आक्रमण के हथियार बदल गए हैं : 3

गतांक से आगे…

मुझे ठीक से याद नही आ रहा, उस दिन कौन सा चैनल था और कौन सा कार्यक्रम. क्योकि मैं यहां का कोई कार्यक्रम नहीं देखता. किसी के घर पर टीवी चल रही थी बस अचानक नजर पड़ गई.

मुम्बई की एक मशहूर कोरियोग्राफर, और निदेशक फरहा खान हैं. मोहतरमा किसी चीप से ऐक्टर की नजदीकी के नाते ज्यादा जानी जाती हैं. उस कार्यक्रम की घटना में थोबड़े पर नजर पड़ी तो बाद में मैंने यह सब पता किया.

कोई नाच-गाने का चल रहा था. शायद ऑडिशन शो टाइप का प्रोग्राम था. वह जज थीं और नाचने को लेकर वह कमेंट कर रही थीं. उनका वाक्य सुनिये… (इसी पर मेरा ध्यान गया था)

“क्या पूजा-पाठ की म्यूजिक चला रहे हो… भजन थोड़े ही करेंगे”

मैं अवाक… हिम्मत देखिये जरा!

जरा मस्जिदों से पांच बार गूंजती अजान या चर्च की शोर मचाती घण्टियों को लेकर इस तरह का एक सार्वजनिक कमेंट कर दें. असली सेकुलरिज्म…!!

आपने कभी क्लासिकल म्यूजिक (शास्त्रीय संगीत) सुना ही होगा. अंत:नाद की तरफ ले जाते स्वर होते हैं. वह हजारों साल की सनातन प्रवाह के आत्म-स्वर थे जो हिन्दू जीवन पद्धति को आत्मबल देते हैं.

मूलतः भारतीय और विदेशी संगीत का अंतर क्या होता है?

वह अंतर केवल बनावट, सुर, लय, ताल, आलाप, शब्द, और उच्चारण का ही नहीं होता. अमूमन विदेशी संगीत आप को ‘बाहर’ ले जाता है. मैटीरियल में. भौतिकता में.

पर शास्त्रीय आप को ‘अंदर’ ले जाता है. आधार में. आपके अंत:जगत में. शान्ति के समीप आपके खुद के अंदर. यह सोच का अंतर है, प्रकृति का अंतर है, परिणाम का अंतर है.

वामी-सामी-कामी इसी लिए उसे पूजा-पाठ कहकर हल्का करते हैं. भारतीय वादन-गायन-नृत्य-गीत-संगीत अंत:चेतना की तरफ ले जाता है.

आप गौर करिये पहले कि फिल्मों में मुस्लिम गायक भी शास्त्रीय संगीत देने आते थे. एक से एक धुनें और राग-स्वर-ताल का इस्तेमाल होता था.

अब इधर की तीस सालों से सभी ग्रेड की फिल्मो से शास्त्रीय गायन-वादन गायब है. स्पेशली इधर के 15 वर्षों से.

मुम्बईया सिनेमा संगीत चोरी करता है, नकल मारता है, और कॉपी कर लेता है. क्लासिकल उसकी समझ से परे होता है. दिमागी कमजोरी, नासमझी, नादानी से आगे की बात है.

वह जो फास्ट म्यूजिक, सुर-ताल चुराता है उसके पीछे का मानसिक दिवालियापन महसूस किया जा सकता है.

जिन वेस्टर्न धुनों को लेकर वह शातिरपना करता है वह हॉलीवुड की दुनियां का कचरा समझी जाती हैं.

पर महान संगीत जिसे कहा जाता है मुम्बईया सिनेमा उनको चुराने, कॉपी, नकल करने की भी औकात नही रखता.

आपको ‘ग्लेडियटर’ फिल्म के अंतिम दृश्य (सीन) याद है? जिसमे मैक्स (नायक) मर रहा होता है. उस संगीत को याद करिये. रोम-रोम तक एक संदेश मिल जाता है.

