सुभाष जन्मोत्सव 5 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी

गतांक से आगे…

1930 के मध्य में नेहरू और बोस, दोनों ही लोगों ने यूरोप का दौरा किया. बोस यूरोप में निर्वासित का जीवन व्यतीत कर रहे थे. उनका भारत में प्रवेश वर्जित था. उन्होंने वहां विभिन्न देशों की यात्रा की और विभिन्न देशों के राजनेताओं से अपने सम्बन्ध बनाये.

नेहरू तो पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुके थे लेकिन बोस का यह पहला मौका था. इस यात्रा ने बोस की विचारधारा को निखार दिया और उन्होंने वहां कम्युनिस्ट और फासिस्ट पार्टियों के कार्यकलापों और उनकी सरकारों की कार्यविधि का सूक्ष्मता से अध्ययन किया.

जिस समय बोस और नेहरू यूरोप की यात्रा पर थे, उस समय यूरोप की राजनीति बदल रही थी और युद्ध के बादल मंडराते दिख रहे थे. इन हालात में नेहरू, लोकत्रांतिक शक्तियों, ब्रिटेन और फ़्रांस को स्वतंत्र भारत का साथ देने का मन बना चुके थे लेकिन बोस, ब्रिटेन द्वारा स्वतंत्र किये जाने की किसी भी संभावना को नहीं देख रहे थे.

वो जब ब्रिटेन गए तो उन्होंने तत्कालीन कंज़रवेटिव सरकार के नेताओं से मिलने की कोशिश की लेकिन ब्रिटेन की सत्ताधारी दल के किसी भी नेता ने उनसे मिलने को मना कर दिया. हालाँकि लेबर पार्टी के नेताओं से मुलाकात हुई.

ब्रिटेन के इस रवैये को देख कर बोस इस नतीजे पर पहुंच गए थे कि स्वतंत्रता के लिए जिस अहिंसा का रास्ता कांग्रेस ने चुना है वो अब कारगर नहीं रह गया है और ब्रिटेन भारत को मौजूदा हालात में बिलकुल भी स्वतंत्र नहीं करेगा.

बोस ने ब्रिटेन को भारत से उखाड़ फेकने के लिए ब्रिटेन के शत्रु देशों से सहयोग लेने की अपनी सोच को और बलवती कर दिया और यहीं पहली बार नेहरू और बोस में भारत की स्वतंत्रता को लेकर वैचारिक बिखराव दिखा.

अपने यूरोप में बिताये निर्वासन काल में बोस ने, 1935 में ब्रिटेन में प्रकाशित, एक किताब The Indian Struggle लिखी, जिस की मूल पाण्डुलिपि, उनके 1934 में कराची पहुचने पर ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर के नष्ट कर दी गयी.

यह भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की 1920 से 1934 तक की कहानी थी. यह किताब बहुत कुछ कह जाती है, इस किताब में वो सब कुछ था जिस को लेकर गांधी, पटेल और बाद में नेहरू, बोस को राजनैतिक रूप से समाप्त करने में सहयोगी हुए.

इस किताब में बोस ने गांधी के स्वतंत्रता के लिए किये जा रहे तरीकों की आलोचना की थी. उनका मानना था गांधी उपनिवेशवादी ताकतों से संघर्ष करने में कुछ ज्यादा लिहाज और सिधाई बरत रहे हैं.

उन्होंने, गांधी के लिए लिखा था The best policeman the Britisher had in India. उन्होंने भविष्वाणी की थी कि कांग्रेस में वामपंथ से सहानभूति रखने वाले लोग विद्रोह करेंगे.

उन्होंने अपने भारत में सशक्त केंद्र की फेडरल सरकार की परिकल्पना की थी. राज्यों के अपने प्लानिंग कमीशन, पंचायती व्यवस्था की व्याहारिक पुनर्स्थापना और जमीन के मालिकाना व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन को उद्देश्य बताया था.

1935 में उन्होंने इटली के राष्ट्राध्यक्ष मुसोलोनी से मुलाकात कर उन्हें यह किताब दी थी. जबकि नेहरू ने मुसोलोनी से मिलने से इंकार कर दिया था.

