किसने चुकाई गाँधी के हिन्दू-मुस्लिम एकता प्रयासों की कीमत

6 मार्च 1919 को गांधी ने पूरे देश में रॉलेट एक्ट के विरोध का आह्वान किया. अपनी सभा में गांधी ने लोगों से प्रतिज्ञा लेने को कहा.

उन्होंने कहा ‘’भगवान को साक्षी मानकर, हम हिन्दू और मुसलमान यह घोषणा करते हैं कि हम एक ही माता-पिता की सन्तान की तरह आपस में व्यवहार करेंगे, हम आपस में कोई मतभेद नहीं रखेंगे, हममें से एक का दुःख बाकी सभी का दुःख होगा और हममें से प्रत्येक उसे दूर करने की कोशिश करेगा. हम एक-दूसरे के धर्म और धार्मिक भावनाओं का आदर करेंगे और एक-दूसरे के धार्मिक रीति रिवाजों में किसी प्रकार की बाधा नहीं डालेंगे. हम धर्म पर एक दूसरे के विरुद्ध हिंसा करने से बचेंगे.’’

गाँधी द्वारा लोगों को दिलाई गयी इस प्रतिज्ञा से स्पष्ट होता है कि वो हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे, लेकिन जब भी परीक्षा की घड़ी आती तो उनकी इस एकता की कसौटी पर हिन्दुओं को ही खरा उतरने का कहा जाता था.

गाँधी ने हिन्दुओ से कहा, ‘’हिन्दुओं को मुसलमानों का साथ किस सीमा तक देना चाहिए. इसीलिए यह बात अपनी भावनाओं और अपनी राय की होती है. एक न्यायपूर्ण कार्य के लिए तो यह उपयुक्त है कि हम मुस्लिम भाइयों की खातिर अधिकतम कष्ट उठायें. जब तक उनके द्वारा अपनाए गये उपाय शुद्ध होंगे, मैं मुसलमानों की भावनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता. मैं तो उनके इस वक्तव्य को स्वीकार कर लेता हूँ कि खिलाफत उनके लिए इस दृष्टि से धार्मिक प्रश्न है कि वे अपनी जान पर खेलकर भी उस लक्ष्य तक पहुंचने की कोशिश करेंगे.’’

गाँधी के इस वक्तव्य को पढ़ते वक्त ध्यान देने वाली बात है वो ‘अहिंसा’ के पुजारी थे. दरअसल यह वक्तव्य उन्होंने हिन्दुओं को खिलाफत आन्दोलन में मुसलमानों को समर्थन करने के लिए दिया था.

खिलाफत आन्दोलन भारत में मुसलमानों द्वारा चलाया गया धार्मिक आन्दोलन था. इस आन्दोलन का उद्देश्य तुर्की में खलीफा के पद की पुनर्स्थापना कराने के लिये अंग्रेजों पर दबाव बनाना था.

तुर्की का खलीफा संपूर्ण मुस्लिम जगत का धार्मिक नेता माना जाता था. प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने इंगलैण्ड के खिलाफ जर्मनी का साध दिया था इसलिए भारतीय मुसलमानों को डर था कि युद्ध के बाद अंग्रेज तुर्की से अवश्य बदला लेंगे.

वास्तव में युद्ध के बाद अंग्रेजों ने तुर्की साम्राज्य का अंत कर दिया. इसी के चलते भारतीय मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ खिलाफत आंदोलन शुरु किया जिसका उद्देश्य तुर्की के खलीफा की शक्ति की पुनर्स्थापना था.

महात्मा गाँधी ने भी इसका समर्थन किया. उन्होने संपूर्ण देश का दौरा किया. तुर्की में खलीफा के पद को बचाने के लिए गांधी हिन्दुओं से मुसलमानों को किसी हद तक समर्थन करने को कह रहे थे.

गाँधी का मानना था कि इससे हिन्दू मुस्लिम एकता बढ़ेगी. जिस असहयोग आंदोलन को स्वराज्य प्राप्ति का आन्दोलन बताया जाता है, उसका उद्देश्य खिलाफत को सफल बनाना था.

खिलाफत-वादियों ने तुर्की की सहायता के लिए इसे शुरू किया था और कांग्रेस ने उसे खिलाफत वादियों की सहायता के लिए अपनाया था. हिन्दुओं को खिलाफत से जोड़ने के लिए असहयोग आन्दोलन चलाया गया.

27 अक्टूबर 1919 को खिलाफत आन्दोलन की शुरुआत हुई. इसके सम्मेलन में मुसलमानों ने अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि क्या असहयोग करके अंग्रेज सरकार को खिलाफत की गलती से दूर करने के लिए विवश किया जा सकता है.

