धर्मवीर भारती का सूरज का सातवाँ घोड़ा मेरे मस्तिष्क के घोड़ों से जा मिला… जो सरपट नहीं भाग रहे थे उन्हें भी न जाने कहाँ से ऊर्जा मिल गई कि वो बेतहाशा इधर उधर भागने लगे…
दिन भर कलम को लगाम बनाकर उन्हें कसती रही… लेकिन उनके कान तो सूरज ने ऐसे भर दिए थे कि जैसे एक ही दिन में धरती की सात सतहें पार कर वहां सात सूरज उगा देना है…
लेकिन फिर ऐसा भी हुआ कि मेरी कलम सहित सभी घोड़े थक कर एक पेड़ को गाव तकिया बनाकर सुस्ताने बैठ गए..
फिर उसी थकी कलम से बांसुरी की धुन निकलने लगी और धुन गोपियों में तब्दील होने लगी… और एक एक शब्द कृष्णमय होता गया….
… जहां हर गोपी के साथ कृष्ण को रास लीला करते देखा जा सकता है…
ऐसे में मन मेरा निधिवन उपवन हो जाता है, जिसका रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया… और जिसने भी उसमें प्रवेश करने की कोशिश की लौट नहीं पाया….
लेकिन सूरज की सबसे पहली किरण जब भी इस वन पर पड़ती है तो उसके सातों रंगों को मैं कृतज्ञता के साथ उसे लौटा देती हूँ. जानते हो क्यों?
क्योंकि जब भी कोई मुझसे प्रेम सम्बंधित कोई प्रश्न करता है या बात करता है तो मुझे एशियन पेंट का वो विज्ञापन याद आता है जिसमें लोग रास्ते चलते हुए अचानक से कोई रंग देख कर चिल्ला उठते हैं… मेरा वाला पिंक या मेरा वाला ग्रीन और फिर उस रंग की वो चीज़ लाकर एशियन पेंट के शो रूम में चले जाते हैं कि उन्हें तो यही रंग चाहिए अपने घर को सजाने के लिए…
और एशियन पेंट का दावा कि हमारे पास आपका सोचा हुआ हर रंग मिलेगा क्योंकि हर रंग कुछ कहता है…
तो हम भी अपने पसंद के उस रंग के कहे हुए पर ही आँख बंद करके यकीन कर लेते हैं… मेरा वाला पिंक….
फिर कुछ दिनों तक उस रंग का रंग चढ़ा रहता है… और फिर जब समय बीतने के साथ उस रंग से हमें ही उकताहट होने लगती है, ना भी हो तो समय के साथ रंग धुंधले पड़ने लगते हैं… या दीवार से ही झड़ने लगता है वो रंग….
फिर हम नए रंग की तलाश में निकल पड़ते हैं…. मेरा वाला ग्रीन….
तो रंग तो वही है जो एशियन ब्राण्ड आपको उपलब्ध करवा रहा है… आपके रंग से बिलकुल मैच नहीं भी होता हो तो भी हम थोड़ा कम ज्यादा करके काम चला लेते हैं….
लेकिन प्रेम का कोई रंग नहीं होता… आप अपनी आँखों में जो रंग भर कर देखोगे उस रंग का हो जाएगा… सिर्फ रंग मत बनिए एशियन पेंट ब्राण्ड हो जाइये… तो आपको सारे रंग उपलब्ध हो जाएंगे…
इसलिए जब आप पूछते हैं प्रेम करो मत प्रेम हो जाओ का क्या मतलब होता है तो इसका यही जवाब है….
रंग तो हमारी आँखों का धोखा है…. आपको तो बेरंग ही रहना है… सफ़ेद झक्क… पता है ना… सफ़ेद रंग सफ़ेद क्यों होता है क्योंकि वो सूर्य से आने वाले सारे रंगों को परावर्तित करता है… और काला रंग काला इसलिए होता है क्योंकि वो सारे रंगों को सोख लेता है…
बिलकुल सफ़ेद हो जाइये… फिर जिस रंग की किरण आप पर पड़ेगी वो परावर्तित होकर लौट जाएगी… सारे रंग सोखने की कोशिश में जीवन काला ही होगा… इसे ही तो साक्षी भाव कहते हैं… तेरा तुझको अर्पण…