आर्यसमाज, गांधी, गोडसे और हिंसा

Arya-Samaj-Nathuram-Godse-Gandhi-making-india

लेखिका : डॉ. कविता वाचक्नवी
(लन्दन में भारतीय उच्चायोग द्वारा हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ योगदान हेतु हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान एवं पुरस्कार (2014) व आचार्य महावीर प्रसाद पत्रकारिता सम्मान -2012 से अलंकृत)

1. एक व्यक्ति महर्षि दयानन्द को जहर देता है और महर्षि उसे लेशमात्र भी दण्डित करने की भावना के बिना मृत्युशय्या पर अन्तिम साँसें ले निर्वाण प्राप्त करते हैं. आर्यसमाज के इतिहास में किसी ने उस व्यक्ति से बदले की भावना से प्रेरित हो, उसके विरुद्ध साम-दाम-दण्ड-भेद आदि कुछ भी अपनाकर घृणा का विस्तार और वमन नहीं किया, न उसे दण्डित किया.

2. एक व्यक्ति पण्डित लेखराम की हत्या कर देता है और आर्यसमाज के इतिहास में किसी ने उस व्यक्ति से बदले की भावना से प्रेरित हो, उसके विरुद्ध साम-दाम-दण्ड-भेद आदि कुछ भी अपना कर घृणा का विस्तार नहीं किया, न उसे कोई दण्ड दिया.

3. अपनी ‘महात्मा’ की उपाधि गाँधी को देने वाले स्वामी श्रद्धानन्द अपने शुद्धिकरण अभियान में एक युवती (अभिनेत्री तबस्सुम की माँ) द्वारा शुद्धिकरण के आग्रह पर उसकी शुद्धि करते हैं और प्रतिक्रिया के उबाल से त्रस्त हो गाँधी स्वामीजी के अभियान के विरोध में बयान देते हैं और फिर एक व्यक्ति स्वामीजी की हत्या कर देता है.

आर्यसमाज के इतिहास में किसी ने उस व्यक्ति से बदले की भावना से प्रेरित हो, उसके विरुद्ध साम-दाम-दण्ड-भेद आदि कुछ भी अपना कर घृणा का विस्तार नहीं किया, न उसे कोई दण्ड दिया. पुलिस केस से बचाने की भावना से गाँधी उस हत्यारे को ‘मेरा भाई’ कहते हैं और उसे निर्दोष कह कर माफ करने की सार्वजनिक अपील निकालते/करते हैं.

4. 1920 में ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ और ‘बीसवीं सदी का महर्षि’ नाम से कृष्ण और महर्षि दयानन्द पर कीचड़ पोतने के लिए लिखी गई दो पुस्तकों के उत्तर में लिखी गई पुस्तक ‘रंगीला रसूल’ (लेखक पंडित चमूपति) को छापने के अपराध में एक व्यक्ति, प्रकाशक राजपाल पर हमला कर देता है, जिसमें राजपाल (राजपाल एण्ड संस प्रकाशन के संस्थापक) बच जाते हैं और वह हत्यारा फिर उन पर हमला करने के लिए गलती से किसी और पर हमला कर देता है.

आर्यसमाज के इतिहास में किसी ने उस व्यक्ति से बदले की भावना से प्रेरित हो, उसके विरुद्ध साम-दाम-दण्ड-भेद आदि कुछ भी अपना कर घृणा का विस्तार नहीं किया, न दण्ड दिया. तब भी पुलिस केस से बचाने की भावना से गाँधी बयान देते हैं- ‘एक साधारण तुच्छ पुस्तक-विक्रेता ने कुछ पैसे बनाने के लिए इस्लाम के पैगम्बर की निन्दा की है, इसका प्रतिकार होना चाहिये.’ अन्तत: महाशय राजपाल की हत्या कर दी गई.

ऐसे कम से कम पचास किस्से और हैं, जिनमें आर्यसमाज के सन्यासियों, प्रचारकों, विद्वानों आदि की हत्या कर दी गई और आर्यसमाज के इतिहास में किसी ने हत्यारों से बदले की भावना से प्रेरित हो, उनके विरुद्ध साम-दाम-दण्ड-भेद आदि कुछ भी अपना कर घृणा का विस्तार नहीं किया, न दण्ड दिया. इस देश के इतिहास ने कभी उनमें से एक को भी युगों तक कलंकित कर इतिहास का सबसे घृणित व्यक्ति नहीं कहा.

