन्दी के किसी रचनाकार के आप खुशी-खुशी पचास पेज न झेल पाएंगे.
उन सबने पांचवे दशक से ही पूरे देश के साहित्य-जगत में घुसपैठ की और कब्ज़ेदारी कर ली. सभी शिक्षा-संस्थान पकड़ लिए. धीरे-धीरे कब्जा हो गया.
समाज में नकारात्मक चित्रण से गहन असफलतावादी निराशा साहित्य लिख-लिख गहरी उदासी भर दी.
एक पूरी पीढ़ी… बिना जीवन जाने ही निरुत्साह से भर कर बर्बाद हो गई. खोपड़े का जहर आपको कुछ करने नहीं देता…
उन्होने शिक्षा में मठपति वाली भूमिका पकड़ ली… आने वाली पीढ़ियाँ… नौकर और नौकरी की मानसिकता से भर दिए… इतिहास बदल कर…
पाठ्यक्रमों को अपने अनुसार कर दिया. महज विष-रोपण के लिए… अपनी गलीज – अप्राकृतिक विचारधारा के लिए उन्होने… राष्ट्र का आधार हिला कर कमजोर करने का काम किया. स्वाभिमान के बिंदु हिला दिए. अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान और ललक कम करने की भरपूर कोशिश की.
उन्होंने प्रेस-अख़बार-चैनल माध्यमों (मीडिया) में कार्यकर्ताओं को लगाकर कब्जा कर लिया. यह कब्जा देश की सभी भाषाओं में लगातार जारी है. पहचानना कठिन नहीं है. देश के हर हिस्से में पहचाने जा जा सकते हैं.
समस्या यह है कि यह स्थिति भाषाओं को कमजोर करती जा रही है. उन्होने एनजीओ बना कर खरबों-खरब के वारे न्यारे किये. दूसरी तरफ उनके चेले-चपाडों ने सिनेमा-टेलीविज़न व अन्य संचार माध्यमों में घुस कर पूरे देश-समाज पर अपनी सड़ान्ध को इंपोज़ करना चाहा.
वह उद्देश्य एक ही है, लेखन-कम्यूनिकेशन के सहारे भड़ास भर के, वर्ग-संघर्ष करवा कर देश को कमजोर करना. यह हथियार बन चुका है… आपको इसे समझना होगा. उनका लेखन, संवाद, एजेंडा, सोच, और तरीका पकड़ने की कोशिश करिए… दिखने लगेगा.
वो तो कहो ‘न्यूज़’ एक उत्पाद हो गया… उसकी परिभाषा तय हो गयी… वह घटना जिसका सम्बन्ध और रूचि अधिकतम लोगों से हो… और बाजार-विज्ञापनों से नियंत्रित होने लगा. नहीं तो शायद भारत में सदियो से बह रही सकारात्मकता की सतत-धारा लगभग नष्ट हो चुकी थी.
भाई लोगो की दाल यहाँ सीधी तौर से न गली. वे बन गये दलाल… विचार-धारा गई तेल लेने.
खबरों ने ज़रूर समय-समय पर कनफ्यूज़ करने में सफलता पाई. उन्होने गंदे, बिना नहाए, दाढ़ी बढ़ाए, गंधाई देह पर जींस-कुर्ते को ‘बौद्धिक फैशन’ बनाने में एकबारगी सफलता जरुर पाई.
परन्तु नशे में डूबी गांजे-चरस-सिगरेट और चारित्र्य-पतन की बदबू इतनी तेज थी, कि वह कभी जन-फैशन नहीं बन पाया. बल्कि लोग-बाग़ अपने बाल-बच्चों-बहू-बेटियों को दूर रहने की ताकीद करने लगे – “बच के रहना बचवा, पैर छुवाया तो किरकिची बान्धे आकर हाथ जरुर धुलना, तभी किरकची खोलना!”
नक्सलिययों (अपराधियों) को भी नायक बनाने का खेल खेला गया परंतु लूट पर ग़रीबों की हाय लग गई! न गाँव के रहे न शहर के, ’बनावटी क्रांति, केवल आपराधिक साजिशों के रूप में पहचानी जाने लगी. हां, कुछ कांग्रेसियों के ड्राइंग रूम में ‘सजावटी क्रान्ति’ एनजीओ रूप में जरुर सजने लगी!
