सुभाष जन्मोत्सव 6 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी

गतांक से आगे…

29 अप्रैल 1939 को सुभाष चन्द्र बोस द्वारा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद गांधी और उनके सहयोगियों और अनुयायियों के साथ ब्रिटिश सरकार ने भी चैन की सांस ली, क्योंकि सुभाष चन्द्र बोस के पूर्ण आजादी के लिए सशस्त्र विद्रोह के आह्वान ने उन्हें भी परेशान कर रखा था.

ब्रिटिश सरकार गांधी की अहिंसा और आज़ादी की वकालत में अपने आपको बड़ा स्थिर पाती थी. 1885 की ह्यूम की कांग्रेस से लेकर 1939 की गांधी तक की कांग्रेस उन्हें याचक दिखती थी और वो अपने आप को दानकर्ता की भूमिका में सदृढ़ पाते थे.

केवल बोस ऐसे थे जिन्होंने 30 के दशक में ब्रिटिश साम्राज्य को हिला दिया था. उनको कांग्रेस में किनारे किया जाना, ब्रिटिश शासन के लिए एक शुभ संकेत था.

लेकिन सुभाष चन्द्र बोस ने ठीक 4 दिन बाद 3 मई 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक ऑफ़ द इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की घोषणा कर दी. यह एक राजनीतिक दल न होकर कांग्रेस के अंदर ही एक समूह था. जिसका उद्देश्य कांग्रेस के भीतर उनकी नीतियों से सहमत सदस्य और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लोगों को, कांग्रेस के भीतर ही वैकल्पिक नेतृत्व प्रदान करने का था.

कलकत्ता की एक पब्लिक रैली में इसकी घोषणा करते हुए उन्होंने ओजस्वी सम्बोधन में कहा, जो लोग उनके साथ आएंगे उन्हें कभी भी ब्रिटिश सरकार को अपनी पीठ नही दिखानी पड़ेगी. उन्हें अपनी ऊँगली काट कर अपने खून से, सदस्यता का शपथपत्र भरना होगा.

(Who all were joining, they had to never turn their back to the British and must fill the pledge form by cutting their finger and signing it with their blood.)

उनके इस आह्वान को सुन कर सबसे पहले 17 लड़कियों ने अपनी ऊँगली काट कर उन शपथपत्रों पर दस्तखत किये थे.

इस घटना से यह साफ़ हो जाता है कि सुभाष चन्द्र बोस, कांग्रेस और गांधी द्वारा नकारे जाने के बावजूद भारत के जनमानस में छा चुके थे.

जिस वक्त सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के भीतर ही रह कर, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह के लिए लोगो को साथ जोड़ रहे थे, उस वक्त यूरोप में युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. बोस का मानना था कि अंग्रेज भारत को बिना संघर्ष किये स्वतंत्रता नही देंगे और जब यूरोप की राजनैतिक उथल-पुथल में ब्रिटेन फंसा हुआ है, तब विद्रोह करके उसके खिलाफ खुल के सशस्त्र संघर्ष करना चाहिए.

इसी पृष्ठभूमि में 1 सितम्बर 1939 में जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण कर दिया, जिसके साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध का प्रारम्भ हो गया. इस के विरुद्ध 3 सितम्बर 1939 को जर्मनी के खिलाफ, ब्रिटेन ने युद्ध में कूदने की घोषणा कर दी और साथ में, बिना भारत के राजनैतिक दलों के नेताओं से पूछे हुए, भारत को युद्ध में उनका सहयोगी होने की भी घोषणा कर दी.

गांधी, पटेल और नेहरू की कांग्रेस, फ़ाजिस्म के विरुद्ध थी इसलिए वो उत्सुक थे फ़ाजिस्म के विरुद्ध संघर्ष में ब्रिटेन का सहयोग करने के लिए, लेकिन वो इस दुविधा में थे कि गुलाम की हैसियत रखे भारत, किस हैसियत से ब्रिटेन की सहायता करे?

