मेरी उम्र वाले शाहबानो के केस के बारे में जानते ही होंगे, मगर नई पीढ़ी को शायद इस केस के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी. अपनी किस्म का यह वाहिद ऐसा केस है जहाँ सत्तापक्ष ने उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय को संविधान-संशोधन द्वारा चुटकियों में बदलवा दिया.
नारी की अस्मिता, आत्म-निर्भरता, स्वतंत्रता और सशक्तीकरण का दम भरने वाले राजपक्ष ने कैसे वोटों की खातिर (राजनीतिक लाभ के लिए) देश की सब से बड़ी अदालत को नीचा दिखाया, यह इस प्रकरण से जुडी बातों से स्पष्ट होता है. बात कांग्रेस के शासन की है जब राजीव गाँधी प्रधानमंत्री हुआ करते थे.
“हुआ यूँ था कि शाहबानो नाम की एक मुस्लिम औरत को उसके शौहर ने 3 बार ‘तलाक़’ ‘तलाक़’ ‘तलाक़’ कहके उससे पिंड छुड़ा लिया था. शाहबानो ने अपने मियाँ जी को घसीट लिया कोर्ट में.
ऐसे कैसे तलाक़ दोगे? खर्चा-वर्चा दो. गुज़ारा भत्ता दो. मियाँजी बोले काहे का खर्चा बे? शरीयत में जो लिखा है उस हिसाब से ये लो 100 रु० मेहर की रकम के और चलती बनो.
शाहबानो बोली ठहर तुझे मैं अभी बताती हूँ और बीबी यानी शाहबानो court में चली गयी. मामला सर्वोच्च न्यायालय तक चला गया और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो के हक़ में फैसला सुनाते हुए उनके शौहर को हुक्म दिया कि अपनी बीवी को वे गुज़ारा भत्ता दें. यह सचमुच एक ऐतिहासिक और ज़ोरदार फैसला था.
भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने सीधे-सीधे इस्लामिक शरीयत के खिलाफ एक मज़लूम औरत के हक़ में फैसला दिया था. देखते-ही-देखते पूरे इस्लामिक जगत में हड़कंप मच गया. भारत की judiciary ने शरियत को चुनौती दी थी.
राजीव गांधी सरकार मुसलामान नेताओं और कठमुल्लाओं के दबाव में आ गयी और उसने फटाफट अपने प्रचंड बहुमत के बल पे संविधान में संशोधन कर supreme court के फैसले को पलटवा दिया और कानून बना के मुस्लिम औरतों का हक़ मारते हुए मुस्लिम शरीयत में judiciary के हस्तक्षेप को रोक दिया. बेचारी शाहबानो को कोई गुज़ारा भत्ता नहीं मिला.“