अच्छा सुनो दीप्ति,
मैं ये तो नहीं कहने वाला कि इंतेहा फ़िदा हूं तुम्हारी नायाब ख़ूबसूरती, हुस्नो-नज़ाकत पर. या तुम्हारा लड़कपन भी दिलफ़रेब है. या कि तुम्हारी बेमिसाल अदाकारी से मुतास्सिर रहता हूं बहुत. या अचरज से भरा कि कैसे कर लेती हो इतना कुछ – नज़्में कहना, अफ़साने सुनाना, तस्वीरें उतारना, मुसव्विर का बाना पहनकर खींचना ख़ाके, भरना रंग.
या यायावरी के रास्तों को सौंप देना अपने सांझ-सकारे. और इतना करके भी रहना ग़ैरमुमकिन, कि जैसे पानी पर हवा की अंगुली से खींची कोई लकीर हो, जिसके सिरे किसी और दुनिया में छूट रहे.
या कि तुम एक सितारा हो, पर सबसे हसीन सितारा हो, ऐसा कहके तुमसे अपनी रफ़ाकत का एक डौल क्यूं बांधूं, कि वजहों की गठरी बहुत भारी होती है (जबके तुम्हारे कांधों पर पहले ही इतना बोझ!)
कोई वजह है भी तो नहीं सिवाय इसके कि तुम अच्छी लगती हो (और ये कोई तफ़्तीश नहीं कि तुम जवाब में कुछ न कुछ कहो, पूछ नहीं रहा तुमसे कुछ, बता रहा हूं).
बस, तुमको देखा तो ये ख़याल आया के छतनार का साया हो, जिसके आग़ोश में गरचे गिरूं तो ही पनाह.
और यह कि तुम दी प ती हो, रत्तीभर भी इससे कम ज़ियादा नहीं, और सिवा इसके तुम्हें और होने को क्या है.
सुनो, तीन फ़रवरी है आज, याद ही होगा. सालगिरह मुबारक हो. 🙂
प्यार.
चश्मेबद्दूर. (Touchwood)
(पुनश्च : उस दिन ‘कथा’ में हरी साड़ी पहने देखा था तुम्हें, बालों में गुड़हल का लाल फूल लगाये इंद्रधनुष लग रही थीं. तुम्हारी यादों के कितने मोरपंख सहेज रक्खे हैं मैंने, अब इसका भी क्या बखान करूं)