मुझे रोज पत्र आते है. मेरे खिलाफ रोज अखबारों में लेख निकलते हैं, सारी दुनिया के कोने-कोने में. उन सारे विरोधों में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण विरोध है, वे विचारणीय है. एक विरोध यह है कि मैंने स्वयं को भगवान घोषित क्यों किया? कि मैं स्वयं घोषित भगवान हूं, यह भारी विरोध है.
अब सवाल ये है कि जीसस को किसने घोषित किया, ईसाई यह एतराज उठाते है. तो मैं उनसे पूछता हूँ कि जीसस को किसने घोषित किया था? हिन्दू यह सवाल उठाते है, मैं उनसे पूछता हूं कृष्ण को किसने घोषित किया था. कोई कमेटी थी? कोई पंचायत थी? कोई पाँच जनों ने मिल कर पंचायत की थी? कोई पंचों ने घोषणा की थी?
महावीर को किसने घोषित किया था वे भगवान है? जैन सवाल उठाते हैं. उनसे मैं पूछता हूं कि महावीर को किसने घोषित किया था. और आसान भी न था, क्योंकि महावीर के समय में, महावीर जैनों के चौबीसवे तीर्थकर है, तेईस हो चुके थे, चौबीसवें के लिए बहुत झगड़ा था. क्योंकि चौबीसवाँ हो गया कि फिर पच्चीसवें का तो उपाय ही नहीं था. जैन शास्त्रों में.
तो अकेले महावीर दावेदार नहीं थे. और भी दावेदार थे. मक्खनी गोशालक, संजय वेलट्ठीपुत्त था. अजित केशकंबली था, उस सब की घोषणा थी कि हम भगवान है. कैसे तय हुआ यह. कोई चुनाव हुआ था? कोई मतदान हुआ था? कोई चुनाव अधिकारी नियुक्त हुआ था, जिसने तय किया कि नहीं महावीर ही तीर्थंकर है? किसने घोषणा की.
बुद्ध ने स्वयं घोषणा की है मैं परम बुद्ध हूं, मैंने परम संबोधि पा ली है. और कौन घोषणा करेगा?
लेकिन बौद्ध, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जैन, उन सबका मेरे साथ यही सवाल है कि आप स्वयं घोषणा किए है. तो क्या मैं दो-चार आदमियों के दस्तखत करवा लूं, करवा सकता हूं कोई अड़चन नहीं. दो लाख मेरे संन्यासी है, तो दो लाख आदमी दस्तखत कर सकते है.
फिर बड़ी मुश्किल हो जायेगी. फिर तुम्हारे कृष्ण का, राम का, बुद्ध का और जीसस को कहां ठिकाना रहेगा. इनके पास तो कोई दस्तखत ही नहीं है. ये सब तो गए, गए काम से.
लेकिन यह दस्तखत की बात ही व्यर्थ है, क्या अंधों से पूछना पड़ेगा आँख वाले को कि मैं आँख वाला हूं, या नहीं? कि हे अंधे भाइयों एवं बहनों, लाज रखो मेरी, कि प्यारे दस्तखत कर दो.
दस्तखत न बन पड़े तो अंगूठे का निशान ही लगा दो. अरे तुम्हारा क्या बिगड़ता है, तुम तो अंधे हो ही, अगर मैं आँख वाला हुआ जा रहा हूं तुम्हारे दस्तखत से या तुम्हारे अंगूठे की छाप से तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है. हो जाने दो.
एक तो यह आलोचना कि भगवान की स्वयं घोषणा कैसे? इसमें यह बात मान ही ली गई कि भगवान होने की घोषणा किसी दूसरे को करनी पड़ेगी.
दूसरा करेगा तो गलत ही होगी. यह घोषणा तो स्वयं ही हो सकती है. यह घोषणा तो आत्मानुभव की है. मैंने अपने को जाना, अब मैं कैसे कहूं कि नहीं जाना? क्या झूठ बोलूं? मैंने अपने को पहचाना मैं आनंदित हूं अपने भीतर, अब कैसे कहूं कि दुःखी हूं?
मैं स्वर्ग में हूं, क्या तुम्हें सिर्फ तृप्त करने को कहूं कि नरक में हूं? समाधि के रस में डूब रहा हूं, क्या तुमसे कहूं कुछ और, जिससे तुम राज़ी हो सको? क्या तुम्हारे लिए झूठ बोलूं? एक यह आलोचना.
दूसरी आलोचना यह है कि कोई जीवित व्यक्ति भगवान कैसे हो सकता है?
यह भी बड़े मजे की बात है. मुर्दा भगवान हो सकते है, जिंदा भगवान नहीं हो सकता. इसलिए जो मर गए है. उनके संबंध में अगर एतराज उठाओ तो लोगों की भावनाओं को बड़ी ठेस पहुँचती है.
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है, मुझे गालियां दी और मेरे संन्यासियों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचती. मैं जिंदा हूं, इसलिए मुझे गालियां दी जा सकती है और मेरे किसी संन्यासी को हक नहीं है कि कहे कि उसकी भावना को ठेस पहुँचती है.
लेकिन अगर मैं किसी की आलोचना कर दूँ जो मर चुका… और आलोचना का पूरा तर्क देने को तैयार हूं. पूरा विश्लेषण करने को राज़ी हूं… तो भी भावना को ठेस पहुंच जाती है.
तर्क का सवाल ही नहीं, भावना को ठेस नहीं पहुंचना चाहिए. सत्य मत बोलो, अगर झूठ से लोगों की भावनाओं को खूब रस मिलता है तो झूठ बोलो.
अब मैं लाख उपाय करूं तो भी कुछ लोगों को तो मैं ज्ञानी स्वीकार नहीं कर सकता. उनके वक्तव्य, उनका जीवन, उनकी सारी चर्या, उनका सारा बोध कुछ और गवाही दे रहा है. मैं कैसे स्वीकार कर लूं. लेकिन किसी की भावना को ठेस न पहुंच जाये, तो भावना की फिक्र की जाये या सत्य की फिक्र की जाये.
और अगर सत्य से तुम्हारी भावना को ठेस पहुँचती है तो अपनी भावना बदल लो. भावना तुम्हारी है. मैंने कोई ठेका नहीं लिया कि तुम्हारी भावना को ठेस नहीं पहुंचाउंगा. मैं तो जो है वैसा ही कहूंगा.
अब अंधे आदमी को मत कहो अंधा. सूरदास जी कहो, मगर क्या फर्क पड़ता है. किसी को कहो सूरदास जी वह फौरन समझ जाएगा अंधा कह रहे हो.
कह कर देखो कि हे सूरदास जी, कहां जा रहे हो. वह फौरन लकड़ी लेकर खड़ा हो जाएगा कि किससे कहा तुमने. अगर आँख वाला होगा तो कहेगा, तुमने मुझे अंधा कहा. अंधा भी जानता है सूरदास का क्या मतलब होता है. लेकिन बेचारा करे क्या, क्या झगड़ा खड़ा करे.
मगर अच्छे शब्दों से भी क्या होगा? मेरे पास पत्र आते है, कि आप सभी धर्मों की प्रशंसा करें तो अच्छा हो.
क्यों? झूठ की प्रशंसा करवाना चाहते है. मुझे अगर कुछ गलत दिखाई पड़ेगा तो मैं गलत कहूंगा. और मेरे साथ जिन्हें खड़ा होना है उनको तैयारी दिखानी पड़ेगी कि मुझे गालियां पड़ेंगी तो उनको भी गालियां पड़ेंगी. मेरे साथ खड़े होने का मतलब है : एक आग से गुजरना.
ओशो
आपुई गई हिराय