इसके बाद कलकत्ता में 10 मार्च 1920 को खिलाफत सम्मेलन हुआ और उसमें फैसला किया गया कि आन्दोलन के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए असहयोग आन्दोलन सर्वोतम हथियार है.

इलाहाबाद में 3 जून 1920 को खिलाफत आन्दोलनकारियों और हिन्दुओं की बैठक हुई जिसमें मोतीलाल नेहरु, ऐनी बेसेंट भी शामिल हुए थे. हालाँकि हिन्दुओं ने खिलाफत के सहयोग के लिए इंकार किया, लेकिन गाँधी अकेले थे जो मुस्लिम के साथ थे, यहाँ तक कि खिलाफत में उनका नेतृत्त्व भी किया.

इलाहाबाद में 9 जून 1920 को हुए खिलाफत सम्मेलन में भी असहयोग आन्दोलन का सहारा लेने की बात कही गयी. इलाहाबाद में 30 जून 1920 को खिलाफत आन्दोलन कमेटी की बैठक में वायसराय को एक महीने का नोटिस देकर असहयोग आन्दोलन शुरू करने का निर्णय लिया गया.

1 जुलाई, 1920 को वायसराय को नोटिस दिया गया और 1 अगस्त, 1920 से असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ. गाँधी ने भी इसी दिन वायसराय को एक पत्र लिखकर कहा कि खिलाफत आन्दोलन न्यायपूर्ण हैं और खिलाफतवादियों की मांग पूरी करना क्यों जरुरी है.

यह सभी बातें दर्शाती हैं कि असहयोग आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य स्वराज नहीं, खिलाफत को समर्थन देना था. कांग्रेस ने भी इस खिलाफत आन्दोलन को बढ़ाने में मुसलमानों की सहायता के रूप में स्वीकार किया.

कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया, “यह प्रत्येक गैर मुस्लिम हिन्दुस्तानी का फर्ज है कि वो प्रत्येक वैध तरीके से मुस्लिम भाइयों की इस घोर धार्मिक विपत्ति को दूर करने में सहायता करे.’’

जब देश अंग्रेजो के खिलाफ भारतीय होने के नाते लड़ रहा था, तब गांधी भारतीयों में एक वर्ग को मुसलमान बना रहे थे, उसे धर्म के नाम पर लड़ना सिखा रहे थे. जब असहयोग आन्दोलन शुरू तब गाँधी ने ठोस कदम उठाते हुए अपना पदक भी वापस किया.

गाँधी ने अपने पूरे प्रभाव से कांग्रेस से असहयोग आन्दोलन को अपनाने और खिलाफत को मजबूत करने का आग्रह किया. सितम्बर 1920 में गाँधी ने खिलाफत आन्दोलन के जन्मदाता अली बंधुओं के साथ पूरे देश का दौरा किया और उन्हें असहयोग आन्दोलन का महत्व समझाया.

गाँधी ने 20 अक्टूबर 1921 के ‘यंग इण्डिया’ में लिखा, ‘‘हम दोनों के लिए खिलाफत केंद्र बिंदु है. मुहम्मद अली के लिए इसीलिए कि यह उनका धर्म है, मेरे लिए इसलिए कि खिलाफत के लिए जान देकर मैं मुसलमानों के चाकू से गाय की सुरक्षा सुनिश्चित करता हूँ, क्योंकि यह मेरा धर्म है.’’

खिलाफत के समर्थन में चल रहे इस असहयोग आन्दोलन पर हिन्दुओं के तीन गुट थे, इनमें से एक इस आन्दोलन का विरोधी था, दूसरा समर्थन देने को तैयार था लेकिन उसकी शर्त थी कि मुसलमान गौ हत्या छोड़ दें, तीसरा गुट ऐसे हिन्दुओं का था जिन्हें आशंका थी कि मुसलमान असहयोग का उपयोग अफगानिस्तान को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण देने के लिए न कर दें क्योंकि फिर स्वराज नहीं मुस्लिम राज आयेगा.

गाँधी ने इस मामले में कहा, “मेरा निवेदन है कि हिन्दुओं को यहाँ गौरक्षा का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए, दोस्ती की कसौटी यह होती है कि मुसीबत पड़ने पर सहायता की जाए और वह भी बिना किसी शर्त. किसी सहयोग में शर्ते लगाई जाएं, वह मित्रता नहीं होती इसके विपरीत यह तो व्यापारिक समझौता होता है. सशर्त सहयोग मिलावटी सीमेंट जैसा होता है जिससे कुछ जुड़ता नहीं.”