बोस ने नेहरू के फासिज़्म के अंध विरोध को अस्वीकार कर दिया और कम्युनिज्म और फासिज़्म को भारतीय परिवेश के अनुसार उसकी अच्छाइयों को सम्मिलित करने का आह्वान किया.

नेहरू पूर्ण सोशलिज्म को ही भारत के भविष्य का एकमात्र विकल्प देखते थे और बोस सोशलिज्म को सिर्फ आधार बनाना चाहते थे लेकिन उसमे नाज़िस्म और फासिज्म व्यवस्था में पल्लवित अनुशासन और उद्यमिता का विनिमय चाहते थे.

यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि जहाँ बोस ने राजनैतिक जीवन में सैन्य जीवन का अनुशासन और सशक्त केंद्रीय सरकार की वकालत की थी, वहीं जर्मनी की नाज़िस्म के सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism) शासन व्यवस्था को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया था और राजनीति में और राजनैतिक पार्टियो में लोकतंत्र व्यवस्था की पुरजोर वकालत की थी.

इस परिदृश्य में कांग्रेस में बड़े बदलाव के लिए नेहरू ने सोशलिज्म के समर्थकों को एक साथ किया. बोस और मौलाना आज़ाद के सहयोग से 1936 में कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए.

1936 में नेहरू का, सुभाष चन्द्र बोस और मौलाना आज़ाद के सहयोग से कांग्रेस के अध्यक्ष बनना, कांग्रेस के उस युग का अंत था जिसका एक ही मूल उद्देश्य था कि भारत की स्वतंत्रता, सिवाय गांधी के अहिंसावाद के, किसी भी वाद के अधीन नहीं थी. जिसका मुख्य अस्त्र अहिंसा और असहयोग था.

वहीं नेहरू की 1936 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आसीन होने से कांग्रेस के सोशिलिस्मकरण के युग की शुरूआत हुयी. 1936 में कांग्रेस ने तय कर लिया था कि स्वतंत्रता के बाद किस विचारधारा के इर्द गिर्द भारत का भविष्य रहेगा.

यहाँ यह समझने की बात है कि नेहरू ने 1936 के कांग्रेस के अधिवेशन में गांधी के इससे असहमत होते हुए भी, सोशलिज़्म का एजेंडा प्रस्ताव पारित कराया और वहीँ गांधी के अंध अनुयायी पटेल एवं उनके समर्थको के पक्ष में, गांधी मौन रहे.

पटेल, नेहरू का विरोध कर सकते थे और उनके समर्थक भी खुल के उनके साथ थे लेकिन वो सफल नहीं हुए क्योंकि पटेल की कमजोरी, गांधी थे और गांधी की कमजोरी नेहरू थे.

नेहरू 1936 / 1937 में अध्यक्ष रहे और फिर 1938 में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. 1938 में बोस ने कांग्रेस के सोशलिज्म के ही आवरण में भारत के पूर्ण स्वराज को प्राप्त करने के लिए, बिटिश साम्राज्य से पूर्ण असहयोग, अहिंसा मार्ग को असफल स्वीकार कर उसे त्यागने और शक्ति का प्रयोग करने को केंद्र बिंदु बनाया.

बोस के आक्रामक नेतृत्व ने कांग्रेस के सदस्यों में नई स्फूर्ति का संचार कर दिया. सुभाष चन्द्र बोस का देश से यह आह्वान कि ‘ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए अहिंसा अप्रसांगिक हो गई है और देश को सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार होना चाहिए’, देश को छू गया था.

बोस के इस आह्वान से गांधी आहत हो गये. गांधी एक शांतिवादी थे और उन्हें युद्ध और संघर्ष से परहेज था, वो अपनी अहिंसावादी नीति से कांग्रेस को हटता नहीं देखना चाहते थे, इसलिए वो बोस के विरुद्ध हो गये और उनके अनुयायी बोस का हर कदम पर विरोध करने लगे.

नेहरू 1938 के अंत में विदेश चले गए थे और उनकी बोस से दूरी बढ़ गयी थी. बोस के फासिज़्म की विशेषताओं को सोशलिज़्म के साथ समन्वय बनाकर चलने के प्रति कटिबद्धता ने नेहरू को भी असहज कर दिया था.

