आम तौर पे तो दिल्ली दरबार के इंटरटेनमेंट चैनल और पत्तरकार दक्षिण भारत दिखाते नहीं. अब मजबूरन जल्लीकट्टु के प्रतिबन्ध के कारण उन्हें इस पर चर्चा करनी पड़ेगी. मेरे ख़याल से ये दल हित चिंतकों के लिए गंभीर चिंता का विषय है.
वेटिकन पोषित किराये की कलमें जो दिल्ली के बड़े विष विद्यालय में किसी दलित छात्र की सीट खुद की पढ़ाई के नाम पर घेरे बैठी है, उन्हें भी समस्या होगी.
फण्ड से चलने वाले एजेंडे तो वो अपने हिसाब से बरगलाने वाले डाल सकते हैं लेकिन विवादों में ऐसे लोगो को पूछना पड़ता है जो सचमुच मामले के बारे में कुछ जानते हों.
ऐसे में हो सकता है हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई में निकली सील का भी कोई जिक्र कर डाले! नंबर M 312 कहलाने वाला ये टेबलेट जल्लीकट्टु जैसी ही किसी प्रथा को दर्शाता है.
उसमें बैल या भैंसे से ऐसी ही लड़ाई को दर्शाया गया है (No. M 312 in The Corpus of Indus Seals and Inscriptions, Volume 1, edited by Asko Parpola and others).
ग़लतफ़हमी मत पालिए, कल-परसों खोद के नहीं निकाला इसे संघी लम्पटों ने कॉमरेड! ये तो 1930 में ही मिला था! आपके आर्य-द्रविड़ विवाद पर भी इस से दो चार घड़े पानी पड़ जाता है.

भारत के लगभग हर इलाके में ऐसा ही कोई ना कोई मिलता जुलता खेल होता है. मतलब करीब 5000-7000 साल की कांटिन्युअल हिस्टोरिक ट्रेडिशन. जिस से इनकार करना नामुमकिन होगा.
जो थोड़ी सी कसर रहती थी वो इस से पूरी हो जायेगी कि जल्लीकट्टु दिखाना मतलब अलंगनल्लुर और पलामेडू दिखाना होगा. इन्हीं जगहों से ये उत्सव शुरू होता है.
अब अलंगनल्लुर दिखाएँगे तो इलाके के पुजारियों को भी दिखाना होगा, क्योंकि वही लोग बैलों को घुमाते और छोड़ते हैं. यानि राजा स्वामी और अन्य लोगों को दिखाना पड़ेगा जो कि दलित हैं.
जी हां, बिलकुल सही पढ़ा है आपने दल हित चिंतकों… दलित पुजारी
दलित पुजारियों द्वारा पोषित कम से कम चार हज़ार साल पुरानी परंपरा को ख़त्म कर के कैसे गाय-बैल पालने वाले एक समुदाय को रोजगार से वंचित किया जाता है और फिर इल्जाम थोपने के लिए ब्राह्मणवाद कहा जाता है, ये विवाद उसका बढ़िया उदाहरण है.