गांधी ने कहा, “यह हिन्दुओं का कर्तव्य है कि यदि मुसलमानों की मांग उन्हें न्यायपूर्ण लगे, उन्हें सहयोग दें. यदि मुसलमान स्वयं अनुभव करें कि उन्हें हिन्दुओं की भावना का आदर करना चाहिए तो उन्हें गौहत्या बंद कर देनी चाहिए. भले ही हिन्दू उन्हें सहयोग दे या न दें. इस तरह, यद्यपि मैं गाय की पूजा करने में किसी भी हिन्दू से कम नही हूँ पर सहयोग देने पूर्व गौहत्या बंदी की शर्त नहीं लगाना चाहता. बिना शर्त सहयोग देने का निहितार्थ ही है गाय की रक्षा करना.’’

गांधी ने तीसरे गुट जो अफगानिस्तान के आक्रमण के कारण असहयोग आन्दोलन में शामिल नहीं हो रहा था, उनको कहा, ‘’हिन्दुओं की आशंका को समझना और उसे उचित ठहराना बहुत आसान है. इस्लामी और अंग्रेज़ी शक्तियों का आपसी युद्ध क्षेत्र बनने से रोकने का सर्वोत्तम उपाय हिन्दू द्वारा असहयोग आन्दोलन को तत्काल और पूर्णतः सफल बनाना है और मुझे इस बारे में रत्ती भर भी संदेह नहीं है कि मुसलमानों के अपने घोषित विचारों पर डटे रहने और अपने ऊपर नियन्त्रण रखने तथा त्याग करने की स्थिति में हिन्दू भी इस कार्य में और असहयोग आन्दोलन में उनका साथ दें.”

गांधी ने कहा, “इस बारे में भी मैं पूर्णतः निश्चित हूँ कि हिन्दू, मुसलमानों की इस काम में कभी मदद नहीं करेंगे कि वे अंग्रेज सरकार और उसके मित्रों तथा अफगानिस्तान के बीच सशस्त्र संघर्ष उत्पन्न करने या उसे बढ़ावा देने के कार्य में हिन्दुओं की ओर से मुसलमानों को कभी भी कोई सहायता नहीं मिलेगी. ब्रिटिश सेनाएं इतनी सुसंगठित हैं कि हिंदुस्तान की सीमाओं पर कोई भी आक्रमण सफल नहीं होने देगी. इसीलिए मुसलमानों के सामने इस्लाम की इज्जत की रक्षा हेतु अंग्रेजो के प्रभावी संघर्ष के लिए पूरी निष्ठा व शक्ति के साथ असहयोग आन्दोलन चलाना ही एकमात्र विकल्प है और आन्दोलन व्यापक पैमाने पर चलाए जाने पर पूरी तरह प्रभाव होगा और इससे व्यक्ति के अंतर्मन की आवाज सुनाई देगी.”

गांधी ने कहा, “जब मै किसी व्यक्ति या संगठन के अन्याय को सहन नहीं कर सकता और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उस व्यक्ति या संगठन का समर्थन करता हूँ तो इसके लिए अपने नियंता के सामने जवाबदेही बनती है. परन्तु मैंने दोषियों को भी हानि नहीं पहुँचाने वाले आचार संहिता का इतनी कड़ाई से पालन किया है, जितनी मनुष्य कर सकता है इसीलिए इतनी बड़ी सख्ती का प्रयोग करने में कोई जल्दीबाजी नहीं की जानी चाहिए, कोई क्रोध नहीं दिखाया जाना चाहिए.”

गांधी ने कहा, “असहयोग आन्दोलन की निश्चित रूप से ऐसा स्वैच्छिक प्रयास ही बने रहना देना चाहिए. सारी बात मुसलमानों पर निर्भर करती है. मुस्लिम अपनी सहायता करेंगे तो उन्हें हिन्दुओं की सहायता मिलेगी ही और सरकार को, भले ही वह कितनी बड़ी और ताकतवर क्यों न हो, समूचे राष्ट्र के रक्तहीन विरोध के सामने झुकना ही पड़ेगा.”

मुसलमानों ने गाँधी की सलाह अनसुनी करके अहिंसा के सिद्धांत की पूजा करने से इंकार कर दिया. हिन्दुओं को जो आशंका थी वही हुआ और अफगानों को भारत पर हमला करने का निमन्त्रण दिया गया. यह जानना सम्भव नहीं कि खिलाफतवादियों ने किस हद तक अफगानिस्तान के अमीर से सलाह-मशविरा किया लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत पर हमला करवाने की यह सुनियोजित और खतरनाक योजना थी.

इस योजना से गांधी ने खुद को अलग नहीं रखा. इसके विपरीत स्वराज पाने के भ्रांतिपूर्ण उत्साह और हिन्दू-मुस्लिम एकता की सनक के कारण, क्योंकि वही उसका एकमात्र तरीका लगता था, गाँधी इस योजना को समर्थन देने को तैयार हो गये.