नेहरू ज्यादा चिंतित इस बात पर थे कि जिस विचार को लेकर बोस चल रहे थे उसको स्वीकार्यता न सिर्फ कांग्रेस से बल्कि पूरे देश से भी मिल रही थी. यह उन्हें गवारा नहीं था क्योंकि नेहरू की राजनैतिक महत्वकांक्षा में बोस एक महत्वपूर्ण सहयोगी थे लेकिन बोस का कद अपने आप में स्वयं ही बढ़ता जा रहा था.

1939 के शुरू में वो विदेश से लौटे और गांधी के साथ बोस के खिलाफ मुहिम में जुड़ गए. पटेल का बोस से विरोध वैचारिक था, लेकिन गांधी की बोस के प्रति बढ़ती कटुता ने उन्हें नेहरू का सहयोगी बना दिया.

1939 में कांग्रेस के नए अध्यक्ष का चुनाव होना था, जिस प्रकार नेहरू दो साल तक अध्यक्ष बने थे, उसी तरह बोस को भी दो वर्षो के लिए अध्यक्ष होना था, लेकिन नेहरू इस मुद्दे से मुकर गए और बोस के पक्ष से हट गए.

गांधी ने पहले नेहरू से अध्यक्ष होने को कहा, लेकिन नेहरू ने अध्यक्ष पद के लिए खड़ा होने से इंकार कर दिया. उधर सुभाष चन्द्र बोस गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे, वो भी अपने होते हुए विरोध को देखते हुए, दोबारा अध्यक्ष पद पर खड़े होने से हिचकिचाने लगे थे.

उन्होंने अपने सहयोगियों से भी दुबारा न लड़ने की बात कही थी. नेहरू के इंकार के बाद गांधी ने मौलाना आज़ाद को खड़ा किया लेकिन मौलाना भी चुनाव में होने पर संभावित हार को देखते हुए चुनाव की स्थिति में अध्यक्ष पद के लिए पीछे हट गए.

गांधी इंतज़ार करते रहे कि बोस आधिकारिक रूप से दोबारा अध्यक्ष न बनने की घोषणा करें, लेकिन बोस ने ऐसा कुछ नहीं किया. गांधी ने पटेल को सामने करते हुए बोस पर दबाव बनाया कि बोस चुनाव में न खड़े हो बल्कि अब तक हो रहे सर्वसम्मति से अध्यक्ष पद पर चुने जाने की प्रक्रिया का पालन होने दे.

बोस ने स्पष्ट रूप से कहा, स्वतन्त्र देशो की तरह यहाँ कांग्रेस में भी एक निश्चित कार्यक्रम के तहत लोकतान्त्रिक तरीके से अध्यक्ष पद का चुनाव होना चाहिए. तब गांधी ने विशुद्ध राजनीति खेलते हुए, यह जानते हुए कि सुभाष चन्द्र बोस का समर्थन बंगाल और उत्तर भारत में है, दक्षिण भारत से आंध्रप्रदेश के डॉ पट्टाभि सीतारमय्या को कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए खड़ा किया. 29 जनवरी 1939 को हुए चुनाव में, सुभाष चन्द्र बोस ने गांधी के प्रत्याक्षी डॉ पट्टाभि सीतारमय्या को 203 मतों से हरा दिया.

यह हार, गांधी के जीवन की पहली हार थी. वो 1939 में, 1939 के भारत से कटने लगे थे, उन्होंने बोस को हराने के लिए राजनीति खेली थी, लेकिन बोस की कांग्रेस और देश पर पकड़ का आँकलन करने में चूक गए थे.

यहाँ यह जानना जरुरी है कौन था वो, जिसने बोस की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी और गांधी के दक्षिण भारत के मतों की गणित को परास्त कर दिया था.

यू मुथुरमलिंगम थेवर का नाम आप में से किसी ने सुना है?

यह नाम, बाद के इतिहासकारो में चंद लाइनो में दबा कर गुमनामी के अँधेरे में डाल दिया है. यह तमिलनाडु के सशक्त नेता थे और सुभाष चन्द्र बोस से बेहद प्रभावित थे. उन्होंने दक्षिण भारत के मतों को सुभाष चन्द्र बोस के पक्ष में डलवाया था.

