Respected Sir! Most humbly and respectfully I beg to state that…
हममें से ज्यादातर ने बचपन में अंग्रेजी में आवेदन पत्र लिखने के लिए इस क्लिष्ट वाक्य को याद किया होगा. शायद कुछ ने एकाध एप्लीकेशन सचमुच की जिंदगी में इस वाक्य से शुरू किये हों.
यह वाक्यांश अंग्रेजों के उस जमाने की अंग्रेजी का अवशेष है जब अँगरेज़ साहब के सामने हिंदुस्तानी प्रजा, और उनमें से अंग्रेजी जानने वाले बाबू टाइप के लोग गिड़गिड़ाते हुए अपनी बात कहने की हिम्मत मुश्किल से जुटाते थे.
समय बदला है, समाज बदला है और हर नई पीढ़ी के तेवर बदले हैं. पर अंग्रेजों के समय का बहुत कुछ आज भी नहीं बदला है.
हमारे महामहिम वाइसराय हाउस में रहते हैं. हमारी संसद सेंट्रल असेंबली की इमारत में चलती है. अंग्रेजी भाषा और सोच आज भी हमारे समाज में डोमिनेंट है. बहुत कुछ बदला है पर बहुत कुछ है जो धीरे-धीरे ही बदलता है.
फौज भी ऐसी ही एक संस्था है जो धीरे-धीरे ही बदलती है. बहुत कुछ अंग्रेजों के समय का है, जो नहीं बदला गया. कुछ है जो बदल जाना चाहिए. पर फौज में चीजें धीरे-धीरे बदलती हैं.
मेरठ में एक क्लब है – व्हीलर्स क्लब. बहुत ही पॉश और सॉफिस्टिकेटेड… और महंगा. पर फौजी अफसरों के लिए सस्ते शुल्क पर इसकी सदस्यता उपलब्ध है. और वहां पर खाया-पिया अपने आप आपके मेस बिल में जुड़ जाता है.
व्हीलर्स क्लब में बिना कोट टाई जूते के जाना मना है. अब फौज में हर जगह यूनिफार्म का कांसेप्ट है, तो फौजी को तो बस यह नियम वर्दी का भाग लगता है. पर यह नियम वहां किसी सिविलियन पर या रिटायर्ड फौजी पर क्यों लागू होना चाहिए?
खैर, हमारे रेजिमेंट का बैटल ऑनर डे मनाया जा रहा था. रेजिमेंट के सारे वर्तमान और पूर्व अफसर आये हुए थे और व्हीलर्स क्लब में डिनर था. उसमे एक ब्रिगेडियर चौहान थे जो खूब शानदार शेरवानी पहन कर पहुंचे. सूट टाई के ट्रेडिशन्स को ठेंगा दिखाते हुए.
अब ब्रिगेडियर साहब को कोई क्या बोल सकता है. किसी की हिम्मत तो नहीं हो सकती थी कि उन्हें जाकर कहे कि इस क्लब में बना हुआ 100 साल पुराना यह नियम है और आप नहीं तोड़ सकते… जाइये कपडे बदल कर आइये…
फंक्शन ख़त्म होने के बाद मेस में कुछ पुराने अफसर ब्रिगेडियर चौहान की आलोचना कर रहे थे कि उन्हें रेजिमेंटल ट्रेडिशन नहीं तोडना चाहिए था. हम जैसे कुछ नए अफसर खुश थे कि किसी ने तो हिम्मत दिखाई इस अंग्रेज़ियत को चैलेंज करने की…
उनके पहले भी बहुत से ब्रिगेडियर या जनरल वहां गए तो होंगे… सभी देशभक्त भी होंगे… पर ट्रेडिशन को बदलने की सोच सही व्यक्ति में सही रैंक के साथ नहीं आयी. और हम कैप्टेन-मेजर की तो औकात नहीं थी ट्रेडिशन को चैलेंज करने की.
हमारी 200+ साल पुरानी रेजिमेंट में ऐसे कितने ही पुराने ट्रेडिशन चल रहे हैं. एक ट्रेडिशन है, रेजिमेंट में रखे पुराने सिल्वरवेयर का इतिहास जानने का. वहां रखे हर छोटे बड़े डेढ़-दो सौ साल पुराने चांदी के बर्तनों, कपों और शील्ड का इतिहास हमें पढ़ाया जाता था.
अफगानिस्तान, इराक, इजिप्ट, अरब से लेकर फ्रांस, जर्मनी तक लड़ी हुई दर्जनों लड़ाइयों का इतिहास सिमटा है उन चांदी के बर्तनों में. इतिहास की कद्र ना करने वाली भारतीय मनोवृति से उसका महत्व समझना कठिन है.
वैसे ही बर्तनों के बीच एक छोटा सा शुगर बाउल है, जिसका नाम है म्युटिनी कप. 1857 के विद्रोह या स्वतंत्रता संग्राम के समय वह कप रेजिमेंट की ऑफिसर्स मेस में काम में आता था. इतिहास के एक प्रतीक के रूप में उसे संजो कर रख लिया गया और उसका नाम रखा गया म्युटिनी कप.
जब एक नए लेफ्टिनेंट से उसके बारे में पूछा गया तो उसने उसका नाम बताया – फर्स्ट वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस कप…
उसने कहा, अँगरेज़ 1857 की क्रांति को म्युटिनी कहते थे… हम क्यों कहें? मेरे लिए तो यह आजादी का युद्ध है. अगर मैं कभी सीओ बना तो इसका नाम बदल दूंगा.
तब से बहुत पानी बह चुका है. उस ऑफिसर के बैच के लेफ्टिनेंट आज कर्नल बन कर रेजिमेंट कमांड कर चुके हैं… उनमें से कोई शायद इस लेख को पढ़ भी रहा हो. पता नहीं, उस म्युटिनी कप का नाम बदला या नहीं.
फौज के अंदर परिवर्तन एक संयोग है. सही सोच का व्यक्ति जब सही रैंक पर पहुँचता है तो इसी सुवर्ण संयोग से परिवर्तन आता है. फौज में परिवर्तन नीचे के स्तर से झंडा उठाकर नहीं लाया जा सकता. ना ही बाहर से शोर मचा कर.
फौज के अंदर ऑफिसर, JCO और OR के बीच की समाज व्यवस्था भी ऐसी ही एक चीज है, अंग्रेजों के समय का अवशेष.
आशा है, बहुत से जवानों की व्यथा शीर्ष तक पहुंचेगी… कुछ इंट्रोस्पेक्शन होगा, कुछ स्वविवेक आएगा… और सही समय पर सही रैंक पर बैठा कोई व्यक्ति समय के चक्र की गति को समय से पढ़ कर इसमें परिवर्तन लायेगा… तब तक फौज के सभी रैंकों के सभी सैनिकों और पूर्व-साथियों को हमारी शुभेच्छाएँ…