उन्होंने कहा, ‘’अफगानिस्तान का अमीर ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध युद्ध करता है तो एक तरह से मै उसकी निश्चित सहायता करूँगा. दूसरे शब्दों में अपने देशवासियों को खुल्लमखुल्ला यह बताऊंगा कि जो सरकार राष्ट्र का विश्वास खो चुकी है उसे सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं और ऐसी सरकार को सहायता देना एक अपराध होगा.’’

क्या कोई समझदार व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम एकता की खातिर इतनी दूर जा सकता है? परन्तु गाँधी हिन्दू-मुस्लिम एकता पर इतने आसक्त थे कि उन्होंने यह समझने की तकलीफ नहीं की कि पागलपन भरे इन कामों से वह असल में क्या करने जा रहे हैं? सच्चे ढंग से हिन्दू-मुस्लिम एकता की नींव डालने के लिए गांधी इतने उत्सुक थे कि राष्ट्रीय संकट के बारे में अपने अनुयायियों को सलाह देना नहीं भूले.

गाँधी ने 8 सितम्बर, 1920 के ‘यंग इण्डिया’ में लिखा, ‘मुझे अपने मद्रास दौरे के दौरान बेजवाडा में राष्ट्रीय संकट की चर्चा करने का मौका मिला और मैंने सुझाव दिया कि हमें व्यक्तियों की जगह आदर्शों के नारे लगाने चाहिए. मैंने अपने श्रोताओं से कहा है कि ‘गाँधी की जय, मुहम्मद अली की जय, शौकत अली की जय’ की जगह हमें ‘हिन्दू मुस्लिम की जय’ बोलना चाहिए.”

गांधी ने आगे लिखा, “मेरे बाद के वक्ता भाई शौकत ने इसके बारे में पक्का नियम बना दिया है. उन्होंने कहा हिन्दू मुस्लिम एकता के बाबजूद हिन्दू वन्दे मातरम् बोलते हैं तो मुस्लिम अल्लाह हू अकबर बोलते हैं और इसके विपरीत भी होता है. उन्होंने ठीक ही कहा कि कानों को बड़ा खराब लगता है और यह दिखाता है कि लोग एक ही तरह से नहीं सोचते. इसीलिए केवल तीन ही नारे स्वीकार किये जाने चाहिए. हिन्दुओं और मुसलमानों को ख़ुशी-ख़ुशी ‘अल्लाह हू अकबर’ बोलना चाहिए, जो यह दिखाता है कि केवल ईश्वर ही बड़ा है और कोई नहीं. दूसरा नारा होना चाहिए ‘वंदेमातरम्’ – हमारी ‘मातभूमि या भारत माता की जय’. तीसरा नारा होना चाहिए -’हिन्दू मुस्लिम की जय’. इसके बिना भारत की विजय नहीं हो सकती और न ही भगवान की महानता का दर्शन हो सकता है.

गांधी ने लिखा, “मैं भी चाहता हूँ कि अख़बारों और जननेताओं को मौलाना के सुझावों को अपनाना चाहिए. ये बड़े सार्थक नारे हैं. पहले तो यह प्रार्थना है और यह स्वीकार करना है कि हम बहुत ‘लघु’ हैं और इस तरह यह विनम्रता का प्रतीक है. यह एक ऐसा नारा है जो सभी हिन्दुओं और मुसलमानों को बड़े आदरपूर्वक और विनम्रता से लगाना चाहिए. हिन्दुओं को अरबी शब्दों को लेकर नहीं लड़ना चाहिए क्योंकि उनका अर्थ न केवल पूरी तरह आपत्तिविहीन है बल्कि महानतापूर्ण है. भगवान किसी विशेष भाषा का आदर नहीं करते.”

”वंदेमातरम् का बहुत सी बातों से घनिष्ठ सम्पर्क होने के नाते मैं एक ही राष्ट्रीय इच्छा प्रकट करता हूँ – हिंदुस्तान अपनी पूरी ऊँचाइयों तक उठे और मैं भारत माता की जय की जगह वंदेमातरम् की प्राथमिकता दूंगा क्योंकि इसमें द्वारा हम बौद्धिक और भावनात्मक दृष्टि से बंगाल की श्रेष्ठता को मान लेते हैं और ‘हिन्दू और मुसलमान की जय’ एक ऐसा नारा है जो हमे कभी नहीं भूलना चाहिए.’’

