मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा : ईश्वर की इच्छा से ही प्रकट होते हैं गुरु, अवतरित होता है संन्यास

मैं मंत्रबिद्ध सी डॉ नरेन्द्र कोहली द्वारा भेजी गयी मेल पढ़ रही थी..

पिछले इतने वर्षों की एक-एक बात को स्मरण करती हूँ, तो बहुत कुछ उभरकर आता है. बीoएo में मोतीलाल नेहरू कॉलेज में मैंने प्रवेश लिया था. डॉ कोहली वहां लेक्चरर थे और बहुत सजग साहित्कार के रूप में माने जाते थे! उनका नवप्रकाशित उपन्यास ‘ तोड़ो, कारा तोड़ो’ पढ़कर मन भाव-विभोर हो रहा था.

मैं प्राय: सोचती, मेरे जीवन की सार्थकता क्या है?
उनका मुझसे प्रश्न था, उपलब्धि हम मानते किसको हैं?
मैं उन्हें समझ रही थी. उनका सानिध्य मुझे सद की ओर प्रेरित कर रहा है, यह उन्होंने समझा.

मेरे लिए सबसे अधिक सुखद ये रहा कि कर्म-सिद्धांत की व्याख्या मुझे उनसे मिल गयी,”कर्म में इच्छा रखिये पर परिणाम में आसक्ति मत रखिये क्योंकि प्रत्येक कर्म में उसका फल निहित है.” बिना कामना के कर्म! और आश्वासन कि ‘जो फल आपको मिलेगा, उसी में आपका हित है!’
मेरे मन में यह आस्था दृढ़ होती चली गयी कि प्रकृति के हर कार्य, हर योजना के पीछे कोई कारण है, जो हमारे लक्ष्य और विकास से जुड़ा है.

उनके श्री कृष्ण के निष्काम भाव ने बोध कराया, ‘संचित भाग्य में कर्म की स्वतंत्रता हमको है!’ सबसे बड़ी बात मेरे लिए इस सिद्धांत का यह पक्ष था कि कर्म में भी सुविधा न देखें.’ उनकी बात पर विचार किया तो पाया, ‘अगर कार्य में सुविधा की बात न करें, तो सबसे पहले व्यक्ति के मन में न्याय-अन्याय का विचार उठेगा.’

एक बार मैंने डॉ नरेन्द्र कोहली से पूछा,”सर, आप व्यंग्य से अध्यात्म में प्रवेश कर गए. व्यक्तित्व में यह परिवर्तन कैसे हुआ?”
उन्होने कहा, ”लिखते-लिखते”
उनकी बात अब समझ में आती है. अपने लिखे को ही हम कितना आत्मसात करते हैं.
मेरी सद्वृत्तियों को जगाया उनके साहित्य और उनके व्यक्तित्व ने.

मैं सोअम पत्रिका में छपा उनका लेख पढ़ रही थी, जहाँ सात्विक चरित्रों को लोगों ने अभागा बताया है, जिन्होंने अपने जीवन में बहुत कठोर परीक्षाएं दीं, बहुत कष्ट सहे, जिनका जीवन सरल नहीं था! डॉ कोहली ने माना कि इन चरित्रों ने सारी मानवता को प्रभावित किया. उन्होंने बताया कि अभागा वह होता है, जो खाने और सोने को ही अपना सुख मान लेता है. समाज के लिए जिसका कोई देय नहीं. उन्हें कभी नहीं लगा कि प्रकृति में जो कुछ है, वह भोग के लिए है!

उन्हें देखकर, सुनकर, जानकर और आत्मसात करते-करते मन में यह इच्छा प्रबल होती गयी कि जीवन के उदात्त सात्विक पक्ष को आत्मसात कर सकूँ, उसका चित्रण कर सकूँ.

मैंने ईश्वर को बहुत बहुत धन्यवाद दिया कि उन्होंने मुझे डॉ कोहली के लेखन को आत्मसात करने की प्रेरणा और विश्लेषण शक्ति दी. उन्हें समझने की क्षमता प्रदान की.

स्वभाव के कारण पिछले दिनों मन में संन्यास ग्रहण करने का भूत जागा!

उनके लेखन ने, साथ ने आज तक यही सिखाया था, संसार के बीच रहकर मन को अनासक्त करना भी तो साधना ही है. वेदांत को घर में लाया जा सकता है. जीवन को बहुत सरल बनाया जा सकता है!

मैंने सोचा, रहना मुझे समाज में ही है, आत्मनिर्भरता के लिए कर्म भी करना है. किन्तु खुद को निर्मल करने की जो तड़प और प्यास है; अगर दीक्षा लेने का सामाजिक ठप्पा लग जाये, तो साधने की गति तेज हो जाएगी. निष्कामता और शुद्धता की ओर बढ़ने की यात्रा और सुगम एवं सरल हो जाएगी.
उन्हें पत्र लिखा.

उनकी मेल पढ़कर अभिभूत हूँ ! मन उमंग और आह्लाद से भरा हुआ है.
बार बार मैं उस मेल को पढ़ती हूँ —

“मुझे तुम्हारी मेल मिली. मैं सोचता रह गया और उत्तर नहीं दिया. मन में कबीर की पंक्ति थी, ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा.’ अब भी यही विचार है कि मन को स्वच्छ करती चलो, संन्यास अपने आप उतर आएगा.

गुरु कोई एक नहीं होता, संसार में सहस्रों लोग तुम्हें कुछ न कुछ सिखाएंगे. जिससे जो कुछ सीख सको, सीखती चलो. यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो उचित समय पर गुरु भी आएंगे और संन्यास भी अवतरित होगा; नहीं तो परम गुरु श्रीकृष्ण तो हैं ही. संसार को देखती चलो और समझती चलो. जल्दी में कोई निर्णय मत लो.

– नरेन्द्र कोहली”

मेरी आत्मा आज बहुत प्रसन्न है. गुरुदेव डॉ नरेंद्र कोहली के प्रति आभार! कृतज्ञ ! नमन

– कविता सुरभि

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