हिन्दू माता के एक महान पुत्र का पुण्य-स्मरण उनके अवतरण दिवस पर

भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन हिन्दू पुनरुत्थान का आन्दोलन भी था क्योंकि इस रण के जो भी सच्चे नायक थे, उन सबकी आस्था और मान्यता यही थी कि हिन्दू आदर्श, हिन्दू दर्शन, हिन्दू जीवन-परंपरा, हिन्दू जीवन-मूल्य, हिन्दू तत्व-दर्शन और हिन्दू शासन-व्यवस्था को अंगीकार किया जाना और उसके संरक्षण पर बल देना ही भारत के स्थायी स्वाधीनता की गारंटी है.

इसलिये वो चाहे जहाँ भी रहे इस जीवन-प्रवाह के साथ न केवल उनका सतत संबंध बना रहा बल्कि उनको जब भी मौका मिला इस शाश्वत मूल्य को प्रतिस्थापित करने के लिये वो कृतसंकल्पित भी रहे.

प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस भारत से निकलने के बाद आठ साल जापान में अज्ञातवास में रहे, इस दौरान जापानी कन्या से विवाह भी किया और उनसे संतान प्राप्ति भी हुई, जापान सरकार और जापानी जनता का असीम स्नेह भी उन्हें प्राप्त था पर इन सबके बाबजूद उनके अन्तस्थ: में हिंदुत्व की ज्वाला कभी भी धूमिल नहीं हुई.

जब जीवन की अंतिम संध्या आई तो रासू दा ने दो ही चीज़ माँगी थी, एक था तुलसी दल और दूसरी थी रुद्राक्ष की माला. जाने से पहले अपना विरासत उन्होंने सुभाष चंद्र बोस को सौंप दी.

सुभाष अधिकांश समय भारत से बाहर ही रहे पर उन्हें राम और रामायण विस्मृत नहीं हुए, गंगा उनसे दूर नहीं हुई, गोदावरी की कल-कल धारा उनके कानों में गूंजती रही. एक बार अपने रिश्तेदार को लिखे पत्र में उन्होंने स्वतंत्र भारत देश की अपना परिकल्पना बताते हुए लिखा था,

….अपना ये भारतवर्ष भगवान का बड़ा प्रिय स्थान रहा है. यहाँ भगवान ने अवतार लेकर पाप से बोझिल धरती का उद्धार किया और यहाँ के लोगों के हृदय में सत्य और धर्म को स्थापित किया. दक्षिण में स्वच्छ जल से परिपूर्ण पवित्र गोदावरी दोनों किनारों का स्पर्श करती है और कल-कल ध्वनि के साथ सागर की ओर निरंतर भागती जाती है. कैसी विचित्र है वह. उसे स्मरण करते ही रामायण की पंचवटी याद आ जाती है फिर स्मरण आते हैं राम, लक्ष्मण और सीता जो समस्त राज्य और संपदाओं का परित्याग कर स्वर्गिक सुख की अनुभूति करते हुये गोदावरी के तट पर समय व्यतीत कर रहे हैं.

आगे अपने पत्र में सुभाष पवित्र जाहनवी का, ऋषि वाल्मीकि की तपः-स्थली का, लव और कुश का तथा पावन भारत के वातावरण में गूँज रहे वेद-मन्त्रों का स्मरण करते हैं. भारत वर्ष से लुप्त हो गये उन मंत्रोच्चारों को सुभाष याद करने के बाद सुभाष की आँखों में यज्ञ करने के लिये हवन-सामग्री इकठ्ठा करते ऋषि कुमार घूमने लगते हैं. वो खुद से पूछ्ते हैं, कहाँ हैं उन ऋषिकुमारों के पवित्र मंत्रोच्चार और कहाँ हैं उनके यज्ञ-पूजनादि?

यानि स्वाधीन भारत का ये चित्र था सुभाष की आँखों में, वेद-कालीन भारत का.

1913 में लिखे एक दूसरे पत्र से ये पता चलता है कि सुभाष भारत का भाग्य-विधाता किसे मानते थे. वो लिखते हैं, कहाँ हैं वो आर्य वीर जो भारत माँ के लिये अपना जीवन उत्सर्ग कर सकें?

सुभाष राष्ट्र की दशा के साथ-साथ हिन्दुओं और हिन्दू धर्म की दशा को लेकर भी उतने ही चिंतित थे. अपने इसी पत्र में वो पूछ्ते हैं,

क्या केवल देश की दशा भी सोचनीय है? देखिये, भारत के धर्म की क्या दशा है? कहाँ है वह पवित्र सनातन धर्म और कहाँ है हमारा पवित्र आचरण? कहाँ है वह पवित्र आर्यकुल का ऋषि-समुदाय जिसकी चरण-रज लेकर यह धरती पावन हो गयी और कहाँ आज हम पतन में गिरे हुए उनके वंशधर. चारों ओर नास्तिकता, अनास्था और पाखण्ड का साम्राज्य है, यही कारण है कि हमें इतना दुःख उठाना पड़ रहा है.

सुभाष के उपरोक्त शब्दों से ये बड़ा स्पष्ट है कि उनकी ये कठोर मान्यता थी कि सिर्फ देश की ही नहीं हिन्दू धर्म की चिंता भी उतने ही महत्व की है और हिन्दुओं के अपने मूल धर्म से दूर होने के कारण ही भारत की ये अवनति हुई है.

यही प्रस्तावना लेकर संघ संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार उनसे मिले थे और उनकी बातें सुनने के बाद सुभाष ने उनसे कहा था कि डॉक्टर साहब, आपकी सारी संकल्पना अत्यंत शास्त्र शुद्ध और इतिहास-सम्मत है पर हिन्दू समाज इतना क्लीव हो चुका है कि मुझे नहीं लगता कि उन्हें फिर से पुरुषार्थी बनाया जा सकता है.

उनका जवाब सुनकर पूज्य हेडगेवार ने कहा था, आपने इतना कह दिया यही मेरे लिये काफी है, बाकी हिन्दू समाज को पुरुषार्थी बनाने का काम मैं कर लूँगा.

और डॉक्टर हेडगेवार और उनके आरएसएस ने ये किया भी.

भारत का दुर्भाग्य था कि नेताजी को भारत का मार्गदर्शन और नेतृत्व करने से वंचित करने का आसुरी षड्यंत्र सफल हो गया और नेताजी कथित विमान दुर्घटना के बाद भारत आ ही नहीं सके.

सोचिये अगर सुभाष भारत का नेतृत्व करते तो आज हम और आप किस भारत में जी रहे होते? “देश के साथ धर्म भी” जिस दिव्यात्मा का ध्येय था उसका मार्गदर्शन आज भारत और हिन्दू धर्म को कहाँ खड़ा कर चुका होता?

आज जिनके हाथों में भारत का नेतृत्व है, सुभाष के ये उद्गार उनके लिये भी पाथेय है और विचारणीय है कि उनकी अपनी नीति और दृष्टि भी क्या वही है जो सुभाष की थी?

23 जनवरी को महामानव सुभाष का पावन अवतरण दिवस है, उनको नमन करिये और उनके इन शब्दों को कि “धर्म और देश के लिये जीवित रहना ही यथार्थ जीवन है” अपना ध्येय-वाक्य बना लीजिये. हिन्दू-माता के इस महान पुत्र को इससे बेहतर श्रद्धान्जलि और क्या होगी?

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