”इन नारों के बारे में कोई भी मतभेद नहीं होना चाहिए. जैसे ही कोई इन तीनों में से एक भी नारा लगाये तो केवल अपना प्रिय नारा बोलने की जगह सभी को बाक़ी नारे भी बोल देने चाहिए. इसमें शामिल नहीं होने वाले महानुभाव भले ही नारा न लगायें परन्तु जब एक नारा लगाया जा रहा हो तो उसके बीच में अपना नारा लगाना तहजीब के खिलाफ माना जाना चाहिए. बेहतर तो यही कि तीनों नारे एक के बाद एक, इस तरह लगाये जाएँ जैसा ऊपर दिया गया है.“

हिन्दू-मुस्लिम एकता बनाने के लिए गाँधी ने सिर्फ यही बातें नहीं की बल्कि उन्होंने मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरूद्ध घोर अपराध किये जाने पर भी मुसलमानों से उसके कारण नहीं पूछे.

इन लोगो की हत्याएं भावनाएं भडकने के आरोप में की गईं. स्वामी श्रद्धानंद को 23 सितम्बर, 1926 को अब्दुल रशीद ने गोली मारी. श्रद्धानंद उस वक्त बीमारी के कारण बिस्तर पर थे, जिसके कुछ समय बाद रशीद को फांसी की सजा हुई.

श्रद्धानंद के बाद दिल्ली के प्रसिद्ध आर्यसमाजी नानकचन्द की हत्या हुई. ‘रंगीला रसूल’ (पैगम्बर के खिलाफ लिखी गयी किताब) के लेखक राजपाल का 6 अप्रैल 1929 में कत्ल किया गया.

यहाँ बताना ज़रुरी है, ‘रंगीला रसूल’, एक मुस्लिम द्वारा लिखित ‘सीता का छिनाला’ पैम्फलेट की प्रतिक्रिया के रूप में लिखी गयी थी. ‘सीता का छिनाला’ में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता को वेश्या कहा गया था.

इसी तरह, सितम्बर 1934 को अब्दुल कयूम ने नाथूरामल शर्मा की हत्या कर दी. यह बहुत छोटी सूची है. इन सभी प्रमुख मुसलमानों को गाजी बताकर उनका स्वागत किया गया, उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन किये गये.

लाहौर के एक बैरिस्टर बरकत अली ने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर करते हुए कहा कि वो हत्या का दोषी नहीं हैं क्योंकि कुरान के मुताबिक यह न्यायोचित है.

स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद की आत्मा की शांति के लिए देवबंद के प्रसिद्ध इस्लामी कॉलेज के विधार्थियों और प्रोफेसरों ने पांच बार कुरान का पाठ किया और प्रतिदिन कुरान की सवा लाख आयतों की तिलाबत दी गयी.

उनकी प्रार्थना थी कि ‘अल्लाह मियां मरहूम (अब्दुल रशीद) को आला-ए-उलीयीन (सातवें बहिश्त) में स्थान दे.

इन सबके बीच न समझने वाला था तो गांधी का दृष्टिकोण. उन्होंने उन हत्याओं की निंदा भी नही की, न ही मुसलमानों को ऐसा करने को कहा. गाँधी ने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए कुछ हिन्दुओं की हत्या की कोई चिंता नहीं की, बशर्ते उनके बलिदान से यह एकता बनी रहे.

गाँधी ने यंग इंडिया में लिखा, ‘’मैं भाई अब्दुल रशीद नामक मुसलमान, जिसने श्रद्धानंद जी की हत्या की है, का पक्ष लेकर कहना चाहता हूँ कि इस हत्या का दोष हमारा है. अब्दुल रशीद जिस धर्मोन्माद से पीड़ित था, उसके लिए केवल मुसलमान ही नहीं, हिन्दू भी दोषी हैं.”

1920 के आसपास मलाबार में दंगा शुरू हुआ, यहाँ मोपलाओं अर्थात मुसलमानों ने हिन्दुओं पर वर्णानातीत हृदयविदारक अत्याचार किये. मलाबार में होने वाले मोपला विद्रोह दो मुस्लिम स्थानों खुद्म-ए-काबा और केन्द्रीय खिलाफत समिति के आन्दोलनों के कारण शुरू किये गये.

दरअसल आन्दोलनकारियों ने इस सिद्धांत का प्रचार किया कि ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत हिंदुस्तान दारुल हरब (काफिरों की भूमि) था और मुसलमानों को इसके विरूद्ध अवश्य लड़ना चाहिए और यदि वो ऐसा नहीं कर सकते तो उनके सामने ‘हजरत’ का सिद्धांत रह जाता है. मोपला लोग इस आन्दोलन से अचानक आभूत हो गये.

