वृहद हिन्दी क्षेत्र के अंतर्गत आनेवाली किसी भी बोली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग नाजायज़ है.
ऐसी मांग करने के पूर्व पूर्वजों की प्रतिश्रुति और व्यापक सहमति के सम्मान का ध्यान रखा जाना चाहिए.
एक ऐतिहासिक आवश्यकता और सहमति ने हिन्दी का मजबूत आधार निर्मित किया था. हिन्दी क्षेत्र की समस्त बोलियों (भाषाओं!) के साहित्य को हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल के इतिहास का अंग बनाना उक्त परियोजना का परिणाम कहा जा सकता है. आचार्य शुक्ल के इतिहास ग्रंथ के पूर्व प्रकाशित हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रंथों के शीर्षकों से इस बात को समझा जा सकता है.
इस तरह की मांग अहिन्दी भाषी हिन्दी समर्थकों के साथ छल मानी जाएगी. अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी विरोध का नया कारण बनेगी.
यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी को संवैधानिक सम्मान दिलाने में संख्या बल की सबसे बड़ी भूमिका थी. कहना न होगा कि हिन्दी को यह संख्या बल वृहद हिन्दी क्षेत्र की बोलियों ने ही प्रदान किया था.
यदि सभी बोलियाँ अपने लिए अलग स्थान की मांग करेंगी तो हिन्दी का आधार न सिर्फ कमजोर होगा अपितु पूर्वजों की सोच और सरोकारों को षडयंत्र करार दिया जाएगा.
संविधान की आठवीं अनुसूची में वही भाषाएँ शामिल हों, जिन्हें राज्यों ने अपनी राजभाषा स्वीकारा है.
प्रत्येक राज्य अपनी “आठवीं अनुसूची” बना कर राज्य की भाषाओं को संरक्षण, प्रोत्साहन और पुरस्कार दें.
ध्यान रहे कि ये सब राजनीति के तहत हो रहा है. साथ ही कुछ लोगों की पत्रम् – पुष्पम् की अभिलाषा भी जुड़ी हुई है. इसका किसी भाषा के विकास से कोई लेना देना नहीं है. सच तो यह है कि संख्या के आधार पर हिन्दी को मिली भूमिका और सम्मान पर पलीता लगाने की यह कोशिश है. हिन्दी क्षेत्र में पले बढ़े और वहीं तक सोचनेवाले लोगों का यह अहंकार है.
ऐसे लोगों की दबी इच्छा यह है कि सरकारी संस्थानों के पुरस्कार एक भाषा को एक ही मिलते हैं, जबकि हिन्दी भाषियों की जनसंख्या दूसरी भाषाओं की तुलना में कहीं ज्यादा है और कई राज्यों में फैली हुई है. ऐसे में संकीर्ण स्वार्थी सोच की मंशा हिन्दी क्षेत्र की दूसरी बोलियों – भाषाओं के नाम पर जुगाड़ बनाने की है. यह झगड़ा बोली बनाम भाषा का नहीं है.
ऐसी मांग रखनेवाले किस मुंह से पूरे भारत से अपेक्षा करेंगे कि वे निर्विवाद रूप से हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में अपनाए. अपनी मातृभाषा / लोकभाषा को छोड़ कर हिन्दी अपनाने से जो नैतिक बल वृहद हिन्दी क्षेत्र के लोगों को मिला है वह नष्ट हो जाएगा.
यहाँ यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं किसी बोली – लोकभाषा के विकास के खिलाफ नहीं हूँ. मैं अवधी और भोजपुरी के संधि स्थल का वासी हूँ. मेरे परिवार में तीन पीढ़ी अवधी में परस्पर संवाद करती है. मैंने अपने बच्चों में मातृभाषा की ऐसी बुनियाद डाली है कि पूरे यकीन से कह सकता हूँ कि लगभग पंद्रह वर्ष बाद जनमनेवाली चौथी पीढ़ी मुझसे अवधी में बोले-बतियाएगी.
प्रो. संजीव कुमार दुबे
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
गांधीनगर
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