इस दुविधा का हल खोजने के लिए वर्धा में सितम्बर 1939 में ही कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक हुई और वहां दो विरोधी मत सामने आये.

सुभाष चन्द्र बोस और सोशलिस्ट लोगो का मानना था कि यह युद्ध एक साम्राज्यवादी युद्ध है, इसमें भारत को ब्रिटेन के सहयोग के लिए शामिल नहीं होना चाहिए बल्कि, भारत की स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस को ब्रिटेन के विरुद्ध सारे मोर्चे पर संघर्ष करना चाहिए और ब्रिटेन की कमजोरी का फायदा उठाना चाहिए.

वही दूसरी तरफ नेहरू भी जब तक भारत स्वतन्त्र नहीं होता तब तक ब्रिटेन के पक्ष में युद्ध में शामिल होने के खिलाफ थे, लेकिन साथ में वो सुभाष चन्द्र बोस के संघर्ष के आह्वान के भी खिलाफ थे. यहाँ गांधी ने नेहरू के पक्ष का समर्थन किया और 10 अक्टूबर 1939 को कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया, जिसमें जर्मनी की भर्त्सना की गयी और साथ में ब्रिटेन से स्वतंत्रता की मांग की गयी, तत्पश्चात ही, ब्रिटेन के पक्ष में युद्ध में सहयोग करने की घोषणा की.

गांधी और नेहरू की सोच, सुभाष चन्द्र बोस के आंकलन से बिलकुल ही अलग था. बोस जहां व्यवहारिक और ब्रिटिश साम्राज्य की नीयत पर अविश्वास करते थे, वहीं गांधी और नेहरू अपनी अहिंसा की नीति और आदर्शो के आगे अव्यवहारिक और ब्रिटिश साम्राज्य से दबे हुए, उनपर केवल विश्वास ही कर सकते थे.

कांग्रेस के पारित प्रस्ताव पर, ब्रिटिश वाइसराय ने सुभाष चन्द्र बोस की आशा के अनुसार, कांग्रेस के प्रस्ताव को 17 अक्टूबर 1939 को ख़ारिज कर दिया और उनकी स्वतंत्रता की मांग को ठुकरा दिया.

उन्होंने साफ़ कहा, कांग्रेस का प्रस्ताव भारत की आवाज नहीं है और न ही भारत में इसको लेकर एका है. वाइसराय ने साफ़ शब्दों में कहा कांग्रेस के विचारों के विरुद्ध मुस्लिम लीग और भारतीय राजा-महाराजा ब्रिटेन को युद्ध में समर्थन दे रहे है.

गांधी, ब्रिटेन के इस उत्तर से आहत हो गये, क्योंकि वो शुरू से ही ब्रिटेन को बिना शर्त समर्थन के पक्ष में थे और उनको आशा थी कि ब्रिटेन उनकी मांग मान लेगा. इस पर गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य पर पुरानी तोड़ो और राज करो की नीति का प्रयोग करने का आरोप लगाया और कहा, कांग्रेस ने रोटी मांगी थी लेकिन सिर्फ पत्थर मिले. (The Congress asked for bread and it has got a stone.)

गांधी की इस पराजय और आहत मन को कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने 23 अक्टूबर 1939 में संज्ञान में लिया और 8 प्रादेशिक सरकारों से मंत्रियो को त्यागपत्र देने को कहा, जो उन लोगो ने तुरंत कर दिया.

उनका आंकलन था कि इन इस्तीफों का देशव्यापी असर होगा और स्वतंत्रता की मांग को जन समर्थन मिलेगा. सुभाष चन्द्र बोस, जिन्हें कभी भी ब्रिटिश साम्राज्य पर भरोसा नहीं था, उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष के लिए जन आंदोलन करने की वकालत की.

वो सोशलिस्टों, वामपंथियों और राष्ट्रवादियों की तरह इस युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध मानते थे और इसके लिए जरुरत पड़ने पर कांग्रेस से अलग हो कर संघर्ष के लिए भी अपना मन बना लिया था.