यह मूल रूप से ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध एक विद्रोह था. इसका उद्देश्य ब्रिटिश राज्य का तख्ता पलट कर इस्लामी राज्य की स्थापना करना था. छुप-छुप कर चाक़ू, छुरे, भाले बनाये गये. 20 अगस्त को पीरुनांगडी में मोपलों और ब्रिटिश सेना के बीच झड़प हुई.

जब ब्रिटिश सेना कमजोर हुई तो मोपलाओं ने अली मुदालियर की ताजपोशी कर दी. खिलाफत के झंडे लहराए गये, इरनाडू और वालुराना को खिलाफत सल्तनत घोषित कर दिया गया.

ब्रिटिश सेना के खिलाफ तो ठीक लेकिन इसके कुछ दिन बाद ही मोपलाओं ने हिन्दुओं पर हमला बोल दिया. कत्लेआम, बलात्कार, मंदिरों में तोड़-फोड़, लूटमार, आगजनी जैसी भारी तबाही हिन्दुओ के साथ हुई.

आंकड़ों के मुताबिक करीबन 10,000 हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार और जबरन धर्म बदला गया. इन दंगो में पीड़ित लोगों की बड़ी संख्या दलित समुदाय से थी.

खिलाफत के कई नेताओं ने मोपलाओं को इस जंग की बधाई दी. इस दंगे पर गाँधी ने हिन्दुओं से कहा, ‘‘हिन्दुओं में इतना साहस और आस्था होनी चाहिए कि धर्मांधो द्वारा की जाने वाली गड़बड़ियों के बावजूद वे अपने धर्म की रक्षा कर सकें. मोपलाओं के पागलपन की मुसलमानों द्वारा की जाने वाली निंदा को मुसलमानों की दोस्ती की कसौटी से नहीं माना जा सकता. मोपला लोगों द्वारा किये गये जबरन धर्म परिवर्तन और लूटपाट के बारे में मुसलमानों को स्वयं शर्मिंदगी होनी चाहिए और उन्हें चुप रहते हुए ऐसे प्रभावकारी प्रयास करने चाहिए कि उनमें से अधिकतर धर्मान्ध व्यक्तियों के लिए ऐसे काम करने असम्भव हो जाएँ.”

गांधी ने कहा, “मेरा यह विश्वास है कि हिन्दुओं ने मोपला लोगों के पागलपन का बड़े धैर्य से सामना किया और सुसंस्कृत मुसलमान ईमानदारी से इस बात के लिए दुखी हैं कि मोपला लोगो ने हजरत की शिक्षाओं को गलत समझा है.’’

कांग्रेस की कार्य समिति ने मोपलाओं के अत्याचारों के बारे में पारित प्रस्ताव में मुसलमानों की भावनाओं को आहत न करने का पूरा प्रयास किया. कांग्रेस ने प्रस्ताव में लिखा कि मलाबार के इस दंगों में जबरन धर्म परिवर्तन के केवल तीन मामले हैं जबकि मद्रास सरकार की रिपोर्ट में धर्म परिवर्तन के हजारों मामले थे.

हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए गांधी की ऐतिहासिक भूमिका का विवरण यही है, यह एकता कुछ नारों और हिन्दुओं के बलिदान तक ही सीमित थी. गाँधी देश में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए मुसलमानों को धर्म के नाम पर भड़का रहे थे, वो मुसलमानों को भारतीयता का बोध न कराकर इस्लाम का बोध करा रहे थे.

गाँधी ने मुसलमानों को अंग्रेजों के खिलाफ इसीलिए लडवाया क्योंकि तुर्की के खलीफा का पद खतरे में था. गांधी ने खिलाफत आन्दोलन में हिन्दुओं के सहयोग के लिए असहयोग आन्दोलन भी शुरू किया. इन सबके बाबजूद गाँधी की इस हिन्दू-मुस्लिम एकता का क्या फल निकला इसकी जांच करना भी जरुरी है.

1920-1940 तक ब्रिटिश भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगे बड़े पैमाने पर हुए. 1921 में पंजाब और बंगाल दोनों प्रान्तों में मुहर्रम के मौके दंगे हुए, जिसमे मृतकों की संख्या तो कम थी लेकिन संपत्ति का भारी नुकसान हुआ.

कोहट शहर में 9-10 सितम्बर 1924 में भीषण दंगे हुए जिसमें 155 लोगों की मौत हुई, लगभग 9 लाख की सम्पत्ति नष्ट हुई. 1924-1925 जुलाई में दिल्ली, नागपुर में कई दंगे हुए. सितम्बर-अक्टूबर में लखनऊ, शाहजहांपुर, काकीनाडा और इलाहाबाद में बड़े फसाद हुए. सबसे भयानक दंगा कोहाट का था.

