जीवन में कई बार हमारे बड़े हमारे लिए कोई सख्त फैसला लेते हैं तो हमारी भलाई के लिए ही लेते हैं. लेकिन हम उस समय समझ नहीं पाते कि बड़े कभी भी हमारा बुरा नहीं चाहते, इसलिए हम उनसे नाराज़ हो जाते हैं, कई बार उनका अपमान भी कर बैठते हैं.
हैं ना! आपमें से कइयों के साथ ऐसा हुआ होगा जब आपकी मर्ज़ी के खिलाफ आपको अपने बड़ों का कहा मानना पड़ा होगा तब आपको बहुत गुस्सा आया होगा.
चलिए अपने अपने उस किस्से को ध्यान में रखते हुए ये कहानी सुनिए जो मेरे दादाजी ने मुझे सुनाई थी….
अच्छा एक बताओ बच्चों, आजकल हम जो हिन्दी बोलते हैं, उसमें अधिकतर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग करते हैं… हमारी भाषा हिन्दी और अंग्रेज़ी की खिचड़ी सी हो गयी है… और मुझे पता है… आप में से कई लोगों को खिचड़ी खाना बिलकुल पसंद नहीं होगा… या तो आप घर में बना गर्मागर्म हलवा खाते हैं या बाहर जाकर पिज़्ज़ा… कोई आपसे कहें कि हलवा और पिज्जा मिलाकर खाओ तो आपको अच्छा लगेगा? नहीं ना… तो हम भी प्रयास करेंगे कि हिन्दी बोलते समय केवल हिन्दी का प्रयोग करें…
चलिए अब सुनते हैं दादाजी की कहानी…
मैं कॉलेज के द्वितीय वर्ष का छात्र था जब मेरे पिताजी का तबादला दूसरे शहर हो गया था. और मुझ पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा…. क्योंकि पिताजी अम्मा और छोटी बहन दोनों को साथ ले जा रहे थे..
जीवन में ये पहला अवसर था जब मुझे अकेले रहना था. मैंने पिताजी से बहुत कहा कि आप परीक्षा तक तबादला रुकवा दीजिये, तो मैं भी साथ चल सकूंगा…
पिताजी का उत्तर सुनकर मैं और भी अधिक निराश हो गया…. – “अच्छा तो बेटाजी अभी भी बड़े नहीं होना चाहते, अम्मा का पल्लू पकड़ पकड़ कर पूरी ज़िंदगी निकाल लेने का इरादा है…. आपके साथ कोई नहीं रुकेगा, आप अपनी परीक्षा ख़त्म होने तक यहाँ अकले ही रहेंगे…”
इस वक़्त मुझे पिताजी दुनिया के सबसे क्रूर इंसान दिखाई दे रहे थे… मैं सोचने लगा, “हे भगवान आपको भी इस हिटलर के घर ही पैदा करना था मुझे…” (हिटलर कौन था पता है? चलिए आज घर में किसी बड़े से इस बारे में पूछिएगा… पता चल जाएगा हिटलर कौन था और नहीं पता चले तो आजकल इन्टरनेट पर सबकुछ उपलब्ध है… सर्च मारिये और पूरी जानकारी मिल जाएगी)…
फिर क्या था….. एक हफ्ते बाद पिताजी, अम्मा और छोटी बहन मुझे घर में अकेला छोड़कर दूसरे शहर चले गए…
अब मैं और मेरे साथ मेरे चाय नाश्ते की ज़रूरतें, कपड़े बर्तन धोने की लाचारी और रात को घर में अकले होने का डर था…. फिर भी जैसे तैसे गाड़ी चल रही थी….. सुबह चाय नाश्ता करके कॉलेज चला जाता… वहीं कॉलेज की कैंटीन में खाना खा लेता, कॉलेज से लौटकर कपड़े और चाय के बर्तन साफ़ करके थोड़ी देर पढ़ाई करता… शाम को किसी दोस्त के घर चला जाता और लौटते में किसी भोजनालय में भोजन करते हुए घर….
उसी दौरान मालूम पड़ा कि घर बिना घरवालों के घर नहीं होता…. केवल एक धर्मशाला होता है जहां आपको खाने पीने और सोने की व्यवस्था तो मिलती है… लेकिन घर, घर तो घरवालों के प्रेम से ही बनता है…. जब भी मैं अकेलापन अनुभव करता घर काटने को दौड़ने लगता…. जिस प्राइवेसी के नाम पर अम्मा और छोटी बहन से लड़ लेता था वही प्राइवेसी अब हॉरर फिल्म की तरह डरा रही थी…..
अब इसका क्या उपाय निकाला जाए… उस ज़माने में मोबाइल का आविष्कार तो हुआ नहीं थी… फोन भी सबके घर में नहीं हुआ करते थे तो पत्राचार ही इकलौता माध्यम था… तो उस दौरान मैंने अम्मा पिताजी को पत्र लिखना शुरू किया…. और वहां से बिना विलम्ब हर पत्र का जवाब आता था….