गांधी बोस की जीत से इतना आहत हुए कि उसको व्यक्तिगत हार के रूप में ले लिया और उसकी सार्वजनिक घोषणा भी कर दी. गांधी हार जाएं, यह उनके अनुयायियों को गवारा नहीं था और उसके बाद कांग्रेस में लोकतंत्र के बलात्कार की कहानी शुरू हुयी.

गांधी ने महात्मा का चोला उतार फेंका और शुद्ध रूप से राजनीतिज्ञ की भूमिका में आ गये. उन्होंने अपने साथी पटेल और नेहरू के द्वारा बोस का विरोध और उनके खिलाफ अनर्गल प्रचार का हथकंडा अपनाया.

1939 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन त्रिपुरी (जबलपुर) में होना था लेकिन उससे पहले फ़रवरी में वर्धा में कांग्रेस कार्यकारी समिति का गठन होना था. बोस चूंकि बीमार थे इसलिए उन्होंने पटेल को टेलीग्राम भेज कर अपने न पहुंच पाने में असमर्थता दिखाई और साथ में गांधी को टेलीग्राम कर के नई कांग्रेस कार्यकारी समिति का गठन उनकी अपनी (गांधी की) इच्छानुसार करने के लिए अनुनय की.

सुभाष चन्द्र बोस जानते थे कि वो जीत तो गए है लेकिन द्वितीय युद्ध के पृष्ठ भूमि में कांग्रेस में बिखराव, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में विघ्न डालेगा. इसलिए उन्होंने गांधी से विनती कि वो अपनी इच्छा से ही नई कार्यकारी समिति का गठन करें. लेकिन गांधी अड़े हुए थे.

वो सुभाष चन्द्र बोस को कतई सहयोग देने के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने कांग्रेस कार्यकारी समिति का गठन करने से इंकार कर दिया. एक तरफ बोस गंभीर बीमारी से लड़ रहे थे और उधर गांधी, पटेल, नेहरू के सहयोग से बोस पर आक्रमण कर रहे थे.

बीमारी न ठीक होने के कारण बोस ने त्रिपुरी अधिवेशन में सम्मलित होने से भी असमर्थता दिखाई जिस पर गांधी ने कड़ा रुख अपनाते हुए स्पष्ट कर दिया कि यदि बोस त्रिपुरी अधिवेशन में नहीं उपस्थित हुए तो यह अधिवेशन निलंबित कर दिया जायेगा, जिसका अर्थ था, उनके चुनाव को मान्यता ही नहीं मिलेगी.

यहाँ यह याद रखने वाली बात यह है कि स्वयं गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने गांधी को पत्र लिखा था कि, सुभाष गंभीर रूप से अस्वस्थ है इसलिए गांधी को भी लचीला रुख लेते हुए विशाल हृदयता दिखानी चाहिए. लेकिन गांधी ने उनकी बात अनसुनी कर दी.

इसी बीच गांधी ने पटेल की अगुवाई में यह प्रचारित करना चालू कर दिया कि बोस में तानाशाह प्रवृत्ति है और वो कांग्रेस की कार्यकारी समिति में अपने ही लोगों को लेना चाहते है. जो कि बिलकुल असत्य था. स्वयं गांधी इस समिति के गठन में असहयोग कर रहे थे.

यही नहीं यह इल्जाम लगाते हुए, पटेल के साथ अन्य 11 लोगों ने उस वक्त की कार्यकारी समिति से इस्तीफा दे दिया. 1939 में जब त्रिपुरी में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन शुरू हुआ तो सुभाष चन्द्र बोस, स्ट्रेचर पर, तपते हुए बुखार में पहुंचे थे.

उसी हालत में, बोस ने अपना अध्यक्षीय भाषण पढ़ा लेकिन गांधी के शह पर, उनके समर्थको ने उनकी बीमारी का सार्वजनिक मजाक बनाया और उन पर मिथ्या आरोपों की झड़ी लगा दी.

