पुलिस के लिये मुगल और नवाबी काल से कब आज़ाद हो सकेगा भारत?

भारत की (विशेषकर हिन्दी बेल्ट की) पुलिस अपनी कागजी कार्यवाही में, लेखन व एफआईआर समेत चालान, केस पेपर्स में साधारण बोलचाल एवं प्रचलित आम भारतीय या अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल करने की जगह ‘फारसी और अरबी – उर्दू’ के शब्दों का इस्तेमाल क्यूँ जारी रखे हुऐ है… जो ना तो आम लोगों की समझ में आते हैं, ना ही वकील और अदालतें ही समझ पाते हैं पूरी तरह…

उर्दू, अरबी, फारसी के शब्दों का समावेश कही जाने वाली पुलिस की शब्दावली में अननिगत शब्द तकनीकी रूप से आम समझ से दूर हैं.

पुलिस में एक वाक्य को एक शब्द में पिरोने वाले अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग किया गया वही चलन में आ गया.

इन तथाकथित ‘ऐतिहासिक शब्दों’ की सचाई यह है कि ये आम जनता के लिए कभी प्रयोग नहीं हुऐ, हाँ ये भी सही है कि नई पीढी के पुलिसकर्मी ऐसे शब्दों का कम से कम प्रयोग कर रहे हैं अब पर दाल में नमक बराबर, बस!

थानों में दर्ज होने वाली एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) की भाषा कभी पूरी तरह आम भारतीय जन के समझ नहीं आई, ना आ रही है, ना आ सकती है.

पुलिस विभाग में अरबी, फारसी और उर्दू के शब्द मुगलकाल से ही चले आ रहे हैं जिनके शाब्दिक अर्थ आम आदमी के सिर के उपर से निकल जाते हैं.

एफआईआर में उर्दू भाषा के शब्दों के अलावा कई कठिन भाषाओं (अरबी – फारसी – पश्तो) के शब्दों का इस्तेमाल होता रहा है, यह शब्द आम आदमी की समझ से कोसों दूर होते हैं.

आमतौर पर आज भी पुलिस किसी भी एफआईआर या अन्य कार्रवाई में उर्दू, अरबी व फारसी शब्दों का ही अधिकतम प्रयोग करती है क्योंकि यह शब्दावली आम आदमी की समझ से परे जो है. साथ ही इन्हें समझने के लिए पुलिस को भी विशेष प्रशिक्षण देना पड़ता है.

एफआईआर आदि कार्यवाही में इमरोज_मन, तहरीर, पुलंदा, हजा, बगर्ज, मुद्दई, मज़रूब, जरायम जैसे फारसी शब्दों का काफी प्रयोग किया जाता है और यह किसी आम आदमी के लिए समझना नामुमकिन-सा लगता है.

आज भी लगभग हर एफआईआर में लिखा होता है कि –

‘साहब, मजरुब राजेश, जेरे इलाज मिला, जिससे पूछताछ अमल में लाई, जिसने अपना बयान तहरीर कराया जो बयान बाला-हालात से मुलाहजा एमएलसी से सरेदस्त सूरत जुर्म दफा 307 का सरजद होना पाया जाता है। लिहाजा तहरीर हजा बगर्ज कायमी मुकदमा दर्ज करके इत्तिला दी जावे।’

कोई विदेशी समझदार भी ये पढ कर कह सकता है कि यह फारसी मिश्रित उर्दू और भाषा न जानने-समझने वाले किसी भी आम भारतीय आदमी की समझ से बहुत दूर होती है.

अब अंततः मेरा आज भी एक बहुत ‘मासूम सा सवाल’ है कि आखिरकार जेरे वक्त बा जरूरत हमारी ‘भारतीय पुलिस’ का दैनिक कार्यों व लेखन हेतु प्रमुखता से फारसी और अरबी सरीखी विदेशी और प्रचलन से बाहर विदेशी भाषाओं से ही प्रेम का क्या कारण है, वो क्यों राष्ट्र की भाषा हिन्दी का पूर्ण सम्मान नहीं करना चाहती?

आज की भारतीय पुलिस के लिये हमारा भारत मुगल व नवाबी काल से बाहर आ कर, कब तक आजाद हो सकेगा?

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