ख़त लिखते हुए ऐसी कई बातें मैंने घरवालों के साथ साझा की जो कभी उनसे कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था…. कई बार लिखने को कुछ नहीं होता था तो कॉलेज में किस लड़की से क्या बात हुई, किस दोस्त से किस बात पर झगड़ा हुआ सब लिख देता था….
और वहां से जब अम्मा या पिताजी का जवाब आता तो अचंभित हो जाता कि जिस अम्मा को मैं दुनिया से कटी हुई सिर्फ एक घरेलू औरत समझता था जिसे अपनी रसोई की दुनिया के अलावा कोई और दुनिया नज़र नहीं आती थी , वही अम्मा मुझे ऐसे स्वच्छंद जवाब और सलाह लिख भेजती थी जैसे किसी मित्र से बात की जाती है….
सिर्फ पत्राचार के द्वारा हमारी उम्र और जनरेशन के बीच की दूरी दूर हो गयी थी… हम अच्छे दोस्तों की तरह बातें करने लगे थे….
हाँ पिताजी के सिद्धांत कुछ अलग ज़रूर थे जो मुझे बाद में समझ आये…. उस समय तो पिताजी ने मेरी अलग से दी जा रही पॉकेट मनी भी बंद कर दी थी… हिम्मत जुटा कर कारण पूछा तो उन्होंने लिख भेजा “अभी हाथ थोड़ा तंग है दो जगहों का खर्चा उठाने के कारण, थोड़े दिन कम पैसों में काम चला लो”
अब पैसे उतने ही भेजे जाते थे जितना खाने के लिए और कॉलेज की फीस के लिए लगने थे. यहाँ अकेले रहते हुए दोस्तों के साथ घूमना, फिल्म देखने जाना और बहुत से व्यक्तिगत खर्चे बढ़ गए थे मेरे… ऊपर से पैसों की कटौती…..
एक दिन दोस्तों से बातों ही बातों में पता चला कि मेरा एक दोस्त कॉलेज के बाद ट्यूशन पढाता है क्योंकि उसे घर से ज़्यादा मदद नहीं मिलती थी और उसे अपनी पढ़ाई खुद के ही बल पर पूरी करनी थी… मुझे याद आ गए वो दिन जब छोटी बहन मुझसे पढ़ाई में मदद मांगती थी तो मैं उसे टाल जाया करता था कि नहीं मुझसे नहीं बनेगा…. आज इसलिए किसी और को ट्यूशन पढ़ाने का मन नहीं हुआ…
फिर क्या किया जाए? मुझे पैसों की आवश्यकता तो थी…. कहते हैं ना जब आपके मन में कोई कार्य करने की दृढ़ इच्छा उत्पन्न हो, तो कोई न कोई रास्ता निकल ही आता है…. ऐसे में एक मित्र ने मुझे अपने पिताजी की प्रिंटिंग प्रेस में प्रूफ रीडिंग का काम दिला दिया… क्योंकि मेरी हिन्दी बहुत अच्छी थी… और फिर मुझे याद आये वो दिन जब बचपन में पिताजी मेरे लिखे हुए में गलतियां निकाल कर लाल लाल गोले बना देते थे और मुझसे दुबारा सबकुछ लिखने की सज़ा मिलती थी….
तब मैं पिताजी से बहुत नाराज़ हो जाया करता था और अम्मा से शिकायत करता था… अम्मा तब मुझे प्यार से समझाती थी… बेटा किसी घर को मजबूती प्रदान करना हो तो उसकी नींव मजबूत करना ज़रूरी होता है… पिताजी जो कर रहे हैं तुम्हारे अच्छे के लिए ही तो कर रहे हैं ना.. दोबारा सही तरीके से लिखोगे तो तुम्हें वो हमेशा के लिए याद रह जाएगा…
आज वही सीख मुझे काम आ रही थी… वही सीखा हुआ मेरी कमाई का साधन बन रहा था….. फिर क्या था मैं कॉलेज के बाद सीधे प्रेस चला जाता, छोटा मोटा काम हो तो वहीं बैठकर कर लेता था, ज़्यादा हो तो घर ले आता… इससे मेरे शाम का समय भी कट जाता, बिना काम के इधर उधर भटना कम हो गया था… पहली बार अपनी खुद की कमाई हाथ आने पर कितनी खुशी मिलती है ये पता चला… ये ख़ुशी केवल पैसों की नहीं थी, ये खुशी आत्मनिर्भर बनने की थी… अपने पैरों पर खड़े होने की थी….
इसका जो सबसे अधिक लाभ मिला वो ये था कि प्रूफ रीडिंग के दौरान मुझे देश विदेश की हिन्दी अंग्रेज़ी दोनों तरह की किताबें पढ़ने का मौक़ा मिला… कई लेखकों की कहानियां, उपन्यास और लेख पढ़ें…. जिन्होंने मेरे अंदर की प्रतिभा को और अधिक उजागर किया…..
प्रूफ रीडिंग के समय मुझे किसी लेखक का लिखा हुआ अनुकूल नहीं लगता तो मैं उसके जवाब में अपने विचार अपनी डायरी में लिखने लगा था…. मेरी दिलचस्पी अब धीरे-धीरे किताबों में बढ़ने लगी थी..
