सन् 2011 से सिविल सेवा परीक्षा का प्रारूप बदला है. इससे पहले सिविल सेवाओं को समाज विज्ञान के विद्यार्थियों की बपौती माना जाता था किंतु जब से CSAT के पेपर में मैथमेटिकल एप्टीट्यूड और रीजनिंग के भी प्रश्न पूछे जाने लगे तब से व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त छात्रों में भी प्रशासनिक सेवाओं के प्रति क्रेज़ बढ़ा है.
बीटेक, एमबीए, यहाँ तक कि कुछ साल पहले इसरो में एक जूनियर वैज्ञानिक ने भी नौकरी छोड़ कर आईएएस ज्वाइन कर लिया था. मैं एक दरोगा जी को जानता हूँ जिन्होंने अपनी बड़ी बेटी को पढ़ाई में अच्छा होने के बावजूद बनारस के महंगे स्कूल में इंटरमीडिएट में विज्ञान, वाणिज्य नहीं बल्कि समाज विज्ञान के विषय पढ़ाये ताकि ग्रेजुएशन के साथ ही वह आईएएस की कोचिंग कर सके.
जब सिविल सेवा परीक्षा का नोटिफिकेशन आता है तो उसमें लगभग 29 सेवाओं की सूची दी होती है. इनमें सबसे चमकदार भारतीय विदेश सेवा मानी जाती है. परीक्षा परिणाम आने के बाद उत्तीर्ण हुए अभ्यर्थियों में से सर्वप्रथम विदेश मंत्रालय अपने पदों को भरता है ऐसी परिपाटी रही है.
आईएफएस अधिकारियों के पास रौब-रुतबा आईएएस आईपीएस जितना नहीं होता परन्तु सम्मान खूब मिलता है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य के अनुसार देखा जाये तो यदि आप चाहते हैं कि आपका बच्चा प्रथम प्रयास में आईएफएस बने तो हाई स्कूल के बाद से ही इसके लिए प्रयत्न करना पड़ेगा. यह एक व्यवहारिक पक्ष है.
विदेश मंत्रालय द्वारा चुने जाने के उपरांत आपको तीन वर्ष प्रशिक्षण दिया जाता है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध/राजनीति, कूटनीतिक दांव पेंच, व्यापार, अंतर्राष्ट्रीय कानून व्यवस्था इत्यादि की खूब सारी पढ़ाई होती है. कुछ महीने सशस्त्र सेनाओं के साथ भी गुजारने पड़ते हैं. भारत भ्रमण भी कराया जाता है.
तीन वर्ष के कठिन प्रशिक्षण के बाद आप भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी बनते हैं. तब आपको राजनयिक अथवा ‘Diplomat’ कहा जाता है. आईएफएस अधिकारी रहते हुए आप किसी दूसरे देश में दूतावास में नौकरी करते हुए भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं.
इसी तरह यदि सेना में आर्मी कमांडर (जनरल ऑफिसर) की रैंक तक पहुँचना हो तो सर्वप्रथम भारतीय रक्षा अकादेमी (पुणे) में सैनिक संस्कार दिए जाते हैं. यहाँ साढ़े सोलह से उन्नीस वर्ष की आयु के बच्चे रंगरूट के रूप में आते हैं और तीन वर्ष प्रशिक्षण लेते हैं.
उसके बाद साल डेढ़ साल भारतीय सैन्य अकादेमी (देहरादून) में थलसेना में काम करने का प्रशिक्षण दिया जाता है. तदुपरांत थलसेना की किसी विशेष ब्रांच में कार्य करने का प्रशिक्षण दिया जाता है. जैसे कि तोपखाना में जाना हो तो आर्टिलरी स्कूल देवलाली में जाते हैं, इन्फेंट्री स्कूल महू में है, आदि.
इतना सीखने के बाद और कमीशंड रैंक पा लेने के बाद अनुमानतः कम से कम ढाई दशक या उससे ज्यादा बेदाग नौकरी करनी पड़ती है. बेदाग इसलिए क्योंकि यदि आपकी Annual Confidential Report में कोई गम्भीर आरोप लग गया तो आपका प्रमोशन जनरल रैंक तक होना मुश्किल है.