हमारे और उनके क्लासिकल का मिक्सचर था वह. अवतार के अलावा भी हॉलीवुड की दो सौ से अधिक हिट फ़िल्में हैं गायत्री मंत्र, या कोई श्लोक या सामवेदी जिनकी संगीत बेस थीम के रूप में रहा है. हमारे यहां उनसे नफरत पैदा की जाती है.

जोहान सेबेस्टियन बाख, लुडविग वन बीथोवेन, मोजार्ट को सार्वजनिक स्थलों, रेस्टोरेंट, ट्रेन-बसों, वाहनों में वे खूब सुनते-गाते हैं… हम भी घरो में इंजॉय करते हैं. फ्रेडरिक चोपिन, जोसफ हेडन, जोहंन्स ब्रह्मस, रिचर्ड वेगनर, टचैकोव्स्की, फ्रांज़ लिसज़्त, की तस्वीरें सजती हैं.

अनोटोनियो विवाल्डी, क्लॉउड़े देबुसस्य, फ्रांज़ स्चुबेर्ट, इगोर स्त्रविन्सकली, एंटोनिन द्वोर्क मन/मस्तिष्क के तार झंकृत करते हैं. वे अपने शास्त्रीय संगीतज्ञों को सर माथे पर बैठाते हैं. उनको समाज के साथ मीडिया, फ़िल्म जगत, शिक्षा क्षेत्र, हर जगह उच्चतर मुख्य स्थान मिलता हैं… वे सब के सब भारतीय क्लासिक को आदर्श मानते हैं.

छन्नूलाल मिश्र, रविशंकर, शिव कुमार शर्मा, पंडित जसराज, भीमसेन जोशी, कुमार गन्धर्व, गोपाल नाथ, शुभा मुदगल, गिरजा देवी को मुम्बईया सिनेमा दूर रखने की कोशिश करता रहा है.

वेस्टर्न क्लासिक के अधिकतर संगीतकार इनके दीवाने कहे जाते हैं. लगभग रोज ही पश्चिमी देशों में शास्त्रीय गायन-वादन के कार्यक्रम में भारतीय कलाकार बुलाये जाते हैं. प्रायः आयोजक सरकार या उस देश के नागरिक होते हैं. रविशंकर, पण्डित हरिशंकर चौरसिया के पास सालों तक कोई डेट नहीं मिल पाती थी. गोधई महाराज,तो भगा देते थे.

कभी आपने सुना कि उनके यहां किसी अतुल्ला-मुतुल्ला को कौवाली-सूफी गाने बुलाया जाता है??

सर्च करिये!

जो भी जाते थे बिस्मिल्ला या अल्ला-रखा, वे मूल भारतीय गाने जाते थे न कि शेरो-शायरी, गजल गाने.

वही उनकी पहचान भी थी.

मजहबी आयोजकों को छोड़ दिया जाये (शायद कभी-कभार विदेशो में बसे बुला लेते हो) तो यह सूफीपना पश्चिम में कचरे की श्रेणी में रखा जाता है.

वहीं दूसरी तरफ मुम्बइया संगीत में ए.आर रहमान, अताउल्ला ख़ान, गुलाम अली, मेंहदी हसन, मंसूर, ताफिक् कुरैशी, जिया डागर और तमाम पाकिस्तानियो के साथ-साथ मुस्लिमों की जबरदस्ती मठाधीशी और जबरदस्त पकड़ है.

कब्जेदारी का यह दौर नौशाद के जमाने से शुरू हुआ, रफी ने इसे आगे बढ़ाया. धीरे-धीरे उन्होंने मूल भारतीय विरासत को बाहर कर दिया.

