हुंकार लगाई थी उसने, जब सारा भारत सोता था

भारत का हिन्दू समाज एक कालखंड में दीर्घ-अवधि के लिये सो गया था जिसके नतीजे में हम सदियों तक बाह्य आक्रमणों से न सिर्फ पीड़ित रहे बल्कि उनकी गुलामी करने के अभ्यस्त भी हो गये. गुलामी में हमें मज़ा आने लगा.

ऐसा भी नहीं है कि इस सुप्तावस्था में हमारे यहाँ कोई जाग्रत महामानव पैदा नहीं हुआ, हुआ पर उनका प्रभाव उनके अपने विराट-व्यक्तित्व पर अवलंबित था. उन्होंने अपने कार्य और दिशा को समाज का कार्य और दिशा नहीं बनाया इसलिये उनके विराट-व्यक्तित्व से भी हमें कोई बहुत लाभ नहीं हुआ.

कालान्तर में इसी सुप्त हिन्दू समाज में एक महामानव जन्मा, नाम था महर्षि दयानंद सरस्वती. इस महामानव का और उसके कृतित्व का परिचय अगर मुझे कुछेक वाक्यों में देने को कहा जाये तो मैं कहूँगा कि महर्षि दयानंद सरस्वती हिन्दू आत्मविश्वास और वेद वाक्य “मैं आत्मा हूँ मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता” की जीवंत मूर्ति थे.

वो संभवतः पहले थे जिन्होंने अपने कार्य और दिशा को समाज का कार्य और दिशा बना दिया, आर्य समाज में रूप में हिन्दुओं का सैनिकीकरण किया, हमें हमारे मूल की ओर खींचते हुए हमसे कहा कि कोई और हमें क्या एकेश्वरवाद सिखाया जबकि इस विचार की जननी ही भारत-भूमि है, महर्षि ने हमसे कहा कि हम सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम हैं.

ये बात सिर्फ आत्ममुग्ध होने के लिये नहीं है बल्कि सारे विश्व को आर्य बनाने का दायित्व भी इसमें शामिल है. महर्षि का सत्यार्थ प्रकाश भारत भूमि पर गीता के बाद लिखा गया न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ था बल्कि ये सदियों से सोये हिन्दू समाज के जागरण का पाञ्चजन्य घोष भी था.

जिस काल में महर्षि दयानंद हुये उस काल में ईसाई मिशनरियां और मुस्लिम दावती सबके सब हिन्दू धर्म, हिन्दू दर्शन और हिन्दू मान्यताओं का खुलेआम मजाक उड़ाते थे और हमारे तरफ से जो किताबें लिखी जाती थी या परिचर्चाएं होतीं थी वो सबके सब उनके आरोपों पर रक्षात्मक या सफाई देने की मुद्रा में होते थे.

हमारी इसी क्लीवता के दौर में महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के रूप में एक ऐसा शंख फूंका जिसने विधर्मियों के आक्रमणों के खिलाफ अपने धर्म का मंडन तो किया ही साथ ही साथ उनके मत-मजहबों पर भी हमला कर दिया.

महर्षि में उभय-पक्ष का बलाबल जानने की अद्वितीय क्षमता थी इसलिये सत्यार्थ प्रकाश के उनके आख़िरी समुल्लासों पर विपक्षी तिलमिलाकर रह गये और कोई जवाब नहीं दे सके.

विधर्मी धर्मग्रंथों की उनकी समीक्षा का एक परिणाम ये भी हुआ कि मुस्लिम पक्ष से कई ऐसे विद्वान् आगे आये जिन्होंने कुरान की एक अलग तरह से व्याख्या की.

कादियानी फिरके के बानी मिर्ज़ा गुलाम अहमद और सर सैयद अहमद द्वारा किया गया कुरान-भाष्य महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश के बाद रचे गये. इन दोनों के कुरान भाष्य से स्पष्ट समझा जा सकता है कि अब वो खेमा रक्षात्मक था. सर सैयद अहमद तो महर्षि दयानन्द के मुरीदों में से थे, अल्लामा इकबाल के कई शेरों में महर्षि दयानन्द के कुरान-समीक्षा का असर स्पष्ट दिखता है.

जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है कि महर्षि दयानन्द संभवतः पहले थे जिन्होंने अपने कार्य और दिशा को समाज का कार्य और दिशा बना दिया, इसलिये उनके जाने के बाद उनका संगठन कई गुना तेज़ी से फैला. हिन्दुओं में अरबी, फारसी सीखने की ललक पैदा हुई.

महर्षि के बाद हुए आर्य समाज के विद्वानों ने कुरान, हदीस और इस्लामी ग्रंथों के अध्ययन और समीक्षा करने के बाद जितनी किताब लिखीं हैं उसकी गिनती संभव नहीं है. राजेन्द्र जिज्ञासु, चमूपति, देवप्रकाश, पंडित रूचिराम जैसे विद्वानों की कालजयी कृतियाँ मोपला और गोमांतक की श्रेणी की किताबें हैं जो संघर्ष काल में रची गई थी.

कितनों को ये तथ्य पता है पंडित रूचिराम ने सात साल तक अरब और दूसरे इस्लामिक देशों में हिन्दू धर्म का प्रचार किया था. भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के कई कालजयी कार्यकर्ता आर्य समाज से ही निकले. महर्षि दयानन्द ने घर-वापसी का जो अभियान चलाया था उसे श्रद्धानंद असीम ऊँचाइयों तक ले गये.

हिन्दू समाज को पुनः प्रचारशील धर्म के रूप में विकसित करते वाले महर्षि दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के वर्तमान संस्करण या इसपे काबिज लोगों से तकलीफ हो सकती है पर इसके कारण महर्षि और उनके आर्य समाज का योगदान कहीं से भी भुलाया नहीं जा सकता.

आर्य समाज की आलोचना करने की बजाय महर्षि और आर्य समाज के विद्वानों ने हमारे लिये जो बौद्धिक हथियार छोड़े हैं उसे ही हिन्दू समाज इस्तेमाल करना सीख ले तो बहुत कुछ बदल जायेगा.

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