संविधान तुम्हें दूसरे देशों के संविधानों की कॉपी-पेस्ट लगता है, कभी उसके पुनर्मूल्यांकन की बात करते हो, कभी उसे बदलने की.
झंडे पर भी आपत्ति है… ये नहीं वो है हमारी पहचान, फलां तारीख तक वो ही झंडा था, फिर तुष्टिकरण के तहत या अन्य किसी कारण से अमुक ने इसे तिरंगा बनवा दिया.
स्वतन्त्रता पर भी शिकायत है… ये अधूरी स्वतन्त्रता है, सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता मिली… गोरे साहबों की जगह भूरे आ गए… ये आज़ादी नहीं सिर्फ ट्रांसफर ऑफ़ पावर था…
राष्ट्रगान पर तो जब चाहे तब बवाल मचाते हो… ये तो लाट साहब का स्तुतिगान था… हमारा राष्ट्रगान तो वो है जिसे हमें बहलाने के लिए राष्ट्रीय गीत का दर्ज़ा दिया गया है…
यानी, 15 अगस्त, 26 जनवरी, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान… सबसे शिकायत है… ‘उन्हें’ भी है…
तो जब तुम और ‘वो’ एक ही पाले में हैं तो मारते क्यों हो ‘उन्हें’ जब वो राष्ट्रगान के समय खड़े नहीं होते… जब तुम्हारे मुताबिक़ ये असली राष्ट्रगान है ही नहीं, तो क्यों तुम्हें दिक्कत है?
दिक्कत है… दिक्कत नीयत की है… हम इस झंडे को, गाने को, मोटी किताब को और स्वतन्त्रता को ना मानते हुए भी देश को मातृभूमि-पुण्यभूमि मानते-जानते हैं… वहीं ‘उनकी’ निष्ठाएं इस भरतखंड की भौगोलिक-सांस्कृतिक सीमाओं से बाहर हैं.
‘वे’ इन सब से असहमत है और हम भी… पर हम ‘उनकी’ तरह आयातित विचार, आयातित प्रतीक नहीं बल्कि अपनी जड़ों में से, अपनी परम्पराओं में से अपने प्रतीक चाहते है.
आप भले हम पर ‘पुनरुत्थानवादी’ शब्द को गाली के तौर पर इस्तेमाल कर लें… हमें ये ‘संज्ञा’ स्वीकार है, हम इस ‘संज्ञा’ को ‘क्रिया’ में बदल कर इसे अपना ‘विशेषण’ बनाना चाहते हैं.
हाँ, हम हैं पुनरुत्थानवादी… और क्यों न हों… है ही हमारा अतीत इतना गौरवशाली… हम क्यों न स्वप्न देखें उसे पुन: प्राप्त करने का…