आपको तय करना है आपकी आनेवाली पीढ़ी के वास्तविक नायक

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1983 में फिल्म आई थी कुली, मेरे लिए अमिताभ बच्चन की शायद यह पहली फिल्म रही होगी जो मैंने टॉकीज़ में देखी. आठ साल की उम्र की लड़की जब परदे पर एक ऐसे हीरो को देखती है जो छाती पर हरी चादर लपेटे हुए पिस्तौल से गोलियां खाने के बाद भी अंत तक मरता नहीं, तो उस हरी चादर के प्रति मन में बड़ी श्रद्धा उपजती… कितनी शक्तिशाली होगी ये चादर और कितना दयालु होगा उसको बनानेवाला.

वह मेरे कोमल मन की गीली मिट्टी पर पहला सेक्युलर बीज अंकुरित कर गया. चूंकि मैं रहती भी ऐसे मोहल्ले में थी जहां मुस्लिम समुदाय बहुतायत में था. इसलिए ये बीज मेरे जन्म के साथ ही पड़ गया था. क्योंकि हमारे मोहल्ले के हिन्दू मुस्लिम लोग सब मिलजुल कर रहते थे. मोहर्रम पर ताजिये तो हमारे घर के सामने से निकलते हुए कर्बला तक जाते थे.

मेरे पापा हम बच्चों के लिए पहले से ही रेवड़ियां लाकर रख देते थे ताजियों पर उड़ाने के लिए. सुबह से शाम तक निकलने वाले ताजियों के लिए हम हाथ में गुड़ और शक्कर की रेवड़ियां दिन भर पकड़े रहते, आधी ताजियों पर फेंकते आधी खुद गप कर जाते और दिन भर चिपचिपे हाथ लिए घूमते रहते..

बीच बीच में कुछ लोग नाचते हुए ‘या हुसैन’ ‘या हुसैन’ करते हुए निकलते, कुछ के चेहरे पर शेर के मुखौटे लगे होते और शरीर पर शेर सी धारियां बनी होती…

मैं सिर्फ इतना जानती थी कि वो मुस्लिम है, और उनके कुछ अलग तरह के भगवान होते हैं, जिनका हमें भी सम्मान करना चाहिए, और पूजना चाहिए… इसलिए जब पापा कहते जाओ ताजिये के नीचे से निकलो, तो मैं अन्य हिन्दू बच्चों के साथ बड़ी भक्ति भाव से उन ताजियों के नीचे से प्रार्थना करते हुए निकलती…

मेरे पापा बड़े उत्साहित रहते थे उस दिन तो मुझे लगता ये कोई अच्छा सा त्यौहार है उनका. तो 1983 में कुली फिल्म आने के बाद उस अंकुरित सेक्युलर बीज को अच्छा खाद पानी मिलने लगा था…

फिर 1988 में देखी अमिताभ की शहंशाह, तब मेरे बालमन पर यह तस्वीर साफ़ हो गयी कि इन्स्पेक्टर विजय जैसे पुलिस इंस्पेक्टर के बस का नहीं चोरों को पकड़ना, उसके लिए तो रात के अँधेरे में कोई रहस्यमयी आदमी ही निकलता है, जिसका एक हाथ लोहे का होता है और वो कितनी बहादुरी से गुनाहगारों को सज़ा देता है. शहर का क़ानून भी उस पर लागू नहीं होता… और उसका नाम है “शहंशाह”.

कोमल अंकुरण में अब छोटी छोटी किसलएं लग चुकी थी….

मैं अमिताभ की फैन हुई जा रही थी….

मेरी माँ को फ़िल्में देखने का बहुत शौक था, इंदौर के मोती तबेला वाले घर में हम एक साथ 40 लोग रहते थे… संयुक्त परिवार… तो जब घर की महिलाएं फिल्म देखने निकलती तो लगता पूरा मोहल्ला फिल्म देखने निकला है. मुझे सारी फ़िल्में नहीं देखने दी जाती थी… तो शहंशाह के बाद 1991 में देखी अजूबा… हालांकि मैं सोलहवें सावन में प्रवेश कर चुकी थी लेकिन उस समय लड़कियाँ आज की तरह इतनी जल्दी बड़ी नहीं हो जाया करती थी… तब भी मैं उतनी ही बच्ची थी, इसलिए तब भी चुनिंदा फ़िल्में ही दिखाई जाती थी मुझे…

तो  अजूबा फिल्म मेरे लिए सच में अजूबा थी… एक ऐसा शहर जो हमारे देश सा नहीं है लेकिन बड़ा जादुई है, जहां लोग जब चाहे चिड़िया जैसे छोटे होकर दुश्मन की पगड़ी पर जा बैठते हैं… कहाँ होगा ऐसा शहर… किसी मुस्लिम देश में ही होगा… तभी अमिताभ बच्चन ने वहां जाकर शूटिंग की होगी…

