सुभाष जन्मोत्सव 4 : ‘महात्मा’ के चोले में छिपे राजनीतिज्ञ गांधी को बेनक़ाब कर गए नेता जी

गतांक से आगे…

भारत के इतिहास में 1930 का दशक बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ. इस दशक से पहले गांधी राष्ट्र और कांग्रेस के सर्वमान्य नेता थे और 30 दशक में पटेल, नेहरू और बोस उनकी छत्र छाया में ही अपनी-अपनी जगह बनाने में सफल हो गये थे.

पटेल के राजनैतिक जीवन में सबसे पहला बड़ा पड़ाव तब आया जब वो कांग्रेस के 1931 के कराची महाधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष बने. यहाँ कांग्रेस के मुख्य उद्देश्यों, भारतीयों को मूलभूत अधिकारों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, तयशुदा न्यूनतम वेतन, अस्पृश्यता का पूर्ण बहिष्कार और स्वतंत्रता के प्रति कटिबद्धता को स्पष्ट रूप से रखा गया और उसे स्वीकार कराया.

1932 में राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस की असफलता के बाद गांधी और पटेल गिरफ्तार कर लिए गए. इस कारावास काल में गांधी और पटेल और करीब आये. पटेल ने, गांधी के कई विचारों के प्रति सशंकित होते हुए भी उनको अपना सर्वभौम नेता माना और बड़े भाई के रूप में स्वीकार कर लिया.

गांधी के, अहिंसा दर्शन और भारत की स्वतंत्रता के लिए केवल इसी पथ की स्वीकार्यता, को उन्होंने आत्मसात कर लिया. पटेल अपने विचारो के प्रति दृढ़ थे और उनकी इसी दृढ़ता ने जहाँ आज़ादी के बाद भारत में अन्य राजा रजवाड़ों के राज्य का विलय कराया, वहीं आज़ादी से पहले भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में दूरगामी परिणामों की नींव भी रखी.

1934 में जेल से छूटने के बाद पटेल की भूमिका कांग्रेस में और भी महत्वपूर्ण हो गयी. कांग्रेस ने चुनावों में भाग न लेने के अपने पुराने निर्णय को बदल दिया था और पटेल मुंबई में रह कर कांग्रेस के चुनाव लड़ने और जिताने की रणनीति के मुख्य धुरी बन गए.

वे कांग्रेस के चंदा इकठ्ठा करने के प्रमुख थे और उन्होंने प्रत्याक्षियों के चयन और उनकी वित्तीय सहायता करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. इस तरह पटेल का कांग्रेस के संघठन पर जबरदस्त असर बढ़ता गया और चूंकि पटेल बेहद ईमानदार, अड़ियल और कट्टर गांधी भक्त थे, इसलिए लोग उनकी तरफ देखने लगे थे.

इधर पटेल 30 के दशक में देश और कांग्रेस में अपनी छाप छोड़ रहे थे, वहीं नेहरू कांग्रेस में एक तेज तर्रार खूबसूरत शख्सियत के तौर पर स्थापित हो चुके थे. 1927 में नेहरू ने ब्रिटिश सम्राज्य से सभी संबंधों को तोड़ने और पूर्ण स्वतंत्रता का आवाहन किया था, लेकिन गांधी के विरोध के कारण उनके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया था क्योंकि गांधी उस समय की हकीकत समझ रहे थे.

ब्रिटिश साम्राज्य भारत के हिन्दू समाज को छुआछूत के आधार पर बांटने का प्रयास कर रहा था जिसका गांधी विरोध कर रहे थे. नेहरू अपने नैसर्गिक पाश्चात्य संस्कृति और वहां पल्लवित हो रही सोशलिज्म से बेहद प्रभावित थे.

20 के दशक के आखिरी काल में नेहरू ने यूरोपीय देशों की यात्रा की और भारत की स्वतंत्रता के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल करने का प्रयास किया. इन्ही प्रयासों के क्रम में नेहरू ने ब्रुसेल्स, बेल्जियम में पराधीन देशों के एक सम्मेलन में शिरकत की और भारत के प्रतिनिधि के रूप में एग्जीक्यूटिव काउंसिल ऑफ़ द लीग अगेंस्ट इम्पीरियालिज्म के लिए चुने गए.

इस तरह अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में नेहरू की पहचान बन गयी. 1929 में लाहौर महाधिवेशन में नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बने और सम्पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव को न केवल पारित कराया बल्कि पहली बार भारत के तिरंगे को फहराया और 26 जनवरी को भारत की आज़ादी के दिन के रूप में मनाने का आवाहन किया. लाहौर महाधिवेशन के बाद नेहरू भारत के स्वतंत्रता संग्राम के पहली पंक्ति के नेता के रूप में स्थापित हो गये.

यहाँ यह गौर करने की बात है कि नेहरू, 1930 के आते-आते अंतर्राष्ट्रीय रूप में, गांधी के बाद स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्वीकार्य हो गये थे और भारत में भी एक अग्रिम पंक्ति के स्वतंत्रता संग्राम के नायक बन गए थे, वहीं पटेल देर से राजनीति में आये और देर से स्थापित हुए.

