मछलियों की गंध से भरे
उस जज़ीरे पर
जहां बालू-बजरी का देश
पानी से हिला-मिला
पानी का काई से.
जहां मलाड की खाड़ी
अपने उधड़े हुए दस्तानों के साथ
बिछली रहती थी मढ आइलैंड को
वर्सोवा के कछार से अलगाते
नावों के पुल के उस पार.
जहां कोलियों की बस्तियां हैं
रोमन कैथोलिकों के गिरजे
मढ का किला, पाट वाडी
मोगारा का नाला, मनोरी की क्रीक
और, ईरेन्गल बीच पर जहां
संत बोनावेंचर का प्रार्थनागृह.
कोलीवाड़ा नहीं
पास्कल वाड़ी से भी आगे
भाटीगांव के उधर
चांदी की रेत के किनारे पर
मानसून की रातों में
काला लबादा ओढ़े एक साया-सा
जहां टहलता था इतने आहिस्ता-से
नम नमकीन हवा पर तिरते
कि क़बूतरों की नींद में भी
पड़ता नहीं था ख़लल.
बस ऊंघता हुआ समंदर
करवट बदलकर देखता था एकबारगी
और सो जाता था ओढ़कर
नमक की जरी वाला
लहरों का पश्मीना.
समुद्र को काई से
अलगाती थी रेत.
रेत को धरती से
अलगाता था दलदल
जो एक दफ़े निगल गया था
एक बच्चे की गीली हंसी
एक ऊंट की ख़ुश्क़ जीभें.
वर्सोवा की सैकड़ों छतों पर
जहां दिनों की सलाइयों ने बुने थे
धूप छांह के अनगिन पैटर्न
वहां केवल पोस्टल एड्रेस था तुम्हारा जहां पहुंचती थीं चिट्ठियां
अगरचे लिखा जाए उन पर तुम्हारा पूरा नाम सही सही
और चस्पा किए जाएं बारह रुपयों के टिकट.
लेकिन तुम हमेशा रहती थीं दूसरे छोर पर
नावों के पुल के उस पार
अपने दूसरे घर में अपने तमाम दूसरे घरों की तरह
जबकि हर घर एक उनींदा पड़ाव था.
जहां मोमबत्तियां सुबकती थीं
काठ के दरवाज़े खड़खड़ाते थे
और क़तार में बिछी रहती थीं बेन्चें
देवताओं, अपराधियों और प्रेमियों
के लिए समय के अंत तक
प्रतीक्षारत.
मुझे भी जाना है –वहीं पर मुल्क है
मेरा भी तो.