दोस्त घर पर आते और कहीं बाहर घूमने का कार्यक्रम बनाते, तो मैं उन्हें उन्हीं किताबों की कुछ अद्भुत किस्से सुनाते हुए उनका ध्यान बंटा देता….
घर पर ही चाय नाश्ते की व्यवस्था कर उनके सामने किसी लेखक की लिखी विशेष बात का ज़िक्र छेड़ अपने विचार रखने लगता तो प्रतिक्रया स्वरूप वे भी अपनी बात कहने लगते… कई बार बहस भी हो जाती लेकिन ये सब कुछ हमारे ज्ञान में वृद्धि ही कर रहा था क्योंकि हम किसी बात पर सहमत ना होते हुए भी कभी झगड़ते नहीं थे… इसे ही तो स्वस्थ बहस कहते हैं… जिसका मुख्य आधार बेबुनियाद बातें नहीं बल्कि ठोस तर्क होते थे….
धीरे धीरे घर में ही इस तरह की महफ़िलें जमने लगी… साहित्य, राजनीति, धर्म, समाज में चल रही घटनाओं पर बातें और कभी कभी बहस होती… कई दोस्त अपने अन्य दोस्तों को भी साथ लाने लगे थे…. हमारा समूह बढ़ता जा रहा था…. कई बार मिलकर फिल्म देखने भी जाते थे, लेकिन वहां से लौटकर भी उस फिल्म की कहानी, पटकथा, कलाकार, निर्देशन पर ही बहस होती….. देखते ही देखते हमारा समूह बहुत सक्रीय हो गया था….
हर इंसान के अन्दर कोई न कोई प्रतिभा अवश्य होती है… और ऐसी प्रतिभाएं अवसर न मिलने पर कहीं दबी पड़ी रह जाती है…. और कुंठा बन जाती है… और फिर ध्यान इधर उधर भटकने लगता है… लेकिन उस प्रतिभा को बराबर हवा, पानी, धूप मिलती रहे तो एक फलदायी वृक्ष बन सकती है .. यह मुझे तब ज्ञात हुआ जब हम सबने मिलकर अपना एक साप्ताहिक अखबार निकालने की योजना बनाई, जिसमें समाज के ज्वलंत विषयों पर लिखा जाने लगा. हम उस अखबार को कॉलेज में अपने दोस्तों के बीच ही बेचने लगे थे….
अखबार बेचते हुए पिताजी की एक बात हमेशा मेरे मन में रहती वो कहते थे… कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता, जो काम आपको खुशी और समाज और देश को लाभ दें वो काम कभी छोटा नहीं होता…
धीरे धीरे वह अखबार इतना प्रसिद्ध हो गया कि शहर के अन्य कॉलेज की तरफ से भी मांग आने लगी…. दूसरे कॉलेज के विद्यार्थी भी अखबार से जुड़ने लगे… अखबार की बिक्री बढ़ने लगी….
इस बीच मुझे ख्याल ही नहीं आया कि पिताजी को बहुत दिनों से कोई पत्र ही नहीं लिखा पाया था. उनके पिछले सभी पत्रों में वे चिंता व्यक्त कर रहे थे कि मैं आजकल जवाब नहीं देता…
फिर एक दिन मैंने उन्हें एक तार भेजा जिसमें लिखा था- आप अम्मा के साथ तुरंत मुझसे मिलने आइये…
तार पाते ही अम्मा पिताजी और छोटी बहन सुबह की गाड़ी से शहर आ गए. घर पर कुछ दोस्तों को छोड़ रखा था कि वे उनको मेरे पास ले आएं. पिताजी के बहुत पूछने पर भी दोस्तों ने पिताजी को कुछ नहीं बताया और कहा कि आप तुरंत हमारे साथ चलिए….
वे अम्मा पिताजी को विश्वविद्यालय के केम्पस में ले आए…. जहां पर मुझे उस अखबार के लिए कुलपति के हाथों पुरस्कार मिल रहा था…. पिताजी और अम्मा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. जब मुझे कुछ कहने के लिए माइक दिया गया तो मैंने यही कहा कि ये पुरस्कार मैं उस हिटलर के नाम करता हूँ जो मुझे ये सोचकर शहर में अकेला छोड़ गए थे कि मैं कम से कम अपना काम खुद करना सीख जाऊं… लेकिन आज उनकी ही वजह से आज मैं यहाँ तक पहुँच सका हूँ…. मैं स्टेज से नीचे उतरा, पिताजी और अम्मा को स्टेज पर लेकर आया और उनके हाथ में पुरस्कार देकर दोनों के चरण स्पर्श किये….
छोटी बहन से रहा नहीं गया, वो भी दौड़कर स्टेज पर आ गयी और मुझसे लिपट गयी… सब दोस्तों ने अम्मा पिताजी के चरण स्पर्श किये…. ये मेरे जीवन का पहला पुरस्कार था जिसकी चमक अम्मा पिताजी की आँखों आये आसुओं में साफ़ दिख रही थी….