अभिनय

मुझे तलाश है एक ऐसे जहाँ की
जहाँ मुझे अभिनय न करना पड़े
रिश्तों के चरित्र में ढलकर,
जहाँ मुझे बँटना न पड़े
जैसे बँट जाते है
कमरे एक ही घर के
मैं जिस कमरे में जाती हूँ
उस कमरे-सी हो जाती हूँ,

थोड़ा बँट जाती हूँ
सुबह की चाय के साथ चुस्कियों में,
दोपहर के खाने में
ऑफिस के टिफिन के डिब्बे की तरह
जहाँ एक में सिर्फ रोटी होती है
एक में सिर्फ सब्जी…

मैं बँट जाती हूँ
शाम को घर लौटते समय
अगले दिन की तैयारी
और बच्चों के होमवर्क में

रात को बँटती नहीं बदल जाती हूँ
हक़ीकत के बिस्तर पर
कल्पनाओं को सुलाकर
अजीब से ख़्वाब बुनती हूँ
और अगले दिन हो जाती हूँ कवि
और बाँट देती हूँ अपने ख़्वाबों को
आधा कविता में, आधा कहानियों में

अपनी रूह के हर कतरे में
टपकती रहती हूँ
दिन की फटी छत से
रात के बर्तन में

अपनी मुफलिसी को छिपाना नहीं आता
और ना ही आता है पुते चेहरों के साथ
फैमिली रेस्टॉरेंट में बच्चों को पिज्जा खिलाना

मुझे आता है बस अभिनय करना
रिश्तों के चरित्र में ढलकर
बँट जाना घर के कमरों की तरह
जिस कमरे में जाओ
उस कमरे-सा हो जाना…….

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