सिरहाने रखते हैं, बक्से में बंद रखते हैं, या रखते ही नहीं तलवार… बराबर लगी है दुश्मन की नज़र

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे ज्यादा हल्ला वामपंथी ही करते हैं… और इससे बड़ा विद्रूप और कुछ नहीं हो सकता…

स्टालिन के अपने शासन काल में कुल 2.7 करोड़ लोग बिलकुल गायब हो गए… कितनी ही ज़िन्दगियां साइबेरिया की गुमनामी में खो गयीं, बेनाम कब्रों में हज़ारों लोग एक साथ दफना दिए गए… और हमारे कॉमरेड लोग सारी दुनिया की दीवारें लाल पेंट से आज़ादी के नारों से रंगते रहे.

[जिन्हें पॉपकॉर्न खाते हुए सिर्फ फिल्म देखने से मतलब है वो इसे बिलकुल ना पढ़ें]

उस काल में रूस में एक पुस्तक लिखी गयी – डॉ ज़िवागो. इसमें रूसी क्रांति में क्रांति के वाहक रहे एक संवेदनशील डॉक्टर का दर्द बयान किया गया है.

पश्चिमी दुनिया ने इस किताब को हाथों हाथ लिया और उसके लेखक बोरिस पास्तरनाक को नोबेल पुरस्कार भी दे दिया, पर वो स्टालिन की आँखों में खटक रहे थे.

पास्तरनाक को जेल भेजने से पहले स्टालिन ने देश के सजग प्रबुद्ध साहित्यकारों बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया जानने, उनकी प्रतिबद्धता और साहस को नापने का फैसला किया.

पास्तरनाक के परम मित्र एक और साहित्यकार के पास बीच रात में एक फ़ोन आया. ऑपरेटर ने कहा, कॉमरेड स्टालिन आपसे बात करना चाहते हैं.

इससे पहले कि वह नींद से जगे, दूसरी ओर से स्टालिन की रोबदार आवाज ने एक सीधा सवाल किया – बोरिस पास्तरनाक के बारे में आपको क्या कहना है?

स्टालिन का नाम सुनकर सकपकाये उनके मित्र के मुंह से हड़बड़ी में बस उल्टा सीधा निकलने लगा… वह अच्छा आदमी है, बहुत ही अच्छा कवि है… पर मैं उसकी हर बात से सहमत नहीं हो पाता हूँ… मतलब मैं उसे समझाता हूँ, उसे सोच समझ कर बोलना चाहिए… मतलब… मेरा मतलब है… वगैरह वगैरह…

वह व्यक्ति अभी अपना रिस्पांस सोच ही रहा था कि स्टालिन ने कहा – बहुत धन्यवाद! अब सो जाइये…

तब जाकर उसकी नींद खुली… उसे समझ में आया, स्टालिन, पास्तरनाक के बारे जानने में इंटरेस्टेड नहीं था… वह यह जानना चाहता था कि जब वह पास्तरनाक को जेल में डालेगा तो उसके साथ कोई खड़ा होगा या नहीं… और जब उसका निकटतम मित्र ही अगर-मगर कर रहा है तो दूसरा कौन खड़ा होगा…

मगर तब तक देर हो चुकी थी. सुबह होने से पहले पास्तरनाक को गिरफ्तार किया जा चुका था, और साइबेरिया भेज दिया गया था…

उसके मित्र ने तुरंत विरोध किया, स्टालिन को बहुत कड़ा पत्र लिखा, प्रेस में बयान दिया, लेकिन स्टालिन को पता था कि उसके विरोध में प्रतिबद्धता नहीं थी… वह सिर्फ अपनी औपचारिकता कर रहा है. जो उसके दिल में था, वह स्टालिन ने उसके मुंह से आधी नींद में सुन लिया था…

एक लड़की है आशु परिहार… मुझे पता नहीं था कि उसने सही-सही कहा क्या है, पर कुछ है जिसको लेकर वह समस्या में है.

आज सुबह मैंने पोस्ट डाल कर लोगों से पूछा, तो कुछ उत्तर आये… बेवकूफी कर गयी… जोश में ज्यादा बोल गयी… नहीं बोलना चाहिए था…

अब मुसलमान पिल पड़े. सबको कमलेश तिवारी जी का किस्सा याद ही था. आपको पता है, मुसलमान को नींद से भी जगा कर पूछो तो आपसे लड़ने के लिए तलवार लेकर खड़ा हो जायेगा…

पर हिन्दू समाज आशु परिहार या कमलेश तिवारी के लिए नहीं खड़ा होगा. उसे संविधान याद आएगा, अहिंसा बेन और शांतिबाई याद आएँगी, गांधीजी की बकरी मिमियाने लगेगी.

कट्टर से कट्टर हिन्दू की पहली प्रतिक्रिया यह नहीं होती है… सही या गलत, मैं साथ हूँ… क्योंकि हमें भी लगता है, साथ देने निकले तो अकेले पड़ जायेंगे.

भाई, अपनी पहली प्रतिक्रिया सोच समझ कर दीजिए… वही निकलेगा जो हमारे अंदर है… अगर अंदर डर है तो पहला रिएक्शन डर का ही होगा…

और दुश्मन हमारी पहली प्रतिक्रिया को ध्यान से देख रहा है, हमारी प्रतिबद्धता माप रहा है… उसकी नज़र है कि हम तलवार सिरहाने रख कर सोते हैं, बक्से में बंद करके रखते हैं, या घर में है ही नहीं…

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