खुशबू और रश्मि उस घर की सबसे कम उम्र की सदस्य, शायद 4 या 5 साल की, चेहरे पर सहमी हुई-सी मुस्कान, आँखों में खोज का समन्दर. इतने विशाल शब्द देना उनकी मासूमियत के साथ मजाक करना हो सकता है, लेकिन जब तक उन दोनों की उम्र और बुद्धि के बीच फासला ज्यादा है तब तक तो ठीक है, लेकिन जिस दिन उम्र और बुद्धि के बीच फासला कम हो जाएगा उस दिन उनके मन में अस्तित्व और पहचान के लिए सवाल उठने लगेंगे.
इंदौर शहर के सुदमा नगर में स्थित एक ऐसा घर है जिसे संस्था या अनाथ आश्रम या गैर सरकारी संगठन नहीं कहा जा सकता. श्रीमती वर्मा के इस घर में एक साथ 50 बच्चे रहते हैं, कुछ शारीरिक रूप से अपंग, कुछ मानसिक रूप से. ऐसे एक नहीं, हर शहर में कई घर मिल जाएँगे, उन्हें अनाथ आश्रम कहना अच्छा नहीं लगता.
अनाथ तो वो होते हैं, जिनके माता-पिता नहीं, कोई सगा नहीं और इनमें से कइयों के तो पिता भी हैं, लेकिन नशे में धुत किसी सड़क के किनारे पड़े होंगे या लाचार माँ लोगों के घर के बर्तन माँजकर अपने बच्चों को पाल रही होगी.
रश्मि सबसे छोटी है और चार बच्चों में उसे पालना उस अकेली माँ के लिए मुश्किल है, सो इस घर में आ गई. खुशबू के माता-पिता दोनों नहीं रहे. रिश्तेदार यहाँ छोड़ गए.
एक घर, जैसा भी हो उनका अपना है, सोने उठने, खाने पीने के कुछ नियम हैं, स्कूल जाते हैं, पढ़ाई भी करते हैं, बस कोई एक हाथ ऐसे बच्चों के सिर पर होता है और कई हाथ मदद के लिए. ऐसे में हमारी ओर से एक समूह गया कुछ जरूरत की वस्तुओं के साथ जितना जिससे बन पड़ा. उन सब वस्तुओं में सबसे महत्वपूर्ण था समय.
जिसने जितना समय दिया, उन्हें प्यार दिया, अपनापन दिया, जितना जिससे बन पड़ा सब दिया, और शायद साथ में एक एहसास भी कि यह समाज का वह हिस्सा है, जो आम लोगों से अलग है. जिनको आम बच्चों से ज्यादा प्यार और सहानुभूति की आवश्यकता है.
ऐसे छोटे-छोटे घर जिनका कोई नाम नहीं हर शहर में मिल जाएंगे. आइए अपने जीवन का कोई ख़ास दिन यहां बिताएं और उसे जीवनभर के लिए यादगार बनाएं.