नेहरू अंतर्राष्ट्रीय रूप में पहचान बना चुके थे और पाश्चात्य सभ्यता और वहां से उपजे दर्शनों से प्रभावित थे, वहीं पटेल शुद्ध रूप से भारत की सभ्यता और संस्कृति में अपनी जड़े जमाये हुए थे. उनको भारत की असली तस्वीर, उसके ग्रामीण अंचल की विषमताओं और उसके अंतर्द्वंद का एहसास था.

पटेल और नेहरू, इन दोनों में नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस के करीबी थे. स्वतंत्रता के संघर्ष में मंडले जेल यात्रा के उपरांत, 1927 में बोस कांग्रेस के महासचिव बन गए और नेहरू के साथ कंधे से कंधा मिला कर स्वतंत्रता संग्राम में संघर्ष किया.

1927 में नेहरू के ब्रिटिश साम्राज्य से सभी संबंधों को तोड़ने और पूर्ण स्वतंत्रता के आह्वान को सुभाष चन्द्र बोस ने भरपूर समर्थन दिया था. 1930 के आते आते नेहरू और सुभाष चन्द्र दोनों भारत के युवा तुर्क नेता के रूप में पहचाने जाने लगे थे.

1930 में बोस कलकत्ता के मेयर बन गए और वहीं से उनकी खुद की भारत के भविष्य को लेकर विचारधारा और उसके आगे के स्वरूप का मानचित्र भी बना लिया था, इसका सबसे पहले खुलासा उनके मेयर के रूप में पहले भाषण में होता है.

इस भाषण में उन्होंने कहा था, हमारी नीतियों और कार्यक्रम में आधुनिक यूरोप की सोशलिज्म और फ़ासिस्म का समन्वय होगा. एक तरफ न्याय, परस्पर समानता और आपसी सौहार्द्र होगा जो कि सोशलिज्म का आधार है और दूसरी तरफ फ़ासिस्म की कार्य निपुणता और अनुशासन होगा.

सुभाष चन्द्र बोस के विचार उस वक्त के लिए बेहद खलबली मचाने वाले थे. बाद के पाश्चात्य और वामपंथी इतिहासकारों ने बोस के चरित्र चित्रण में सिर्फ फासिस्म को पकड़े रखा और उसके जिस मूल को बोस ने पकड़ा था, उसको भुला दिया.

1930 में स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी की अहिंसा, हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा और अस्पृश्यता के अलावा भारत के वर्तमान और भविष्य को लेकर अलग अलग वैचारिक धाराएं स्पष्ट दिखने लगी थी.

एक तरफ दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थक वल्लभ भाई पटेल, डॉ राजेंद्र प्रसाद और चक्रवर्ती राजगोपालचारी थे और दूसरी तरफ वामपंथी विचारधारा से प्रभावित जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस और मौलाना कलाम आज़ाद थे.

नेहरू, भारत के भविष्य के लिए सोशलिज्म को कांग्रेस का केंद्र बिंदु बनाना चाहते थे लेकिन पटेल का इससे सैद्धांतिक विरोध था. उनका अपना स्पष्ट मानना था कि सोशलिज्म को मूल आधार बनाने से, ब्रिटिश साम्राज्य को कांग्रेस के प्रतिनिधियों के बीच फूट और अविश्वास फ़ैलाने का मौका मिलेगा जिससे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में बिखराव होगा और कांग्रेस सम्पूर्ण स्वतंत्रता के मूल उद्देश्य से भटक जाएगी.

इस वैचारिक संघर्ष की पहली बलि डॉ राजेंद्र प्रसाद हुए जिन्हे कांग्रेस अध्यक्ष पद से नेहरू ने बोस और मौलाना आज़ाद की सहायता से 1936 में हटवा दिया और उनकी सहायता से कांग्रेस के 36 और 37 में अध्यक्ष बन गए.

इस तरह कांग्रेस में सोशलिज्म मुख्य केंद्र बिंदु में आ गया. गांधी जी, कांग्रेस से 1934 में इस्तीफा देने के बाद, उसी साल कांग्रेस में वापस लौटे थे लेकिन इन विचारधाराओं की लड़ाई में पटेल के दक्षिणपंथी सोच को स्वीकार करते हुए भी नेहरू के इस तख्ता पलट पर तटस्थता की मुद्रा बनाये रहे.

1930 के मध्य तक कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गयी थी. नेहरू और बोस साथ थे और पटेल, गांधी के समर्थन के बाद भी किनारे कर दिए गए थे. 1930 के मध्य काल ने ही आगे की पटेल, नेहरू और बोस की नियति को निर्धारित कर दिया था.

गांधी, जो अब महात्मा बन गए थे, राजनैतिक रूप में महात्मा का चोला ओढने में फिसल रहे थे. वो राजनैतिक रूप से ईमानदार न होकर, ईमानदार होने की कोशिश करने लगे थे.

क्रमश: 5

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