हुआ ये था कि अपने जुहू वाले बंगले में दीप्ति के पास एक पियानो था. उनकी एक पियानिस्ट दोस्त अमेरिका रहने चली गईं तो उन्हें अपना पियानो सौंप गईं. पियानो में तीन “कोर्ड” अनट्यून्ड थे. उन्हें दुरुस्त करने के लिए एक “ट्यूनर” को बुलाया गया.
ट्यूनर बुज़ुर्ग था. पियानो को देखते ही उसने कहा कि इसे खुली हवा में नहीं रखना चाहिए, इससे उसकी “कीज़” ख़राब हो जाती हैं. फिर वह पियानो को ट्यून करने बैठा. दीप्ति ने देखा कि उम्रदराज़ी के चलते उसके हाथ कांप रहे थे. किसी साज़ में सुर को पकड़ने के लिए बड़े सधे हाथ चाहिए. सधे हुए हाथ ही किसी साज़ का “स्टेपल टूल” होते हैं. लेकिन कांपते हुए हाथों से किसी साज़ को कैसे साधा जाए. “असाध्य वीणा” तो दूर, एक “अनट्यून्ड पियानो” भी उससे साधा नहीं जा सकता.
इसी एक “मेटाफ़रिक इमेज” ने इस कहानी को जन्म दिया है : “द पियानो ट्यूनर.”
हम यह उम्मीद कर सकते थे कि इस कहानी में अगर दीप्ति “फ़र्स्ट पर्सन” नैरेटर नहीं तो “थर्ड पर्सन” नैरेटर तो होंगी ही. कहानी शुरू होती है, बहुत ही ख़ूबसूरती से, रोहिंटन मिस्त्री वाले अंदाज़ में, बंबई के मौसम को किंचित उदास रंगों के साथ दर्ज करते हुए. यह बताते हुए कि फ़ीरोज़ नामक यह बुज़ुर्ग पियानिस्ट 40 के दशक में एक लड़की को चाहता था, जो बर्मा पर जापानी हमले के बाद से विस्थापित होकर भारत चली आई थी और यहां किसी बार में पियानो बजाती थी.
बांद्रा में रहने वाली ग्यारह बरस की एक लड़की पर भी उसे बहुत लाड़ था, जिसके घर में एक पियानो था और तंगहाली के चलते उसे बेच दिए जाने के बाद उस लड़की की मौत हो गई थी. फ़ीरोज़ को पैसों की ज़रूरत रहती है, लिहाज़ा वह अपनी एक ऐसी परिचित को फ़ोन लगाता है, जो इन दिनों पियानो बजाना सीख रही थी और उसे उम्मीद थी कि वह शायद अपने पियानो को ट्यून करवाने के लिए उसकी मदद लेती.
महिला उसकी सेवाएं लेने से इनकार कर देती है. फ़ोन पर उसकी तीखी, “हाई ओक्टेव” आवाज़ सुनकर उसके ज़ेहन में एक शब्द कौंधता है : “सी-ट्रेबल” (तारसप्तक का एक सुर). शीशे में अपना दोहरा बदन देखकर उसे “डबल बैस” का ख़याल आता है. फिर घर लौटकर, खिड़की से समंदर की ओर देखता हुआ वह अपने पियानो पर “जी-मेजर की” दबाता है और उस सटीक नोट को खोजने की कोशिश करता है, जो केवल एक सधे हुए स्वराघात से ही संभव है.
और बाद इसके, कहानी की “नैरेटिव वॉइस” सहसा बदल जाती है.
मसलन, अब फ़ीरोज़ तय करता है कि उसे जुहू में रहने वाली एक “एक्ट्रेस” के पास जाकर अपनी सेवाएं देनी चाहिए, क्योंकि उसे ख़बर मिलती है कि उसके पियानो में तीन “कोर्ड” अनट्यून्ड हैं. हम सहसा चौंकते हैं! कौन है यह “एक्ट्रेस”? कहीं दीप्ति ही तो नहीं? तो फिर कहानी कौन सुना रहा है? दीप्ति इस कहानी की नैरेटर हैं या कैरेक्टर हैं?
अगले सफ़हे पर तस्वीर साफ़ हो जाती है, जब फ़ीरोज़ उस “एक्ट्रेस” के बंगले पर जाता है और उससे कहता है कि आपको अपने पियानो को खुले में नहीं रखना चाहिए, इससे उसकी “कीज़” ख़राब हो जाती हैं. हम समझ जाते हैं कि यह तो दीप्ति ही हैं. “एक्ट्रेस” सिर हिलाकर हामी भर देती है. फ़ीरोज़ पियानो दुरुस्त करने बैठता है, लेकिन उम्रदराज़ी के कारण उसके हाथ कांपने लगते हैं. वह महसूस करता है कि “एक्ट्रेस” उसे बहुत ग़ौर से देख रही है, मानो वह उसे अपनी किसी कहानी में एक किरदार बनाकर छोड़ेगी. ऐसा ही होता भी है. लेकिन साथ ही यह भी तो होता है कि फ़ीरोज़ के पर्सपेक्टिव से सुनाई जाने वाली इस कहानी में वह “एक्ट्रेस” स्वयं एक किरदार बन जाती है. पोयटिक जस्टिस.
“नैरेटिव वॉइस” को लेकर इस तरह के अनेक प्रयोग विलियम फ़ॉकनर ने किए हैं, जिनके यहां बहुधा किसी वाक्य के बीच में ही “नैरेटिव वॉइस” बदल जाती है और आप अनुमान भी नहीं लगा पाते कि अभी कौन कहानी सुना रहा था और अब कौन सुना रहा है. इसी के ठीक सामने आप माइकेलेंजेलो अंतोनियोनी की फिल्म “पैसेंजर” के उस अंतिम दृश्य को रख सकते हैं, जब जैक निकलसन की हत्या होती है और कैमरा उसके कमरे से बाहर झांकने लगता है. फिर कैमरा धीरे-धीरे खिड़की की ओर खिसकना शुरू होता है, उसको लांघ जाता है, कुछ दूर चलकर ठहरता है और पलटकर देखता है और अब हम पाते हैं कि हम बाहर से उसी कमरे के भीतर झांक रहे हैं, जहां हम थोड़ी देर पहले मौजूद थे, क़त्लगाह के क़रीब. जैसे “नैरेटिव वॉइसेस” होती हैं, वैसे ही “विज़ुअल पर्सपेक्टिव” भी होते हैं, और हुनरमंदों की कृतियों में ये कभी ठहरते नहीं हैं.
बहरहाल, दीप्ति की यह कहानी बहुत पुरख़लूस है, उम्दा अंग्रेज़ी में, गठे हुए नैरेटिव के साथ. यह उनके कहानी संकलन “द मैड तिब्बतन” में शरीक़ है. इस संकलन के शेष अफ़साने पढ़ना अभी बाक़ी हैं, लेकिन इस पहली कहानी ने ही मुझे मोह लिया है : इसके पास एक नज़र है, ब्योरों और तस्वीरों से भरा एक मौसम है, एक “मेलन्कलिक” टोन है, और एक ज़हीन, परतदार नैरेटिव है. इसने मुझे अपने साथ गुंथ लिया है.
थैंक यू फ़ॉर एवरीथिंग, दीप्ति!