इसके बरक्स गाँधी ने सदा उन हत्यारों का ही साथ दिया, जिन्होंने गाँधी के काल में आर्यसमाज के विद्वानों, प्रचारकों और सन्यासियों पर हमले किए, हत्याएँ कीं. तब गाँधी वध करने वाले गोडसे के साथ गाँधी की नीति का पालन क्यों नहीं होना चाहिए? क्यों इस देश की सरकारों और सरकार के क्रीतदासों ने एक षड्यन्त्रपूर्वक गोडसे को इतिहास का सबसे घृणित व्यक्ति सिद्ध किया?

इसका उत्तर बड़ा स्पष्ट है.

गाँधी के प्रति विभाजन के साथ ही देश की जनता में बहुत घृणा का संचार हो गया था. विशेषत: सीमावर्ती उन अंचलों व जनता में- जिन्होंने अपने परिवार के लोगों के लहू और परिवार की लड़कियों व बेटियों की अस्मत व जीवन के साथ ही साथ चल अचल सब कुछ गंवा कर विभाजन को झेला था.

अविभाजित भारत के लाहौर में रहने वाले लोगों के परिवार गाँधी के इस वचन/ शपथ/ कथन पर अन्त तक इत्मिनान से वहाँ डटे रहे कि ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’. सबको भरोसा था कि गाँधी के इतने बड़े कथन का वास्तव में कुछ अभिप्राय है.

उन सब लोगों को गाँधी पर स्वयं से अधिक भरोसा था, और वे आँख बंद कर उस भरोसे पर निश्चिंत बैठे थे. फिर पाकिस्तान बना और गाँधी की लाश पर तो नहीं बना, बल्कि हजारों लाखों पंजाबियों/ सिंधियों की लाशों पर बना जो गाँधी के भरोसे बैठे थे.

केवल लाशों पर ही नहीं, बल्कि सर्वस्व उजाड़ कर बना. महिलाएँ बलत्कृत हुईं, सदा के लिए हथिया ली गईं. लोगों में भगतसिंह त्रिमूर्ति (भगत, राजगुरु व सुखदेव) के लिए गाँधी का हाथ झाड़ लेना भी असह्य था. उस बात ने भी गांधी के प्रति घृणा का असह्य कारण दिया.

भगतसिंह के न रहने पर माता विद्यावती सारे पंजाब के सामने थीं ही, परम पूज्या थीं वे, राष्ट्रमाता, भारतमाता थीं. उनकी उजड़ी कोख सबको सामने दिखाई दे रही थी, इस प्रकरण ने भी कष्टों में में घी का काम किया.

जिन्होंने वे दारुण, दहला देने वाले कष्ट स्वयं नहीं सहन किए वे ही कमरों में बैठे गाँधी को महान घोषित करते रहे, क्योंकि ऐसा करना ही उनके राजनैतिक हित में था. ताकि गाँधी को महान सिद्ध कर गाँधी के निकट के लोग देश के शीर्ष पर बने रह सकें और गाँधी ने जिन लोगों का साथ नहीं दिया वे लोग इतिहास में और राजनीति में कमतर सिद्ध होते रहें और इस तरह गाँधी के निकटवर्तियों का शासन पर कब्जा बना रह सके.

गाँधी की महानता के पीछे उन्हें महान सिद्ध करने की यही राजनीति काम कर रही थी.

जैसा कि मैंने पहले भी लिखा था कि मैं यहाँ ब्रिटेन में पिछली पीढ़ी के कुछ इतिहासकारों से मिली तो उन्होंने कहा कि गाँधी क्योंकि भारतीयों के सबसे कमजोर प्रतिनिधि थे जिनके माध्यम से भारतीय नेताओं और जनता पर मनमानी चलाई जा सकती थी और समझौतों के लिए बाध्य किया जा सकता था, इसलिए अंग्रेजों ने जानबूझ कर गाँधी का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने के प्रयोजन से गाँधी को प्रमुखता दी और उन्हें भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में वरीयता दी.

