“मेरा चश्मा कहाँ है?” माँ जी पूरी ताकत से चिल्लाई.
“अरे नालायको फिर मेरा चश्मा उठा ले गए क्या? मेरा तो इस घर में जी दुखी हो गया है. न जाने क्या खाकर पैदा किया है इन चुड़ैलों ने औलादों को. सारे दिन मेरे सामानों के पीछे पड़े रहते हैं. कभी कोई चश्मा उठाकर ले जाएगा तो कभी मेरी एक चप्पल कानपुर में मिलेगी तो दूसरी बंगलौर में. और इस छोटे की औलाद तो इतनी अफलातून है कि शैतान भी शरमा जाए.
लाख खिलौने बाप ने लाकर घर में भर रखे हैं मगर इन्हें तो चाहिए मेरा चश्मा. चप्पले छड़ी और तो और एक दिन तो हद ही हो गयी. बरसात होकर थमी थी बच्चे बाहर रेत में घरौंदे बना रहे थे, देखूं तो डिब्बी में से मेरे दांत गायब… छड़ी उठाकर बाहर लपकी तो पता लगा कि इन शैतानों की औलादों ने एक मिट्टी का पुतला खड़ा कर रखा है और उसे मुंह में मेरे दांतों का सेट सजा रखा है.
मैंने भी कह दिया, “अपनी माँ चुड़ैलों की तस्वीर बना रहे हो क्या?
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माँ जी के कमरे से सारे दिन ऐसी आवाजें आती रहती….. ऐसे मौके पर जब माँ जी की आवाज़ में ज्यादा क्रोध सुनाई देता तो दोनों में से कोई एक बहू चुपचाप कमरे में आती… माँ जी की अनवरत चलती हुई झिड़कियों झेलते हुए चुपके-चुपके मुस्कुराती हुई व्यवस्था ठीक करके खिसक जाती…..
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गर्मियों की छुट्टियां थी, बच्चे सब नाना के घर…
माँ जी की आवाज़….
“अरे नालायकों मेरा चश्मा कहाँ है?
बहू पल्लू से हाथ पोंछते हुए दौड़ी…. चश्मा तो आपके सामने ही पडा है माँ जी और बच्चे तो मामा के यहाँ….
पता है दिख रहा है…. मेरी आँखें नहीं फूट गयी…. अच्छा है शैतान कुछ दिन वहीं रहे…
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कुछ घंटे बाद माँ जी के कमरे से फिर आवाज़ आई….
अरे मेरी छड़ी कहाँ है??
आई माँ जी और आपकी छड़ी तो वहीं दरवाज़े के पीछे ही तो पड़ी है…
अरे रहने दे…. ज़रा सी आवाज़ मुंह से निकली नहीं और छाती पर आकर खड़ी हो जाती है….
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अरे बहू ज़रा रेडियो तो चला दे ये सन्नाटा मुझे खाए जा रहा है…. सारा दिन रसोई में घुसी रहती है….
शाम को दोनों बेटों की खबर ली गयी…
क्यों रे तुम दोनों के दिलों में माया ममता बिलकुल मिट गयी है क्या?? बालक आठ दिन से दूसरे के दरवाज़े पर पड़े हैं… तुम्हारे घर में रोटियों के लाले हैं क्या….
पर माँ जी आपको तो इतना परेशान करते रहते हैं….
मुझे करते हैं न परेशान… इससे तुझे क्या… कल सुबह चला जा… और बच्चों को घर ले आ…..
– रविन्द्र कान्त त्यागी की कहानियों की पुस्तक प्रतिघात से कहानी “चिल्ल-पौं”