पहला स्वप्न सन्देश : बस एक शब्द का अंतर होता है अनुशासन और बंधन में : स्वतंत्रता
क्या आप जानते हैं दुनिया भर में स्वतंत्रता के लिए किस प्रतीक का सबसे अधिक उपयोग किया जाता है, वो है आसमान में स्वच्छंदता से उड़ता परिंदा…..
उड़ान को आप परिंदे का लक्षण कह सकते हैं उसे स्वतंत्रता का प्रतीक कैसे कहेंगे… क्योंकि यदि परिंदों को अपने बच्चों को स्वतंत्रता का उदाहरण देना होगा तो वो नीचे की ओर इंगित करते हुए धरती पर स्वच्छंदता से चलते मनुष्य की ओर इशारा करेगा…
दोनों ही अपनी अपनी जगह सही है..
आसमान में उड़ता हुआ पक्षी हमें स्वतन्त्र इसलिए नज़र आता है क्योंकि हम उसकी तरह उड़ नहीं पाते. इस कोशिश में मनुष्य ने पतंग बना लिए, पेराशूट बना लिए, हवाई जहाज, हेलिकोप्टर बना लिए…. लेकिन उसकी उड़ने की ख्वाहिश को वो छुपा न सका…. क्योंकि कहीं बहुत गहरे में उसे इस बात का पता है कि इंसान उड़ सकता है…. क्योंकि कहीं उसके गहरे में ये बात उसकी आत्मा में जड़ित है कि देह के बंधन से मुक्त होकर आत्मा हवा में विचरती है इसलिए उसका वो सपना कभी विराम नहीं लेता…
इसलिए उसे अपना ये शरीर हमेशा एक बंधन सा लगता है.. लेकिन उड़ान और आज़ादी के प्रतीक उस पक्षी से पूछो तो कहेगा…. ये आसमान उसके लिए बहुत बड़ा बंधन है.. जहां पर उसे दो पल सांस लेने की भी जगह ढूंढना पड़ती है…. और जगह मिलती भी है तो ज़मीन से लगे किसे पेड़ या टीले पर….
तो उसका सपना ये ज़मीन है, उसकी आजादी और स्वच्छन्दता का प्रतीक…. क्योंकि उसकी आत्मा में भी कहीं गहरे में ये जड़ित है कि एक दिन वो उस मनुष्य की उन्नत आत्मा में जन्म ले सकेगा और सुकून भरी धरती पर नंगे पैर चलने का स्वप्न पूरा कर सकेगा…. उसके लिए उसका पक्षी का शरीर उसका बंधन है…
ये जो अन्दर की कुलबुलाहट है इसी को हम कहते हैं आध्यात्मिक खोज… और चल पड़ते हैं एक आध्यात्मिक यात्रा की ओर…. ये जानने के लिए कि मैं कौन हूँ और आखिर चाहता क्या हूँ…
जो बात मुझे समझ आती है या मेरे जो थोड़े से अनुभव से जो बातें मुझे पता चली है वो यह कि जिस शरीर को हम बंधन मानते हैं, उसे यदि थोड़ा सा अनुशासित कर लिया जाए तो हर आत्मा का स्वतंत्रता का स्वप्न पूरा हो सकता है… जी हाँ हवा में उड़ने का भी….
[ मेरे गुरु श्री एम की पुस्तक हिमालयवासी गुरु के साये में – एक योगी का आत्मचरित पढ़ते हुए जो सबसे पहला सन्देश उन्होंने 5 दिसम्बर 2015 की सुबह मुझे स्वप्न में आकर दिया वो यह था – सवाल तो सबके मन के एक से ही होते हैं, बस उनके जवाबों की यात्रा सबकी अलग-अलग होती है.]
दूसरा स्वप्न सन्देश : मन अरफा नफ्शु, फ खद अराफा रब्बु
किसी विशेष उद्देश्य के लिए यदि किसी शुद्ध शाकाहारी को किसी अन्य मज़हबी के साथ बैठकर मटन भी खाना पड़े तो यहाँ भोजन के लिए नापे जाने वाले पाप पुण्य के तराज़ू का काँटा टूट जाता है. क्योंकि ऊपरवाले की परम योजना के आगे धरती के सारे नियम गौण हो जाते हैं.