अन्यथा उन्हें गर्म दल के किसी वीर को प्रतिनिधि स्वीकारना पड़ता तो अंग्रेज अपनी मंशाओं और मंसूबों में कभी कामयाब न होते और न भारत का विभाजन कर पाते. गाँधी उनके लिए एक कमजोर चरित्र का मोहरा थे, जिसके माध्यम से जनता और नेताओं पर भावनात्मक दबाव बनाया जाता रहा और गाँधी अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन भी नहीं थे.

इन सब घटनाओं के आलोक में गोडसे को अत्यन्त घृणित व्यक्ति सिद्ध करने वाले गाँधी के प्रिय परिवार की कुटिल चालों का अर्थ अधिक स्पष्ट हो सकता है. अन्यथा ऐसा कोई कारण भारतीय समाज के पास नहीं है कि घृणित हत्यारों तक को उदारता से क्षमा कर देने वाला समाज गोडसे जैसे देशप्रेमी के हाथों आवेग में हुई गाँधी की हत्या के लिए उसे संसार का जघन्यतम अपराधी मानता रहे.

गोडसे द्वारा गोली चलाना वैसा ही था, जैसे ऊधम सिंह द्वारा कैक्स्टन हाल, लन्दन में जलियाँवाला बाग का बदला लेने के लिए तत्कालीन गवर्नर का वध या किसी भी अन्य देशभक्त बलिदानी द्वारा राष्ट्र का अहित करने वाले का वध. अन्तर केवल इतना ही है कि गाँधी भारतीय मूल के थे और अंग्रेज विदेशी.

आप विचार कर देखिए कि यदि गाँधी का हत्यारा कोई हिन्दू न होकर कोई मुस्लिम या ईसाई या अंग्रेज होता तो क्या तब भी भारत की राजनीति द्वारा पाले गए इतिहासकारों द्वारा उसके प्रति उतनी ही घृणा फैलाई जा सकती जितनी गोडसे के विरुद्ध फैलाई गई है? कदापि नहीं.

तब गाँधी की ‘माफ करो’ की नीति अपना कर या ‘हिंसक तो हिंसक है ही’ कह कर उसे चुपचाप शोकपूर्वक स्वीकार कर लिया गया होता. गोडसे के प्रकरण में गाँधी की नीति कहाँ गई?

यदि हत्या इतना ही बड़ा अपराध है तो केवल गोडसे द्वारा की गई हत्या ही क्यों अपराध है? तब तो आप अपने देश के सारे बलिदानियों द्वारा ब्रिटिश शासकों की हत्याओं को भी अपराध सिद्ध कीजिए या अन्य मतावलम्बियों द्वारा की गई संन्यासियों, प्रचारकों, विद्वानों की हत्या को भी अपराध सिद्ध कर उनके विरुद्ध विषवमन कीजिए.

यदि ऐसा नहीं कर सकते, यह कहकर कि हत्या करने वाले का उद्देश्य देखा जाता है, जैसे ऊधम सिंह द्वारा बंदूक उठाकर की गई हत्या का उद्देश्य पवित्र था, इसलिए ऊधम सिंह हमारे पूज्य हैं, तो उसी प्रकार गोडसे द्वारा की गई हत्या का भी उद्देश्य ही क्यों नहीं देखा जाता?

जिन्होंने घृणा के उद्देश्य से स्वामी श्रद्धानन्द जी सहित बीसियों पूज्यों की हत्या की, उनका तो उद्देश्य भी गलत था और कार्य भी, किन्तु गाँधी ने स्वयं दूषित उद्देश्य, हिंसा व गलत कार्य करने वालों को सिर पर बिठाया और उन्हें माफ करने की अपीलें कीं.

स्वामी श्रद्धानन्द जी, राजपाल जी आदि की हत्या तक में भी गाँधी संदिग्ध ठहरते हैं. ऐसे में गाँधी भक्तों को अपने स्वार्थों व राजनीति पर पुनर्विचार करना होगा और देशहित की भावना वाले गोडसे के विरुद्ध विषवमन पूर्णत: बन्द करना होगा और इतिहास में उन्हें न्याय दिलवाना होगा.

(साभार-शांतिधर्मी अक्तूबर 2014 अंक में प्रकाशित)

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