आज मूल शास्त्रीय गायन-वादन के महान कलाकर गिरिजा देवी, टी.विश्वनाथन, साधना सरगम, उषा मंगेशकर, के.जे येसुदास, हरिहरन, सरस्वती विद्यार्थी, सुरेश वाडकर, हेमा सरदेसाई, बेला शेंडे, केसरबाई केरकर, समता प्रसाद, एस. जानकी, मोनाली ठाकुर, एम. जी श्रीकुमार, रविंद्र जैन, गोपाल कृष्ण, सुधीर नायक, रघुनाथ प्रसन्न, केदार पंडित, बैजू बावरा, राजन-साजन मिश्र आदि-आदि मुम्बइया फिल्मों की मेनस्ट्रीम से बाहर रह रहे शास्त्रीय कलाकार हैं.

दिल-दिमाग को झंकृत करने वाले उनके संगीत-तार अपने ही लोगों, अपनी ही भूमि, अपनी ही संस्कृति से बाहर होती जा रही है. राष्ट्र की परिभाषा तो पता है न??

कुंदन लाल सहगल, सीएच आत्मा, पंकज मलिक की शास्त्रीय गायन परम्परा को किशोर, महेंद्र कपूर और मुकेश ने संभाला…. लम्बे समय तक आशा-लता ने कोशिश की… पर खय्य्याम की ‘रुबाईयाँ’ घेरा बना रही थी न!!

सुरैया, शमशाद, जोहराबाई अम्बाले वाली… धारा ही मुख्य धारा में बदल गई. नितिन मुकेश को गायब ही कर दिया, उदितनारायण, अमित कुमार का कैरियर असमय ही खत्म कर दिया गया. बेचारा ‘अभिजीत भट्टाचार्य,….केवल एक बार ‘हकले’ के बारे सच क्या बोल बैठा… टेलीविजन शो में ‘जजी’ के लिए भी नही बुलाने दिया जाता.

आप जिन्हें देख रहे हैं वे रहमो-करम पर कमा-खा रहे. वह भी ‘उनकी’ शर्तो पर.

दुनिया भर में परम्परा संरक्षण के नाम पर उस शास्त्रीय संगीत को सम्मान दिया जाता है. कुछ लोग डीवीडी, सीडी-कैसेट खरीद लेते है. कुछ डाउनलोड कर लेते है. पर वे महान संगीतज्ञ सनातन काल चेतना का संस्कारक नही बन पाते, क्योंकि मुख्य-धारा पर किसी और का कब्जा है.

सेकुलरिज्म की धोखाघड़ी के कारण ‘वे महान’ कुछ कह पाते कुछ कह तो नही पाते पर कसक जरूर रह जाती है. अपनों के बीच पराये-पराये का बोध स्वाभाविक रूप से उत्पन्न नहीं होता है, वह बाकायदा कराया जाता है.

‘इन परकीयों’ का उद्देश्य केवल पैसा नही है. फिल्म और संचार माध्यम अब उनके हथियार है. एक आक्रमणकारी हैं. वे सीधा हमला, समझ पर… विचार-प्रवाह पर कर रहे हैं.

यह चीज आप पश्चिमी क्लासिकल जगत में नहीं पाएंगे, क्योंकि वे प्रोफेशनल और पेशे के प्रति ईमानदार हैं उनका समर्पण और कमिटमेंट मज़हबी आक्रमण न होकर कला के प्रति समर्पण हैँ.

मुम्बइया संगीतकारों/ फिल्मबाजों/ निर्माताओं, वास्तविक धन लगाने वालों में आप इसे नगण्य पाएंगे. वे अपने संगीत में बड़े शातिराना ढंग से उसमे सूफीयानापन, गजल संगीत, कव्वाली, शेर, रूमियानापन, पाकिस्तानी-उर्दू मिश्रित अलाप, अरबी-फारसी या उर्दू मिश्रित पंजाबी लहजा जबरन घुसेड़ते है.

क्या सोचते है यह अपने आप होता है?

उसे ठीक से पकड़िये.

‘सामूहिक सम्मोहन’ मनोविज्ञान का सबसे आसान सिद्धांत है. ”भीड़ के अवचेतन’ पर वह इम्पोज़ करना, जो देखने, सोचने, पूजने, व्यवहार करने का तरीका बदल दे.