1925-1926 में कलकत्ता, बम्बई, बरार, गुजरात, अलीगढ, लखनऊ में दंगे हुए. 1926-27 में भी दंगे चलते रहे, मंदिरों-मस्जिदों में तोड़-फोड़ आम बात थी. सभी हिन्दू-मुस्लिम-सिख त्योहारों पर दंगे भडक उठते.

कलकत्ता में अप्रैल और मई 1926 को होने वाले दो दंगो समेत पहली अप्रैल 1927 को समाप्त होने वाले वर्ष में कुल 40 दंगे हुए जिनमें 197 मौते हुईं. मुसलमानों की ईद पर हर साल दंगे होते क्योंकि इस दिन गाय की कुर्बानी दी जाती. बकरीद पर हुए दंगों में दो भीषण दंगे पंजाब के थे. सबसे ज्यादा नुकसान बंगाल में था.

1930-31 में प्रारम्भ हुए सविनय अवज्ञा आन्दोलन से देश भर में दंगे हुए. दरअसल कांग्रेस ने अपने स्वयंसेवकों के सहारे आन्दोलन से मुसलमानों को जोड़ना चाहा, उन दबाब डाला गया. मुसलमानों ने इस दबाव में आने से इनकार कर दिया.

इसका प्रारंभ तो राजनीतिक उपद्रवों से हुआ था किन्तु अंत बहुत से साम्प्रदायिक दंगों से हुआ जिसमें सबसे भीषण दंगा सिंध में सक्कुर के आसपास 4-11 अगस्त के बीच हुआ जिसने सौ से ज्यादा गाँवों को अपनी चपेट में लिया.

1930 में पंजाब में कुल 907 दंगे हुए थे जबकि 1929 में 813 दंगे हुए थे. 1931 में कानपुर में भीषण दंगा हुआ, दुकानों-मंदिरों में आग लगाकर उन्हें राख कर दिया गया, पांच सौ परिवार अपना घर छोड़ भाग खड़े हुए.

डॉ. रामचंद्र के परिवार के सभी सदस्यों, पत्नी, बूढ़े माँ-बाप की हत्या कर उनकी लाशें गंदे नाले में फेंक दी गयी. महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या भी उसी दौरान हुई.

तीन दिनों तक कत्लेआम चला, तीन सौ से ज्यादा मौते हुईं हालाँकि आंकड़ा और ज्यादा ही था. 1933-34 में कई दंगे हुए, 3 सितम्बर को मद्रास में एक व्यक्ति की मौत हुई और 13 लोग घायल हुए. दंगे की वजह एक पुस्तक थी जिसमें मोहम्मद पैगम्बर पर विवादित टिप्पणी की गयी.

1931-1935 में एक मस्जिद को लेकर सिख-मुसलमान में झगड़ा हुआ. मस्जिद को गुरुद्वारा शहीदगंज की चारदिवारी में बनाया था. सिखों ने मस्जिद तोड़ दी जिसके बाद करीबन 5 हजार मुसलमान गुरुद्वारे के सामने आ गये. लड़ाई इतनी बढ़ी कि पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी जिसमे 12 लोगों की मौत हुई और कई घायल हुए.

1935 में जिस नाथूरामल के हत्यारे अब्दुल कय्यूम को फांसी हुई. उसकी लाश उसके घर पहुंची जिसके बाद 25000 लोग जमा हो गये. बड़ा जुलूस निकाला गया, लोग जब इस जुलूस को लेकर शहर की ओर बढ़े तो पुलिस ने मोर्चा सम्भाला जिसमें 47 आदमी मारे गये और 134 जख्मी हुए.

1936 में चार बड़े दंगे हुए, आगरा जिले के फिरोजाबाद में 14 अप्रैल को डॉ. जीवनराम के घर और पडोस के राधाकृष्ण मन्दिर में आग लगा दी गयी. डॉ. जीवनराम के 3 बच्चों सहित 11 हिन्दुओं को जिन्दा जला दिया गया.

1937 में पूरे साल दंगे हुए, 18 जून को सिख-मुस्लिम दंगा इतना बड़ा था कि उसे नियंत्रित करने लिए ब्रिटिश फ़ौज बुलानी पड़ी. 1939 में 6 दंगे हुए, कानपुर के एक दंगे में 42 लोगो की मौत हुई, जबकि 200 जख्मी और 800 गिरफ्तार किये गये.