वो तो खैर कहो! ईश्वरीय कृपा की वजह से व्यावसायिक-मसाला सिनेमा का दौर आ गया, नहीं तो ‘प्रो-इस्लामी कम्युनिस्ट एप्रोच’ के चलते मुम्बईया सिनेमा भी सोवियत सिनेमा के हश्र का शिकार हो जाता.
उन निदेशकों ने भी सिस्टम को लेकर जो फ़िल्में बनाईं वह केवल बुराई बनकर रह गई, कभी निराकरण लेकर न आई. अगर ब्ल्यू-प्रिंट दिया भी तो केवल बुराई-बुराई-बुराई और वही कूड़ा-‘कम्युनिस्ट’ सोच. व्यवस्था पर फिल्में बनाने के लिए किसी ने कभी कोई प्रयास क्यों नहीं किया, यह विचारणीय प्रश्न है. बाकी फिल्मी मसाला डाले बगैर कौन देखने वाला मिलेगा… न कभी मिलता था?
आप ध्यान देंगे तो दिखेगा, इधर के सत्तर सालों में पूरे देश की सभी भाषाओं में एक विशिष्ट बात पकड़ में आएगी. जितने भी बड़े-प्रकाशक हैं, वह या तो कम्युनिस्ट रहे हैं या तो कम्युनिस्ट हैं. पब्लिशर्स की लिस्ट खुद बनाइये, मजा आएगा.
शुरुआती दौर में ही इस फील्ड पर उन्होंने कब्जा सा कर लिया. इस मामले में उनकी प्लानिंग बेजोड़ दिखती है. देश के सारे बड़े प्रकाशक जो किताबे छापते हैं उपन्यास, कविताएं, गद्य-पद्य साहित्य छापते हैं, जिन्होंने विभिन्न भाषाओं से अनुवाद प्रकाशित किये हैं. वह अधिकतर कम्युनिस्ट या प्रो-इस्लामिक लिटरेचर है. जेहन का शिकार तो देखिये. वे किसी रास्ते वास्तविक प्रतिभा को न बढ़ने देने की प्रतिज्ञा के साथ खड़े हैं.
वे छात्र को कोई विकल्प ही नहीं उपलब्ध होने देना चाहते. कहो तो दूसरी भाषाएँ विशेषकर अगर इंग्लिश नहीं रही होती तो…. चाइना या पाक या अरब!
अंग्रेजी की वजह से भारतीय पाठक जार्ज ऑरवेल, हक्सले, ड्यून, हेलर, टाकिन जैसो को पढ़ सके. जब हमने मारगेट मिशेल की ‘गॉन विथ द विंड’ पढ़ी… तो खोपड़ा घूम गया.
उनके चेले ‘हिंदी पत्रकारिता’ को एक नए आयाम पर ले जा रहे हैं. जिन लोगों की कब्जेदारी, मठाधीशी है, वे वामी-‘चेतना के अनुवाद’ को ही पत्रकारिता कहते है. यह सबके लिए नई चीज है.
वे हिंदी को खत्म करके ‘प्रो-उर्दू’ में बदल रहे हैं. अंग्रेजी का बढ़ा प्रभाव अपनी जगह है. बोलचाल में भी वे उर्दू शब्दों को घुसाते हैं, एक्सेप्ट करवाते हैं और कहते हैं कि यही सहज यानी कम्युनिकेटिव लगता है.
5 साल के प्रयोग के बाद वह सरल लगने भी लगता है. हम जब आये थे तब की अखबारी-दुनिया हिंदी भाषा के कुल ‘6 हजार शब्द’ इस्तेमाल कर रही थी. आज कुल 3600 ‘शब्द’ (शब्द कह रहा हूं जिसे वह ‘लफ्ज’ में बदलने को आतुर हैं) ही बचे हैं.
उर्दू के 2 हजार नए घुसपैठिये हमारी भाषा में घुसा दिए गए. अब वही आसान लगती है. अंग्रेजी और अन्य भाषाओं से कुल 400 नए शब्द घुस पाए हैं. इन 20 सालो में यह बड़े सुनियोजित ढंग हो रहा है.
