मकर संक्रांति …. कहते हैं इस दिन प्रकृति अपना चोला बदलने लगती है… ऋतु परिवर्तन होने लगता है… ठण्ड में सिकुड़ रही धरती सूरज की नई गरमी पाकर फिर से अपनी बाँहें फैला देती है ….. अपने किस्मत के सूरज को माथे पर सजा लेती है…
आज मैं भी उस प्रकृति की तरह हो गयी हूँ….. किस्मत की ठिठुरन से न जाने कितने बरसों से गठरी बनी बैठी थी आज मैंने अपना आँचल सूर्य देवता के सामने फैला दिया है कि मेरी झोली खाली सही बंजर नहीं है … मेरे हक के वो दो बीज मेरी धरती पर डाल दो… मैं उन्हें उनकी पूरी सम्भावनाओं के साथ बड़ा करूंगी .. इतना बड़ा कि उसकी छाया में मुझ जैसे कई भटकते राहगीरों को पनाह मिले…..
कहते हैं शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, और मकर संक्रांति के दिन सूर्य अपने पुत्र शनिदेव से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं…..
कहते हैं महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति के दिन का ही चयन किया था….
कहते हैं मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चल कर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं…..
कहते हैं इस दिन किया गया तिल का दान आपके पुण्य कर्मों की सार्थकता को फलित करता है…
शनिवार को जन्मी ये शनिचरी जो किसी राशि की स्वामिनी होने का दावा नहीं करती, आज अपने घर किस्मत के सूरज को निमंत्रण देती है…
जब तक इस देह से आत्मा का पुनर्मिलन नहीं होगा … ये देह किसी भी संक्रांति पर अपना धाम नहीं छोड़ेगी….
मैं गंगा सी पवित्र न सही, मैंने कोई भगीरथी कार्य नहीं किए, लेकिन मेरा अंतिम धाम भी तो ये भवसागर ही है…
मैं आज से रोज़ खुद को तिल तिल कर तुझ को अर्पण कर रही हूँ… मैंने जीवन में कोई एक भी पुण्य कार्य किया है तो उसकी सार्थकता को फलित कर दो…