दरियागंज

दरियागंज…..
जहन के कोने से
उछलकर एकदम से
सामने खड़ा हो जाता है…..

याद है जब
बल्लीमारां की गलियों से गुजरते
ग़ालिब की हवेली की
सीलन की महक से
अपनी साँसों को महकाते
उस रिक्शे की सवारी करते
पहुँच गई थी
जामा मस्ज़िद के
भीड़ वाले इलाके में…..

और भौचक्की सी
देखती रह गई थी
उस इबादतगाह को…..
जो तारीख़ के बेशुमार
नरम-गरम मसले
अपने सीने में दफ़न किये
मुस्कुराता खड़ा है…..

कितनी ख़्वाहिशें
कितनी मन्नतें
कितनों की आस
अब भी जुड़ी हुई है…..

फिर नज़र आती है
उसकी लम्बी-चौड़ी
विशालकाय सीढ़ियाँ
जहाँ मंटो ने अपने
अनगिनत अफसानों के
ताने-बाने बुने होंगे…..

यही हैं वो सीढ़ियाँ
जहाँ मंटो के
दम तोड़ने के बाद
कृश्नचन्दर दौड़ के आया था
उस दर्ज़ी को ढूँढने
जिसने उसकी सिलाई का पैसा
चुकता न हो पाने पर
पकड़ लिया था
मंटो का गिरेबाँ…..
और मोटे फ्रेम के अन्दर
झाँक कर पूछा था
‘….. “हतक” तुमने लिखी है?’
और हाँ कहने पर
उसको सीने से भींच लिया था…..

जामा मस्ज़िद पार करने पर
मिल जाता है ‘दरियागंज’
कहानियों का अड्डा…..
जहाँ कुछ कहानियाँ
किताबों की शक़्ल लिए और
कुछ कहानियाँ वहाँ मौज़ूद
किरदारों की शक़्ल अख़्तियार किये…..

कुछ जोड़े प्रेम में डूबे
किताबें तलाशते और
अपनी उठती-गिरती
झुकती पलकों पर
सतरंगी ख़्वाब बुनते…..
तो कुछ अपने
मौज़ूदा वक़्त को
बदलने की जद्दोजहद से लड़ते
अपने आगाज़ को सँवारने को
कुछ रंगीन पन्ने तलाशते…..

कुछ दुकानदार
उन किताबों के जरिये
अपनी रोटी की जुगाड़ करते
अपने बच्चों के बहाने
अपने सपनों को
रंगीन करते…..

कुछ अपने किताब
पढ़ने के शौक को
उस फुटपाथ पर
बेतरतीबी से पड़ी किताबों में
सस्ते दामों में तलाशते

कुछ बूढ़ी आँखें
उन किताबों में
मौज़ूद प्रेम कहानियों में
अपने माज़ी की
प्रेम कहानियाँ तलाशते…..

आगे बढ़ने पर दिखता है
वो खूनी लाल दरवाज़ा
जो समेटे है अपने अन्दर
तीन मासूम शहजादों की
चीखों का कातर शोर…..

ये दरियागंज
उसकी सड़के, उसके रस्ते,
उसके पुल, उसके फुटपाथ
गढ़ते हैं रोज कहानियाँ…..
सजाते हैं सपनीले किरदारों को…..
ख़्वाब हक़ीक़त में बदलते
और कहीं हक़ीक़त
ख़्वाब बन जाती है…..

ये दरियागंज…..

– अनीता सिंह

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