पुस्तक के बहुत आख़िरी के पन्नों पर लिखे एक किस्से का उदाहरण मुझे यहाँ देना पड़ रहा है क्योंकि मेरा स्वप्न इसी से जुड़ा हुआ है.
श्री एम को उनके गुरु “बाबाजी” एक सूफी संत से मिलवाते हैं…. रूहानी व्यक्तित्व वाले सूफी संत, सूफियाना महफ़िल के बाद भोजन के लिए श्री एम और बाबाजी को मज़ाक में कहते हैं –
” बाबाजी आप तो घास-फूस ही खाएंगे इसलिए आपके लिए अलग से शाकाहारी भोजन बनवाया है, फिर श्री एम की तरफ मुखातिब होकर कहते हैं, नौजवान अगर तुम भी शाकाहारी हो तो उसे ले सकते हो.”
श्री एम बताते हैं बाबाजी ने मुझे यह कह कर चकित कर दिया, “आज हम लोग मटन बिरयानी और कबाब खाएंगे.”
उसके बाद श्री एम उन सूफी संत शाह बाबा के शिष्य बन कर तीन हफ़्तों तक रहे.
Sri M के शब्दों में –
“पहले कुछ दिनों मुझे सूफीवाद का दर्शन और सिद्धांत पढ़ाए गए और सूफियों के विभिन्न सम्प्रदायों के बारे में भी बताया गया. बाकी समय में मुझे सूफियों द्वारा प्रयुक्त तकनीकें सिखाई गईं. मैंने जाना कि इस्लाम के संस्थापक ने, अन्य बातों के साथ यह भी कहा था “मन अरफा नफ्शु, फ खद अराफा रब्बु”, अर्थात जो अपने आपको जानता है वह अपने भगवान को भी जानता है.
मैंने जाना कि “खल्ब” या आध्यात्मिक ह्रदय का क्या मतलब था और उसे अपने में कैसे जगाया जाये.
मुझे जलालुद्दीन रूमी द्वारा स्थापित मेव्लावी के गोल-गोल फिरकैंया लेकर नाचने वाले दरवेशों के बारे में बताया गया और यह भी कि वे कैसे और क्यों लट्टू की तरह चक्कर काटते हैं.
रूमी की शायरी की किताब मसनवी का संक्षिप्त परिचय दिया गया और उनकी गद्य पुस्तक “फिही मा फिही ” का भी, जिसका मोटा-मोटा अनुवाद होगा… “यह है और फिर नहीं भी.”
यूं तो Sri M ने और भी बहुत सारे रहस्यमयी शिक्षाओं का ज़िक्र किताब में किया है लेकिन इस लेख के समापन से पहले मैं उस सपने की बात पर आती हूँ जिससे मैंने ये लेख शुरू किया था –
एक बहुत लंबा जुलूस है… मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग एक के पीछे एक हाथ में तरह तरह की खाद्य सामग्रियों का प्रसाद लिए चले जा रहे हैं… मैं जुलूस में सबसे आगे हूँ और पीछे की ओर चलकर जुलूस के अंतिम छोर पर पहुँचती हूँ तो देखती हूँ, श्री एम अन्य लोगों की तरह अपने दोनों हाथ की हथेलियों को जोड़े मेरे लिए कुछ लिए जुलूस के साथ साथ चल रहे हैं… कोई पहाड़ी क्षेत्र है या ठण्ड का मौसम है जिसकी वजह से धुंध छाई हुई है समझ नहीं आ रहा कि सूर्योदय का समय है या सूर्यास्त का.
मैं श्री के पास पहुंचकर कृतज्ञता के आंसू आँखों में भरकर कहती हूँ… ये सब कुछ आप मेरे लिए कर रहे हैं!!! और वो हमेशा की तरह अपनी मोहक मुस्कान बिखेर देते हैं….
तीसरा स्वप्न सन्देश : रंग दे तू मोहे गेरुआ
आत्मा की खोज मन की अकुलाहट से होती हुई देह की प्रस्तुति तक आ जाती है…
अचंभित होती हुई आँखों के बीच से गुज़रकर बिखरी हुई बातों को समेटने में कई दिन लग जाते हैं… मौन की सहमती के बीच फुसफुसाहट की उत्सुकता भी अपना काम बखूबी करती जाती है…
ऐसे में दो दिन पहले रात की गहरी नींद के बाद सुबह का पहाड़ों वाला सपना और दूर के दृश्यों का बिल्लोरी कांच से गुज़रकर आँखों के सामने आ जाना… मुझे सातवें आसमां पर बिठा दिया है….