मीडिया, सिनेमा, और अन्य माध्यमों से यह जो ‘शोर, उच्छृंखलता’ कानो-आँखों के रास्ते चली आ रही है, वह आपको ‘बदल’ रही है. यह युग-चेतना पर प्रहार है जो मानसिक परिवर्तन लाता है. फिर उनकी तरह की हिंसक पाशविक वृत्ति जगाने लगता है.

देश को बाँट लेने के बाद यह राष्ट्र के अस्तित्व पर अचूक-हथियारों के उपयोग का सशक्त माध्यम बन चुका है, जिससे ‘हिन्दू और हिंदुस्तान’ तबाह किया जा रहा है.

थोड़ा गौर से देखिये. धीरे-धीरे सिनेमा दृश्यों से सनातन पूजा-पद्धतियों, मन्त्र, भजन, शास्त्रीय नृत्य, उच्चारण, मंदिरों का मान-सम्मान, शंखवादन, गायब किया जा रहा है.

यहां तक की मुम्बईया फिल्मो में विवाह ‘चर्च’ पद्धति से फ्रीज हो रहे हैं. अथवा कोर्ट में या फिर सीन गायब करके दर्शाए जा रहे हैं. यह स्टैब्लिशमेंट और सीन-फ्रीजिंग का सबसे खौफनाक तरीका होता है.

धीरे-धीरे बुनियादी कलाएं, संगीत, सोचने का ढंग, अहसास, गहराई, अनुभव का तरीका बदला जा रहा है. इस ‘हथियार और आक्रमण’ की खुद लिस्टिंग करिये और पहचानिए. हजारों मिलेंगी.

टीवी चैनलों, सीरियल और कार्यक्रमों से भी इस तरह से पेश किया जाता है कि ये चीजे ‘पिछड़ी और दकियानूस’ दिखे.

हालांकि उसका एक अलग कई हजार करोड़ का बड़ा बाजार खड़ा होता जा रहा है, परन्तु उनका उद्देश्य उस बाजार को भी नुकसान पहुंचा रहा है, वह बाजार तेजी से सिमट रहा. ‘धोखे की मॉडर्निटी का शिकार युवा’ मुंह-मोड़ना शुरू कर चुका है. यह उनकी सफलता है.

‘वामी-सामी-कामी’ बड़े शातिर तरीके से हमले करते हैं. दिमाग के उस हिस्से पर वे कुछ ख़ास ‘इम्पोज़’ करते हैं, युवा जान भी नहीं पाता… थोड़ी बुद्धि का उपयोग कर उसको आप खुद समझिये. आधुनिकता के नाम पर स्वीकार करा रहे हैं और आपकी हजारों साल की ‘धरोहरों’ को नष्ट कर रहे हैं.

इस्लामिक-ईसाई-वामी टेस्ट को जबरन ‘हिंदूस्तानी सोच’ पर इम्पोज़ किया जा रहा है… बाकायदे उसके लिए ‘वे’ हिंदू हतोत्साहन प्रोग्राम चलाते हैं.

कोई समाज सामूहिक रूप से जो ‘टेस्ट’ अपनाता है वही संस्कृति है. हिंदुत्व कोई पूजा-पद्धति नहीं है, वह जीवन-प्रणाली है. उनका निशाना संस्कृति और जीवन प्रणाली दोनों हैं.

यह आक्रमण उस सतत-जीवन प्रवाह पर है जिसे आप देख भी नहीं पा रहे. पचास साल बाद आप अपने बाप-दादों का हजारों साल पुराना मूल-प्रवाह गंवा चुके होंगे.

फिर लिस्टिंग करिये ऐसी हजारों चीजें हैं जहां ‘वे’ घुस आए हैं. वरना केवल नाम बस बचेगा. आप भी इसे सीखिये.

क्रमश: 4

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