उस अधिवेशन से बोस यह समझ गए थे कि कार्यकर्ता और देश तो उनके साथ है लेकिन गांधी, पटेल, नेहरू उनके विरुद्ध है. कांग्रेस के अन्य शीर्ष नेताओ द्वारा सहयोग न देने से आहत बोस ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस में ही फारवर्ड ब्लॉक नामक एक अलग समूह का गठन कर लिया.

इस प्रकार, गांधी की अगुवाई में, पटेल के सहयोग से और नेहरू की रणनीति के तहत, 1939 से ही बोस को भारत की राजनीति और भारत की जनता के मानस से विलुप्त करने का कांग्रेस के प्रयास का आरम्भ हुआ था.

1939 भारत और कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक रहा. 1939 में जो हुआ उसकी काली छाया, भारत के भविष्य पर आज तक पड़ रही है. इस वर्ष कई मिथक टूटे, जिसको स्वतंत्रता के बाद के इतिहासकारों ने, अपने स्वार्थवश, भारत की जनता के सामने कभी सही रूप से नहीं आने दिया.

1939 के भारत में, गांधी और उनका अहिंसावाद, भारत की जनता की पहली पसंद नहीं रह गए थे. गांधी 1939 तक आते-आते भारत की जनता की अपेक्षाओं से कट गए थे.

इस वर्ष गांधी जी, महात्मा का चोला उतार चुके थे, वो विशुद्ध राजनैतिज्ञ की भूमिका में आ गये और उन्होंने अपने अहम और अपने जिद्द के लिए देश के भविष्य को दांव पर लगा दिया था. लोकतंत्र की दुहाई देने वाले कांग्रेस के अग्रज, लोकतंत्र का गला घोटने में सभी मर्यादाओं का त्याग कर बैठे थे.

गांधी को अपनी अहिंसा की हार और उसकी भारत में अप्रासंगिकता का होना स्वीकार नहीं था. उनका उदेश्य अब भारत की जनता को समझना न होकर, जो उन्होंने मझा है उसे भारत की जनता में, महात्म्य के चोले में, गले उतारना था.

पटेल, उस पीढ़ी के थे, जहाँ घर का बड़ा बुजुर्ग चाहे जितनी भी अनर्गल बात करे, उसका विरोध तो दूर बल्कि उसके हर आदेश का एकल दृष्टि से पालन करना होता था. वहां सही और गलत का कोई मतलब नहीं रह गया था. पटेल ने गांधी की हार को, सिर्फ गांधी की हार न मान, अपनी हार के रूप में ले लिया था. वो गांधी के हन्ता योग बने.

नेहरू, जो भविष्य के भारत में, गांधी के आशीर्वाद से, अपनी सर्वोच्च भूमिका के प्रति आश्वस्त थे वो अपने से छोटे बोस, जिन्हे वो खुद अपने आगे बढ़ने का हथियार समझते थे, की सिर्फ एक साल में कांग्रेस के अध्यक्ष रूप में देश और पार्टी में प्रभावी पकड़ को देख कर विचलित हो गये थे.

बिना बोस को कांग्रेस में पराजित किये और नेपथ्य में धकेले, नेहरू की राजनैतिक महत्वकांक्षा पूरी होने में संदेह था. नेहरू के लिए बोस को रास्ते से हटाना अनिवार्य ही था.

सुभाष चन्द्र बोस, वास्तविकता में 1939 में गांधी, पटेल और नेहरू से बड़े हो गये थे. भारतीय जनता में एक नई आशा और नई उम्मीद का संचार हो गया था. पिछले 20 सालो से अहिंसावाद के समकक्ष देश को, बोस ने एक नया रास्ता दिखाया था, जिसे भारत की जनता ने स्वीकार कर लिया था.

लेकिन भारत की जनता की नई पसंद ने सभी पुरातन गाँधीवादी अहिंसावादी कांग्रेसी नेताओ को अप्रासंगिक हो जाने का भयावह सपना भी देखा दिया था. इसलिए इन सबने, लोकतंत्र और देश की जनता की आकांक्षाओं का गला घोटते हुए सुभाष चन्द्र बोस की राजनैतिक हत्या की.

गांधी, पटेल और नेहरू इन तीनो के हाथ सुभाष चन्द्र बोस के खून से लाल रंगे हुए है.

क्रमश: 6

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