जब द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ उस समय परतन्त्र भारत में एक ऐसे ‘देशनायक’ ने जन्म लिया जिसमें एक ‘राजनयिक’ तथा ‘आर्मी कमांडर’ दोनों के गुण कूट कूट कर भरे थे.
तैयारी और प्रशिक्षण के वर्षों का हिसाब लगाईये. कम से कम आठ साल आईएफएस के ज़रिये राजनयिक बनने के लिए और मोटा मोटी पच्चीस तीस साल आर्मी कमांडर की रैंक तक पहुँचने के लिए आवश्यक हैं.
जिस आज़ाद हिन्द फ़ौज का वह ‘देशनायक’ नेतृत्व कर रहा था उसमें 60,000 सैनिक थे. इतनी क्षमता आज आर्मी की किसी डिवीजन या कोर में होती है जिसे मेजर जनरल या लेफ्टिनेंट जनरल रैंक का अधिकारी कमांड करता है.
जिस विदेश सेवा में भर्ती होने के लिए युवा लालायित रहते हैं उसे ‘देशनायक’ ने देश की स्वतंत्रता के लिए वह कार्य स्वैच्छिक सेवाभाव से कर डाला.
वह देशनायक सुभाष चन्द्र बोस थे. सुभाष बाबू को देशनायक की उपाधि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1939 में दी थी. उसी वर्ष द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ था.
सुभाष बाबू ने जब देखा कि भारत में तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए केवल राजनीतिक हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं जिनका परिणाम स्पष्ट नहीं है तो वे निकल पड़े.
सुभाष बाबू पहले अफगानिस्तान के रास्ते रूस गए फिर जर्मनी, विएना, जापान, सिंगापुर, मलेशिया, बर्मा- एक देश से दूसरे देश, विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक भटकते उनके चरित्र में मुझे वो छटपटाहट दिखाई देती है जो उस समय के किसी भी नेता में नहीं थी.
मानो जैसे (ईश्वर न करे) कोई आपके घर को लूट रहा हो, इज्जत पर हाथ डाल रहा हो और आप जल्दी से जल्दी उस दरिंदे को मारना चाहते हों. सुभाष बाबू की इस तड़प ने उन्हें राजनेता से राजनयिक और सेनानायक दोनों बना दिया था जबकि उनके पास सैन्य सेवा का कोई प्रशिक्षण नहीं था.
नीलांजना सेनगुप्ता की एक पुस्तक है A Gentleman’s Word जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. उसमें लिखा है कि सिंगापुर और मलेशिया में आज भी ऐसे पुराने लोग हैं जिनकी आँखें सुभाष बाबू के नाम से चमक जाती हैं.
आज जब आप Look East या Act East नीति की बात करते हैं तो दक्षिण पूर्व एशिया को तो याद करते हैं ली कुआन यू से भी प्रेरणा लेते हैं किंतु सुभाष बाबू की उस विरासत को भूल जाते हैं जो वे उस क्षेत्र के मजदूरों और फैक्टरियों में काम करने वालों के बीच छोड़ आये थे.
जो समय अडोल्फ़ हिटलर, विंस्टन चर्चिल, फील्ड मार्शल स्लिम, फील्ड मार्शल रोम्मेल, जनरल पैटन, जनरल आइजनहावर, जनरल मोंटगोमरी, जनरल ब्रैडली जैसे कमांडरों और नायकों का था, उस समय सुभाष बाबू ने तनिक भी नहीं सोचा कि इतिहास उन्हें किस रूप में याद रखेगा.
जर्मनी जाकर वहाँ भारतीय युद्धबन्दियों को छुड़ा कर लाना और उनसे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने का आह्वान करना वह भी तब, जब उस समय के सैनिक ‘नाम नमक निशान’ के लिए लड़ते थे- अचंभित करता है.
आज़ाद हिन्द फ़ौज एक ‘voluntary’ सेना थी. हर सैनिक यह जानता था कि घर लौटने पर उन्हें कोई मेडल नहीं मिलने वाला. उस फ़ौज में लड़कियों का एक गुप्तचर विभाग भी था. सुभाष बाबू ने 1943 में बाकायदा Provisional Government of Free India बनाई जिसे जर्मनी और जापान की मान्यता प्राप्त थी.