पुरानी बंगाल विधानसभा परिषद में 6 सितम्बर, 1932 को बंगाल प्रान्त में स्त्रियों के अपहरण की घटनाओं से सम्बन्धित प्रश्न पूछे गये. तत्कालीन सरकार ने बताया कि 1922-1927 के बीच 568 महिलाओं का अपहरण हुआ जिनमे 101 अविवाहित थी. 467 विवाहित महिलाओं में 331 हिन्दू, 122 मुस्लिम, 2 ईसाई, 12 का पता नहीं जबकि 101 विवाहित में 64 हिन्दू, 29 मुस्लिम, 4 ईसाई और 4 का धर्म नहीं पता. यहाँ यह भी बताना जरुरी है कि मात्र 10 फीसदी ही मामले सामने आ पाते थे.

महिलाओं के प्रति यह व्यवहार ही बताता है कि गाँधी के बनाये गये हिन्दू मुस्लिम भाईओं में कितनी एकता थी. इस तरह साल 1940 तक देश के अलग-अलग हिस्सों में दंगे जारी रहे.

अम्बेडकर अपनी पुस्तक Pakistan or Partition of India में लिखते हैं, ‘हिन्दुओ के घरों में जिस तरह मुसलमानों ने आग लगाई उससे हिन्दुओं के समूचे परिवार खत्म हो गये और यह सब देखने वाले मुसलमानों को बड़ी प्रसन्नता होती थी. जानबूझ कर निर्दयतापूर्वक की गयी इस क्रूरता को अत्याचार नहीं माना गया जिसकी निंदा भी नहीं की गयी बल्कि लड़ाई का एक तरीका माना गया. हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों के अत्याचार ज्यादा थे.’

इस तरह के शत्रुतापूर्ण अत्याचारों के बाद एक कांग्रेसी अखबार ‘हिंदुस्तान’ के संपादक ने गांधी की हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के प्रयासों की असफलता पर लिखा, ‘आज के भारत और भारत राष्ट्र के बीच एक ऐसा अपरिष्कृत यथार्थ अपने आप को आगजनी और कत्लेआम में प्रकट करता है और अपने आपको धोखा देने वाले देशप्रेमी की कल्पना के बीच बहुत ही अधिक दूरी है. हजारों मंचों से हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करना या उसे कलात्मक सुर्खियां देना, रेत के घरोंदे के समान ढह जाता है और भ्रम को बनाये रखने के समान हैं.’

‘जब आरोप प्रत्यारोप होते हैं या मस्जिदों और मंदिरों को भ्रष्ट किया जाता है, शांति और सद्भावना के बारे में सरोजिनी नायडू की कुछ कविताएँ गाकर देश का भला नहीं होने वाला. कांग्रेस की प्रेसिडेंटी हिन्दू-मुस्लिम एकता पर कुछ व्याख्यान करती रही हैं. यह विषय उन्हें बहुत ज्यादा प्यारा है और वो भलीभांति इस पर अपने विचार प्रकट करती है. यह उनकी बुद्धिमत्ता का परिचायक भले हो, लेकिन वास्तविक धरातल से दूर है. करोड़ों देशवासी इस एकता की बात का समर्थन तभी करेंगे जब वह केवल नेताओं की जबान पर न हो बल्कि देशवासियों के दिलों में हो.

डॉ. अम्बेडकर अपनी पुस्तक ‘Pakistan or Partition of India’ में लिखते हैं, ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रकट करने के लिए इन शब्दों से अच्छी और शब्दावली हो ही नहीं सकती. अब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता दिखती तो थी भले ही मृग-मरीचिका ही क्यों न हो. आज तो वह न दिखती है, न ही मन में हैं. यहाँ तक कि अब गांधी भी इसकी आशा छोड़ इसकी वास्तविकता समझने लगे हैं. हालाँकि अब भी पिछले 20 वर्षों के इतिहास की अनदेखी करके हिन्दू-मुस्लिम एकता की सम्भावना में विश्वास रखने वाले महानुभाव मौजूद हैं. पाकिस्तान बनने के बाद भी हिन्दू-मुसलमान की समस्या कभी खत्म नहीं होगी. सीमाओं का पुनर्निर्धारण करके पाकिस्तान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता है परन्तु हिंदुस्तान तो एक मिश्रित देश बना ही रहेगा. मुसलमान समूचे हिंदुस्तान में फैले हुए हैं. चाहें किसी भी ढंग से सीमाकंन किया जाए उसे सजातीय देश नही बनाया जा सकता. हिंदुस्तान को सजातीय देश बनाने का एकमात्र तरीका हैं जनसंख्या की अदला बदली की व्यवस्था करना. यह अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं किया जायेगा, हिंदुस्तान में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की समस्या और हिंदुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह ही बनी रहेगी.’

(सभी तथ्य डॉ. अम्बेडकर अपनी पुस्तक ‘Pakistan or Partition of India से लिए गये हैं)

विशाल माहेश्वरी

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