किशोर मन की कल्पनाओं में अमिताभ बच्चन का इस्लामिक चरित्र  गहरे में पैठता जा रहा था… और इस सेक्युलर पौधे पर सबसे पहला जो मीठा फल लगा, वो था 1993 में आई अमिताभ की ख़ुदा गवाह… वाह… तू ना जा मेरे बादशाह एक वादे के लिए एक वादा तोड़ के… और बादशाह की इमानदारी की मैं कायल हो गयी…

इस बीच अमिताभ की और भी कई फ़िल्में देखी होंगी लेकिन ख़ुदा गवाह का बादशाह तो मेरे सपनों का राजकुमार बन गया था…. खुद को ख़ुदा गवाह की श्रीदेवी समझने लगी थी और इंतज़ार करने लगी थी अपने सपनों के बादशाह का… एक दिन वो आएगा घोड़े पर सवार होकर और मुझे अपने पिछले जन्म की सारी बातें याद आ जाएगी… मैं भी ऐसे ही किसी मुस्लिम देश की मलिका थी और मेरा बादशाह अपने वचन की खातिर मुझे छोड़ कर चला गया था…

मेरा बादशाह आया…. लेकिन 35 साल के लम्बे इंतज़ार के बाद… लेकिन ये क्या… मेरे बादशाह के सर पर तो ब्राह्मणों वाली शिखा है… नफासत, नज़ाकत और तहज़ीब वाली उर्दू में नहीं, बल्कि क्लिष्ट हिन्दी में बात करता है…

मुझे मलिका नहीं देवी कहता है…

मुझे लगा मेरे अन्दर का सेक्युलर पौधे का खाद पानी बंद हो गया है, वो सूख रहा है… मैंने खुद पर नज़र डाली तो हृदय की जिस धरती पर वो बीज बोया था वहां की धरती की खुदाई की जा रही थी. पुरातत्ववेत्ता बनकर ज़मीन में दबे मेरे सनातनी संस्कारों के अवशेषों को मेरे सामने प्रकट कर रहा था.. शिलालेखों पर पड़ी धूल को झाड़कर उस पर लिखें मन्त्रों को वो ऊंची आवाज़ में सुना रहा था…

कई दिनों तक मेरी आत्मा की ज़मीन में दबी पड़ी मेरी वास्तविक पहचान और जन्मस्थली और परवरिश की परिस्थितियों से बनी मेरी इमारत के बीच संघर्ष चलता रहा…

इमारत में दरार तो पड़ ही चुकी थी, धीरे धीरे इमारत ध्वस्त होने लगी…. बचपन की सारी घटनाएं मेरी आँखों के सामने बिखरी पड़ी थी… चूंकि आँखों पर पड़ा पर्दा भी खिसक चुका था तो उभर कर आया 1992 का वो साल जब चारों तरफ रामजन्म भूमि और अयोध्या की बातें चल रही थी… कार सेवकों की बातें चल रही थी… उन दिनों कार सेवकों की हत्या का वीडियो भी चुपके से सब जगह फ़ैल गया था…. बड़े सब टीवी में वीसीआर लगाकर देख रहे थे…

उस समय तो ये सब समझ नहीं आया था… आज दोबारा उन दृश्यों को याद करती हूँ तो याद आती हैं घर के बड़ों की वो फुसफुसाहट… सामने मुसलमानों के मोहल्ले से हुई पत्थरबाजी….. पापा और चाचाओं के मुंह से तब पहली बार पेट्रोल बम का नाम सुना…

घर की महिलाओं को पहली बार इतना सहमा हुआ देखा… दादी कह रही थी मिर्ची के पैकेट बनाकर सब अपने पास रखो… दरवाजों के पीछे लोहे के सब्बल छुपाओ…. खुद की सुरक्षा की तैयारी तो कम से कम रखना ही होगी….

आज मैं जब पीछे पलटकर देखती हूँ तो लगता है केवल आपका जन्म और पारिवारिक परिस्थितियाँ ही नहीं फ़िल्में भी आपके अवचेतन मन में गहरा प्रभाव डालती है…

इसलिए मैं अब मेरा पूरा प्रयास रहता है कि मैं इस बात पर ध्यान दूं कि मेरे बच्चे टीवी पर क्या देख रहे हैं… और उनके बालमन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है…

लेकिन उस शिखाधारी ब्राह्मण यानी स्वामी ध्यान विनय के घर में जन्में मेरे बच्चों को मुझे कुछ भी अलग से सिखाना नहीं पड़ता… मुझसे अधिक उनके पिता के संस्कारों का असर है उन पर, इसलिए अक्सर मुझे वो ऐसे कार्टून देखते हुए मिलते हैं जिसे देखकर मुझे अपने वास्तविक नायक पर गर्व हो आता है…

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कल ही मैंने दोनों को रामदेव बाबा पर चल रही एनीमेशन फिल्म देखते और योग करते पाया….

और आपको यह जानकार भी अचम्भा होगा कि दोनों जब कम्प्युटर पर राष्ट्रगान का वीडियो लगाते हैं, तो बैठकर नहीं, हमेशा सावधान की मुद्रा में खड़े होकर सुनते हैं…

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समय आ गया है यह तय करने का कि हमारी आनेवाली पीढ़ी के मन में किन नायकों के संस्कार डालना है.

 

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