मैं एक सिपाही हूँ …
देश बदलते हैं,
जैसे उपनाम बदलते हैं,
मगर मेरी परिभाषा नहीं…
मैं वही हूँ हर जगह,
जिसे तराशा गया है, इतना
कि कोई ‘चूक’
नहीं कर सकता..
सरहदे किसी देश की हों,
मेरे दम पर ही बा-आबरू
रहती हैं…
मेरी वर्दी पर क़त्ल की
दफाएँ नहीं चलती..
मेरी बन्दूक की
खुराक कभी ख़त्म
नहीं होती…
मेरी नींद पर मेरे कान
के पहरे हैं…
महज एक सरसराहट
पर वो उठा देते हैं मुझे…
और करोड़ों लोगों की नींद,
मेरे रातों को जागने से,
सुबह का मुंह देख,
पाती है…
जिन हवाओं पर
साँस बांटने की जिम्मेदारी
वो मुझे तलाशी देकर
ही मेरे देश में होती हैं दाखिल…
मैं अपने परिवार
और प्यार को
को अपने पर्स में
लिए फिरता हूँ…
हमेशा तैयार,
आखिरी विदा के लिए….
मेरा पेशा, मुझे मुहब्बत
की इजाज़त
खुल के नहीं देता,
मैं बंदूकों की नोंक पर
अमन की खेती करता हूँ
क्योकि “मैं एक सिपाही हूँ….