पद्मावती जैसे हिंदू अस्मिता को कुचलने वाले चित्रपट क्यों बनाए जाते है इसके पीछे एक कटु वास्तव और क्रूर व्यावसायिक सोच है. राष्ट्रवादियों के मुखर विरोध के बावजूद ऐसे चित्रपट बनते रहने का यही मुख्य कारण है.
हिंदू समाज का एक बड़ा तबका हिंदू हितों के प्रति उदासीन है. दुर्भाग्य से यह तबका व्यावसायिक तौर पर प्रभावशाली है, संपन्न है. कमाओ और उडाओ इनके जीवन का सार है. किसी भी बहिष्कार का आह्वान उन्हें बचकाना और तिरस्कार के योग्य लगता है. वे खुल कर इस आह्वान को तोड कर उन चित्रपटों को देखते है, उन्हें आर्थिक लाभ पहुंचाते हैं.
हिंदू समाज का और एक बडा तबका तथाकथित विचारकों का है, जो ऐसे बहिष्कार के आह्वानों का प्रकट और मुखर विरोध अपना कर्तव्य मानते है. कई बार यह विरोध तत्त्वनिष्ठ न रह कर केवल एक विचारधारा का सतत, बेबुनियाद विरोध बन कर रह जाता है.
इसका कारण इन का टोलियों में पाया जाना है. इन टोलियों में उनकी व्यक्तिगत साख ऐसे विरोध के अनुपात पर निर्भर करती है. दुर्भाग्यवश इन टोलियों की पैठ प्रसार एवं समाचार माध्यमों में और देश के शिक्षा एवं सांस्कृतिक ढांचों में गहरी है और किसी भी विसंवादी स्वर को इसमें निष्ठुरता से दबाया जाता है.
परिणामस्वरूप जो इस परिवेश का हिस्सा बन कर आर्थिक और सामाजिक लाभ उठाता रहना चाहता हो, उसे इस विचारधारा का समर्थन करते ही रहना पडता है.
तीसरा पहलू यह है कि हिंदू विरोधी ताकतें इस संघर्ष में खुल कर अपनी शक्ति झोंक देती है. अगर किसी चित्रपट के विरोध में ऐसा बहिष्कार का आह्वान होता है, तो ऐसे चित्रपट को व्यावसायिक सफलता दिलवाना इनका परमकर्तव्य बन जाता है.
मैंने यह होते हुए देखा है. वर्ना ऐसा क्यों होता कि असहिष्णुता नाटक के बाद के आमिर खान, शाहरुख खान के चित्रपट उनके अब तक के सबसे सफल चित्रपट रहे हैं? ये लोग बखूबी जानते हैं कि हिंदू-हित-विरोध अच्छा व्यावसायिक निर्णय होता है.
परिणामस्वरूप, हिंदू विरोध को बढ़ावा अपने आप मिलता रहता है और जो कोई व्यावसायिक रूप से सफल होना चाहता है वह या तो निष्पक्ष रहेगा या प्रकट हिंदू विरोधी!
हिंदू एकता को मजबूत करना और इस एकता की अभिव्यक्ति को मुखर और कृतिशील बनाना ही इस समस्या का निदान है. जिस किसी तरीके से हो सके, यह कार्य होना चाहिए. वर्ना आप पूरे भारत में अगले कुछ दशकों में कश्मीर, बंगाल, केरल का प्रतिबिंब देखेंगे!