उनको भरोसा था कि कांग्रेस के सोशलिस्ट, वामपंथी और राष्ट्रवादी उनका साथ देंगे और वो संघर्ष के लिए लोगों को तैयार कर लेंगे. लेकिन यहाँ वामपंथियो ने उनका साथ ब्रिटेन के विरुद्ध करने से इंकार कर दिया और कांग्रेस के सोशलिस्ट गुट ने भी गांधी के नेतृत्व की आवश्यकता समझते हुए, सुभाष चन्द्र बोस के साथ खड़े होने से इंकार कर दिया.

इस बीच गांधी को एक और बड़ा झटका लगा जब मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्नाह ने कांग्रेस मंत्रियों द्वारा दिए गए इस्तीफे को ख़ुशी का मौका बताया और उसको 22 दिसंबर 1939 को The Day of Deliverance (मुक्ति का दिन) को बताते हुए एक उत्सव के रूप में मनाने का ऐलान किया.

गांधी ने जिन्नाह से बड़ा आग्रह किया कि वो ऐसा न करें लेकिन ब्रिटिश सम्राज्य को मुस्लिम लीग का पूरा समर्थन था और जिन्नाह ने गांधी की बात मानने से मना कर दिया. यही नही, मार्च 1940 के लाहौर में हुए मुस्लिम लीग के अधिवेशन में जिन्नाह ने मुसलमानों के लिए भारत से अलग राष्ट्र “पाकिस्तान” की मांग की घोषणा कर दी.

हकीकत यह है कि कांग्रेस 1940 आते तक अपने ही अहंकार में, अपने ही श्रेष्ठतावाद में और अपने ही अव्यवहारिक रवैए के चलते बुरी तरह चूक चुकी थी. गांधी उस वक्त तक बेहद अप्रासंगिक होने की दशा में चल चुके थे.

नेहरू सब जानते हुए भी, अपने विचारों में ब्रिटिश साम्राज्य को एक आक्रांता के रूप में स्वीकार करने को तैयार नही थे. वो उनसे, उन में से होने के संघर्ष में डूब गए थे. सुभाष चन्द्र बोस की आक्रमकता ने उनके दार्शनिक सोच की रुमानियत गायब कर दी थी. वो गांधी के आदर्शो और राजनैतिक आंकलन को तो अपने हिसाब से मोड़ने में सहज पाते थे, लेकिन बोस की स्पष्ट भारत की स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता और उसमें अहिंसा का समावेश न पाकर, अपने को असहज पाते थे.

यह समय सुभाष चन्द्र बोस के लिए भी बेहद बैचैनी का था, उनको सभी होने वाली घटनाओं और ब्रिटिश साम्राज्य के निर्णयों का पूरा आभास था, लेकिन वो कांग्रेस में गांधी और नेहरू को आने वाली विभीषिका और ब्रिटिश सम्राज्य के कुटिल इरादों को समझाने में असफल रहे.

कांग्रेस द्वारा पारित प्रस्ताव को ब्रिटिश सरकार द्वारा अस्वीकार कर देने और उनके द्वारा मुस्लिम लीग का कांग्रेस के विरुद्ध प्रयोग करने से गांधी और नेहरू दोनों के ही अहम पर चोट लगी थी, लेकिन वे यह स्वीकार करने के लिए तैयार नही थे कि सुभाष चन्द्र बोस ने भविष्य को उनसे बढ़िया पढ़ लिया था और उनकी अहिंसा से मोह और संघर्ष से विरक्ति की सोच हार गयी थी.

1940 में मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की मांग ने, जिसे ब्रिटिश सरकार का परोक्ष समर्थन था और साथ में गांधी और नेहरू की भारतीय जनमानस की अपेक्षा के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए अपनाई गई ढुलमुल नीति ने, सुभाष चन्द्र बोस को इस निर्णय पर पहुंचा दिया कि कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व भारत की स्वतंत्रता के लिए अप्रासंगिक हो गया है और उन्होंने कांग्रेस से निकल कर 22 जून 1940 में एक अलग दल, फारवर्ड ब्लॉक बनाने की घोषणा कर दी.

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