“मेरे पास बंगला है, गाड़ी है…. तुम्हारे पास क्या है?”
“मेरे पास माँ है!”
यह तालियों वाला डायलॉग तो आप को मालूम ही है. लेकिन इसके बाद डायलॉग में ट्विस्ट पेश है.
“मेरे पास बंगला है, गाड़ी है…. तुम्हारे पास क्या है?”
“मेरे पास माँ है!”
“नहीं!” – माँ की चीख सुनाई देती है. दोनों बेटे चौंककर चीख की दिशा में देखते हैं.
माँ तब तक करीब पहुँचती है और छोटे बेटे को थप्पड़ मारकर हिकारत भारी आवाज से कहती है – “बेटा तेरी माँ इतनी सस्ती नहीं है कि तू बस भिखारी आदर्शों के बोल वचन में उसे खरीद ले. उसके भी सपने हैं, उसके भी अरमान हैं.”
माँ कहती है, “तेरे मूर्ख आदर्शवादी बाप ने तो इन आदर्शों के पीछे ही जान गंवा दी. मैं अनपढ़ औरत, उसे छोड़ने की हिम्मत नहीं थी और जब वो मारा गया तो तुम दोनों की ममता ने मुझे कुछ करने ही नहीं दिया.”
मां बोलती है, “लेकिन बेटा, सपने मेरे भी थे और हैं, और इतने छोटे नहीं कि तेरे छोटे से सरकारी क्वार्टर में ही दम तोड़ूँ. मैं भी बंगले में रहना चाहती हूँ, एसी में सोना चाहती हूँ, एसी गाड़ी, फ़ॉरेन फ्लाइट और फाइव स्टार जिंदगी जीना चाहती हूँ. मैं विजय के साथ जाऊँगी.”
पता है… पता है… यह कुछ ज्यादा हो गया, लेकिन सत्य से अधिक नजदीक है. घूस खाने वाले लोगों से पूछ लीजिये, कितनों के परिवारों ने उन्हें घूस लेने पर दुतकारा है या घूस के पैसों को घर में लाने से मना किया है.
अपने रक्षक तथा अपने योद्धाओं का पेट आदर्शवादी बातों से नहीं भरता, और हर कोई ब्रह्मचारी नहीं रह सकता.
जबर्दस्ती आप किसी को अविवाहित रखेंगे तो वो ब्रह्मचारी ही रहे, चरित्रवान ही रहे, यह कोई गारंटी नहीं होती.
भरे पेट से भूखे को गालियां देना आसान है लेकिन अच्छा नहीं. विवाहिता, गर विधवा और अविवाहिता को चरित्रहीन कहे तो आसान है लेकिन मन ही मन वो भी उसका कारण समझती है.
परिस्थिति का उपाय न किया जाए तो वो आप को अपाय किए बिना नहीं रहती. आदर्शों की समीक्षा आवश्यक है. काल के अनुरूप न हुए तो डाइनोसॉर हो जाएंगे.