भाषा विज्ञान का मान्य थ्योरी-सिद्धांत आज भी वही है. जरा फैक्ट देखिये!
‘दो साल तक रोजमर्रा (यह शब्द आसान लगने लगा) लगातार इस्तेमाल वाली अप्राकृतिक (नैसर्गिक घुस गया) चीज भी धीरे-धीरे आसान और अपनी लगती है. जो चींजे उपयोग से बाहर होती हैं वे कठिन-क्लिष्ट-दुरूह लगने लगती है.’
वे धीरे-धीरे हमारी शब्दावलियों को चलन से बाहर करके क्लिष्ट और दुरूह में बदल रहे हैं. अपने शब्दों को घुसाकर सरल और सहज बना रहे है. ‘अवचेतन थ्योरी’… अनजाने में हमारे लोग भी नकल ही मारते हैं.
तो नित्य उपयोग होने वाला अखबार, हर घण्टे यूज़ होने वाले चैनल… हफ्ते में कई बार देखा जाने वॉला सिनेमा… प्रतिक्षण बजने वाले गाने, सब के सब वैपन में बदल गए हैं. सब तरफ से घेर कर हमारी ‘भाषा’ को धीरे-धीरे मार रहे हैं.
केवल हिंदी ही नहीं भारत की सभी भाषाओं में यह घुसपैठ चालू है. हमें पता ही नहीं चलता. सूचना क्रांति के ‘कम्युनकेशन’ के यह माध्यम सबसे ‘खतरनाक हथियार’ बन चुके हैं. उनका सबसे क्रूर इस्तेमाल वामी-सामी-कमी कर रहे हैं.
आपके दिमाग पर हर तरफ से अपनी बातें घुसेड़ देने को तत्पर हैं. आपके जीवन का एक महत्वपूर्ण बिंदु बनता चला जाता है, यह भारतीय साहित्यकारों का हमला करने का एक तरीका है.
त्याग, निर्माण, विकास, गहरी सकारात्मकता से उपजता है. भक्ति उसका आधार है. केवल बुराई द्वंद-संघर्ष-निन्दा-रस के सहारे आप सनातन समाज की नीव नहीं हिला सकते. उसका आधार बहुत गहरा है.
भारतीय समाज टनों वार्ता को एक बूँद त्याग के आगे कुछ नहीं मानता.
लड़के-पाठक “एरोस्मिथ” खोज ही लेते है. रिचर्ड कवि की “सेवन हैबिटस’ और श्वार्ट्ज की ‘पावर आफ पॉजिटिव थिंकिंग’… उनको जिग जिगलर, स्तान्धाल और जैक लंडन मिल ही जाता है. तुम्हारी नकारात्मकता और द्वन्द-संघर्ष व कूड़ा तुम ही खाओ और बीमार होओ.
धीरे-धीरे हमने छिपे हथियार पहचानने शुरू कर दिये हैं.
इनकी समस्या ये थी कि दूसरों के श्रम, मेहनत, सम्पत्ति को बांटने की बात करने वाले खुद की पाई भी बांटने को तैयार न दीखते. त्याग का उदाहरण ढूंढे न मिले… किसी भी नकारात्मक विचार में त्याग कहाँ से आएगा.
साहित्य लेखन के सहारे वे घुस तो गये. नौकरी-सौकरी टाइप की कोई चीज जरूर मिल गई. पर समष्टि जगत की चिंतन-धारा से जुड़े बगैर, जाने-बगैर कुछ नहीं मिलने वाला था. इसलिए हथियार भोथरा हो गया.
परंतु सबसे बड़ा खतरा यह है कि राष्ट्र के चार तत्वों – जन, भूमि, संस्कृति, भाषा में से एक भाषा पर उनका एकाधिकार हो गया है. यह ऐसा है जैसे कि हमारे ”परमाण्विक वैपन” पर शत्रु का कब्जा हो जाना. उस शस्त्र से वे लगातार राष्ट्रीय छवि को कमजोर करने का प्रयत्न करते हैं.
क्रमश: 8