हाल की फिल्म “रईस” में इंस्पेक्टर का किरदार निभा रहे नवाजुद्दीन हर बात लिख के देने की जिद करते नजर भी आ जाते हैं. यहाँ जो भारतीय लोगों ने सीखा, वो ये था कि जो लिखित में ना हो वो तो होता ही नहीं. किसी भी सरकारी कामकाज से जिसका पाला पड़ा हो उसे पता होता है.
बिलकुल यही आज के इतिहास में भी चलता है. अगर एक किताब में लिखा ना हो तो सन्दर्भ देना मुश्किल होगा. ऐसे में कोई भी या हबीबी, कह देगा कि आपका इतिहास मिथक है.
तो सवाल था किलों की मरम्मत का. अब एक बार किला बना कर बेफिक्र तो हुआ नहीं जाता होगा, थोड़ी बहुत टूट फूट होती ही रहती होगी. मौसम की मार से बचाने के अलावा उसे दुश्मनों के हमले की संभावना होने पर और भी जांचा जाता होगा.
अगर किले का कोई हिस्सा कमजोर हो तो उस जगह तोड़ कर शत्रु अन्दर घुस आएगा. समय बदला तो ये हमले सीधे सैन्य हमले तो रहे नहीं. अब प्रचार तंत्र से हमला होता है.
ऐसे में जरूरी था कि आप अपनी तरफ से इतिहास लिखवा लेते. जी हां, बड़े ही आराम से पीएचडी के शोध के छात्र-छात्राओं को कुछ मानदेय देकर उनसे किताब लिखवाई जा सकती थी दो सौ पन्ने की.
जब वो ढूंढते तो कुछ यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी से कुछ, कुछ इन्टरनेट से लेकर यानि सन्दर्भ सहित किरदारों का इतिहास लिख डालते. मगर आपने ये किया नहीं है.
या यूँ कह लीजिये कि सत्तर साल से जब हमले थोड़े धीमे हुए भी हैं तो आपने किलों की मरम्मत नहीं की है.
लिखवाइए, क्योंकि लिखा होना जरूरी है. सौ साल हमला झेलने लायक मजबूत किला ना हो तो सिर्फ आपकी सेना नहीं हारेगी. हमलावर कोई आपकी तरह धर्मयुद्ध नहीं कर रहे. वो जिहाद पर.. क्रुसेड पर हैं.
सेना को हरा कर वो औरतों, बच्चों पर टूट पड़ेंगे. उन्हें माल ए गनीमत भी चाहिए, बच्चों का बंध्याकरण कर के गिलमे भी बनाने हैं. इसलिए जो ये सोच रहे हैं कि वो लड़ नहीं रहे, नॉन-कॉम्बैटेंट हैं, वो भी सुरक्षित नहीं.
अगर आप युद्ध में मदद नहीं कर के सोच रहे हैं कि अहिंसक होने के कारण आपको “बख्शा” जायेगा, तो याद रखियेगा कि शाकाहारी होने के कारण हिरणों को भी भेड़िये “बख्श” देते हैं ना!
पीएचडी स्टूडेंट्स या अच्छा लिखने वालों को थोड़ा सा समर्थन देकर अपने पक्ष का लिखवाना सबसे आसान है.

दबे कुचले अफ्रीकियों की ओर से लिखने वाले थिंग्स फॉल अपार्ट (1958) के पुरस्कृत नाईजीरियन लेखक चिनुआ अचाबे (Chinua Achebe) ने इस सिलसिले में कहा था : जब तक शेरों के खुद के इतिहासकार नहीं होंगे, शिकार की कथाएँ शिकारियों को महान बताती रहेंगी. (until the lions have their own historians, the history of the hunt will always glorify the hunter).
बाकी इस सिलसिले में ताली बजाने लायक काम ना तो वीर क्षत्रिय समुदाय ने किया है, ना ज्ञानी ब्राह्मणों ने. व्यापार की समझ वाला समुदाय भी समझदारी नहीं दिखा पाया.
जयपुर के टूरिस्ट गाइड अब पर्यटकों को वो जगह दिखा रहे हैं जहाँ नीच भंसाली को तमाचा पड़ा था. मेरी तरफ से जयपुर के “गाइड” लोगों को साधुवाद! जय हो!