“पद्मावती” पर छह पर्सेप्शंस
1) अगर सिनेमा “मेक बिलीव” की कला है तो परदे पर दिखाए जा रहे दृश्य के प्रति उसका यह अलिखित आग्रह हमेशा रहता है कि जो दिखाया जा रहा है, उसे सही माना जाए. प्रेक्षक के “सेंस ऑफ़ रियल्टी” को वह सीधे संबोधित करता है और इन्हीं मायनों में कलात्मक स्वतंत्रता एक लोकप्रिय दायरे में चाहकर भी “एब्सोल्यूट” नहीं होने पाती है.
2) क्योंकि, अमेरिका में कभी भी हिटलर को किसी ऐसे वीर योद्धा की तरह नहीं दिखाया जाएगा, जिस पर स्त्रियां रीझती हों. पाकिस्तान में कभी हिंदू योद्धाओं — पृथ्वी, प्रताप, शिवाजी — पर फिल्में नहीं बनाई जाएंगी. और भीषण कलात्मक स्वतंत्रता लेने के बावजूद कभी परदे पर यह नहीं दिखाया जाएगा कि जिस स्त्री के साथ बलात्कार किया गया हो, वह अपने साथ बलात्कार करने वाले व्यक्ति पर आसक्त थी, सपने में भी नहीं.
3) कहा जा रहा है कि अभी यह तय नहीं है कि पद्मावती ऐतिहासिक चरित्र थी या एक मिथक, लेकिन अगर वह एक किंवदंती थी, तब भी लोकमानस में उसकी छवि की एक स्वीकार्यता और उस स्वीकार्यता का अपना एक आधार है, जिसके साथ छेड़ करने के नुक़सान हो सकते हैं. फिर, मिथक हमारे लिए कब अमूर्त रहे हैं. तमाम धर्म-संप्रदाय मिथकों और पौराणिक कल्पनाओं में ही अपना आलंबन पाते रहे हैं. पैग़म्बरों के मिथकों के प्रति सदाशय स्वतंत्रता लेने की बौद्धिक और नैतिक तैयारी क्या बॉलीवुड की हो चुकी है?
4) कहा जा रहा है कि फिल्म में “पद्मावती-खिलजी” का कोई प्रणय दृश्य नहीं है. अगर है भी तो वह एक “स्वप्न दृश्य” है. इस विभ्रम की स्थिति में निर्देशक को इस पर साफ़ बयान देकर अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए, क्योंकि प्रणय तो दूर, इस्लामिक आक्रांता उसकी मृत देह को भी छू तक नहीं सके, इसीलिए पद्मावती ने चित्तौड़ के दुर्ग में जौहर किया था, ऐसी किंवदंती है. यह अद्भुत किंवदंती सदियों से भारतीय लोकमानस पर पवित्रता, शुचिता और नैतिकता के एक मानक की तरह हावी रही है. स्वप्न में दर्शाए गए प्रेम दृश्य के मार्फत भी आप इससे खेल नहीं सकते हैं और लोकभावना का इतना सम्मान तो आपको करना ही होगा.
5) इससे पहले भी “पद्मावती” पर फिल्में बनाई गई हैं, जैसे कि 1961 में “जय चित्तौड़” और 1964 में “महारानी पद्मिनी”, लेकिन वे मूल किंवदंती के अनुकूल थीं और दर्शकों ने उनका भरपूर स्वागत किया था. “कूद पड़ी थीं जहां हज़ारों पद्मिनियां अंगारों में” जैसे लोकप्रिय गीत लोकमानस में वस्तुगत सत्य की तरह ही स्वीकार किए जाते रहे हैं, इसे याद रखा जाए.
6) वास्तव में संजय लीला भंसाली पर हुए हमले का विरोध करने का सबसे बड़ा कारण ही यही होना चाहिए कि उन पर शारीरिक प्रहार किए बिना ही तर्कों के बल से भी उन्हें रक्षात्मक रुख़ अख्तियार करने पर विवश किया जा सकता था, जबकि पिटाई होने के बाद तो व्यक्ति में स्वयं को “शहीद” दिखाने की भावना बलवती होने लगती है. इससे अंतत: लोकप्रिय विमर्श की वैधता की ही क्षति होती है. अत: यह दु:खद ही हुआ. इससे बेहतर किया जा सकता था. अस्तु.