दिन भर में धीरे धीरे आसमां से नीचे उतर कर उस पहाड़ी पर आकर यादें टिक गयी है जहां गेरू में लिपा छोटा सा घर सफ़ेद चूने के साथ मिलकर पुराने किसी जन्म की सौंधी यादों का स्वाद चखा गया है….
मन की अकुलाहट प्रार्थना में बदल रही थी…. तभी कुछ यूं हुआ जिन रास्तों से पिछले तीन सालों से गुज़रते हुए कभी किसी पीर या मौलवी नुमा शख्स को नहीं देखा वहीं एक हरे कपड़े को चार कोनों से पकड़े चार लोग चले आ रहे थे… जैसे ही उनके करीब से गुज़री एक ने अपना मोरपंख उठाकर स्वागत भरी नज़रों से देखा…. मेरी आँखें चमक गयी..
स्वामी ध्यान विनय ने पूछा- “पहचान लिया….”
मैंने श्री एम को धन्यवाद सी मुस्कराहट दी… बहुत दिनों से सपने में नहीं आए थे आज अपना दूत भेज दिया …
चौथा स्वप्न सन्देश : बस इतनी इजाज़त दे कदमों पे ज़बीं रख दूं… फिर सर ना उठे मेरा ये जां भी वहीं रख दूं…
23 जनवरी से 27 जनवरी 2017 के बीच हुई मेरी गुजरात यात्रा के बाद इतना कुछ एक साथ घटित हो रहा है कि मैं उलझन में पड़ी रहती हूँ क्या व्यक्त करूं क्या अव्यक्त रहने दूं…
इन अनुभवों के बीच कई बार ख़याल आया जैसे मैं श्री एम को भूल रही हूँ… फिर लगा नहीं इसे भूलना नहीं कहते… श्री मेरी आत्मा का वो हिस्सा है जो सारी व्यस्तताओं के बीच भी उपस्थित है, जो यादों में भी उपस्थित है, वो वहां भी उपस्थित है जिसे भूल जाना कहते है… तू मेरे रूबरू है.. हर वक्त हर पल…
कल वसंत पंचमी का दिन था… माँ सरस्वती के आशीर्वाद के साथ प्रेम के उत्तंग शिखर पर विराजमान थी…. और रात ढलने के साथ जो स्वप्न प्रारम्भ हुआ वो सुबह उठने तक चलता रहा…. और पूरे स्वप्न के दौरान मैं श्री एम के चरणों में अपना मस्तक रख रोती रही… रोती रही… ह्रदय में प्रेम और आँखों में कृतज्ञता के आंसू लिए… और ज़हन में एक गीत गूँज रहा था …. बस इतनी इजाज़त दे कदमों पे ज़बीं रख दूं… फिर सर ना उठे मेरा ये जां भी वही रख दूं…
इस गीत से पहला परिचय भी स्वामी ध्यान विनय ने ही करवाया था उन दिनों जब मैं इंदौर में रहती थी और वो जबलपुर में और हमने एक दूसरे को देखा तक नहीं था और सिर्फ ईमेल के ज़रिये या फोन के ज़रिये बात करते थे….
और मैं इस गीत के साथ उस परमात्मा के सामने पूरी एक प्रार्थना में परिवर्तित हो जती थी और बार बार इस गीत की यही पंक्ति दोहराती थी… ‘इस बार’ तो दीदार दे….
आज सुबह फेसबुक में लॉग इन हुई तो पिछले साल की मेमोरी में श्री एम के फोटो के साथ यही गीत की पंक्तियाँ लिखी थी…. एक अद्भुत आध्यात्मिक गीत, दलेर मेहंदी की आवाज़ में… अवश्य सुनिये… तू मेरे रूबरू है….
https://www.youtube.com/watch?v=oxYUFUKkt28
Sri M – 4 : आप में शिष्यत्व है तो प्रकृति का गुरुत्व प्रकट होगा ही