यह अध्ययन का विषय है कि 60,000 की क्षमता वाली आज़ाद हिन्द फ़ौज जो किसी संप्रभु देश की नहीं थी उसमें अफसर-सैनिक सम्बंध, संगठन का प्रारूप, लॉजिस्टिक्स, इंटेलिजेंस, चेन ऑफ़ कमांड इत्यादि कैसे निर्धारित होता था.
भारत को स्वतन्त्रता दिलाने के लिए INA के कम से कम 26,000 सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी. इसका परिणाम ब्रिटिश इंडियन नेवी में विद्रोह के रूप में सामने आया. यह पूरा लेखा जोखा मेजर जनरल गगनदीप बख्शी साहब ने Bose An Indian Samurai में लिखा है.
सुभाष बाबू ऐसे फुर्तीले थे कि उन्हें पकड़ने के लिए ब्रिटिश इंटेलिजेंस अधिकारी कर्नल ह्यू टॉय ने जीवन गुजार दिया. बाद में टॉय ने सुभाष बाबू और INA पर पुस्तक लिखी The Springing Tiger.
यदि नीरद चौधुरी ने गाँधी को सबसे सफल पाखण्डी कहा तो मेरे विचार से सुभाष बाबू भारत के सबसे अभागे नायक हैं. एक तो सुभाष बाबू कभी मर नहीं सके. काला पानी या फाँसी हुई होती तो सम्भवतः कहीं कोई रिकॉर्ड होता. कायदे से कांग्रेस, संघ या कम्युनिस्टों के साथ जीवन गुजारते तो हिंदूवादी या सेक्यूलर जैसा ठप्पा उन्हें सुशोभित करता.
आज़ाद हिन्द फ़ौज के गीत ‘कदम कदम बढ़ाये जा’ में उर्दू के इस्तेमाल से कुछ लोग उन्हें इस्लाम के प्रति नरमी रखने वाला बता देते हैं जबकि वे और उनके भाई शरतचंद्र बोस दोनों ही निष्ठावान बंगाली हिन्दू थे.
गाँधी से मेरा कोई दुराव नहीं किंतु उनके विचार भारत की विदेश नीति में कैसे घुल गए ये समझ में नहीं आया. भारत की विदेश नीति का चेहरा सुभाष चन्द्र बोस को होना चाहिये था.
यदि सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं कि जनेवि (JNU) का नाम सुभाष बाबू के नाम पर रखा जाये तो मैं कहता हूँ कि विदेश मंत्रालय के हेड क्वार्टर जवाहरलाल नेहरू भवन का नाम सुभाष बाबू के नाम पर रखा जाये. विदेश नीति में प्रतीकों का बड़ा महत्व है. जवाहरलाल जैसा जाहिल तो सुभाष बाबू के बगल में खड़े होने लायक भी नहीं था.
अमेरिका में तो माउंट रशमोर पर्वत के पत्थरों पर जॉर्ज वाशिंगटन का चेहरा उकेरा गया है जिन्होंने अमेरिका की स्थापना के लिए क्रांतिकारी युद्ध लड़ा था. और हम केवल कॉलेज के हॉस्टल का नाम सुभाष चन्द्र बोस रख कर संतुष्ट हो जाते हैं.
मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि मोदी सरकार ने भी सुभाष बाबू के साथ न्याय नहीं किया. बंगाल में चुनाव से पहले फाइलें निकलवाना और मर्डर मिस्ट्री का माहौल जो पहले से व्याप्त था उसे हवा देना यह कोई बुद्धिमानी वाला निर्णय नहीं था. सुभाष बाबू की मृत्यु की जाँच होनी चाहिये परन्तु उस तरह नहीं जैसी मर्डर मिस्ट्री सिनेमा में दिखाई जाती है.
यह देखकर दुःख होता है कि जिस व्यक्ति की जीवनी को स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिये उसकी मृत्यु पर उनके ही परिजन आपस में मतभेद रखते हैं और Brothers Against the Raj के लेखक लेनर्ड गॉर्डन कहते हैं कि परिवार वालों से ज्यादा सुभाष बाबू पर उन्होंने रिसर्च किया है.