पाकिस्तान के बनने के पीछे मुख्य वजह जिन्नाह की ज़िद और उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना माना जाता है. गाँधी को दोष दिया जाता है कि उन्होंने भारत के विभाजन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया, जबकि उन्होंने कहा था कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा. अंग्रेजों को भी दोष दिया जाता है कि उन्होंने ही भारत के दो टुकड़े किये, डिवाइड एंड रूल पॉलिसी का नतीजा.
खैर आज बात कुछ अलग.
पाकिस्तान बनने की तमाम कहानियों में आज एक कहानी ये भी.
पाकिस्तान बनाने की आधिकारिक मांग मुस्लिम लीग ने 1940 में अपने लाहौर अधिवेशन में की थी. लीग के अनुसार हिन्दू और मुस्लमान दो अलग-अलग राष्ट्र थे और मुस्लिम जनता को अधिकार था कि वो अंग्रेजों से अलग देश की मांग करे. लीग के मुताबिक कांग्रेस सिर्फ हिन्दुओं को रिप्रेजेंट करती थी और हिन्दू हितों के लिए प्रतिबद्ध थी. लीग का कहना था कि सिर्फ वही मुस्लिम आवाज़ है.
जैसा कि अपेक्षित था, कांग्रेस ने लीग की इस मांग का विरोध किया. लीग को अंग्रेजों के इशारे पर चलने वाली पार्टी बताया. भारत की आज़ादी की मांग को कमज़ोर करने की साज़िश बताया.
न सिर्फ कांग्रेस बल्कि तमाम अन्य मुस्लिम पार्टियों ने भी लीग की अलग पाकिस्तान की मांग का विरोध किया. इनमें भारत की जमाते इस्लामी थी तो तबके पाकिस्तान की खाकसार तहरीक, यूनियनिस्ट पार्टी भी थी जो लीग की इस मांग का विरोध कर रही थी.
पूरे यूनाइटेड भारत में कोई पार्टी या संगठन लीग की इस मांग के साथ नहीं खड़ा था, मुस्लिम लीग को अलग पाकिस्तान की मांग का समर्थन कम्युनिस्ट पार्टी से मिला.
सन 42 और उसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने मुस्लिम लीग की अलग देश की मांग का खुल कर समर्थन किया.
दरअसल साम्यवाद साइंटिफिक यानी वैज्ञानिक धर्म है. तबके कम्युनिस्टों ने वैज्ञानिक तरीके से लीग की मांग का दो साल तक अध्ययन किया और उसके बाद उनकी अधिकारी रिपोर्ट आयी.
जी एम अधिकारी एक महान कम्युनिस्ट का नाम है जिन्होंने नेशनलिटी की वैज्ञानिक परिभाषा दी-
A nation is a historically evolved stable community of language territory economic life and psychological make up manifested in a community of culture.
इस वैज्ञानिक परिभाषा के मुताबिक तमाम व्यापार, फैक्ट्री और नौकरियां हिन्दू हाथों में थीं, और मुस्लिम शोषित थे. न सिर्फ अंग्रेजो से बल्कि हिन्दुओं से भी. और मुस्लिम जनता को अंग्रेजों के साथ हिन्दुजों की गुलामी से आज़ाद होने का पूरा अधिकार था.
Right of self determination… 1944 में कही गयी इस बात की गूँज आज भी कश्मीर के सन्दर्भ में सुनाई देती है.
लेकिन पाकिस्तान बनाने के लिए कम्युनिस्टों का रोल सिर्फ मौखिक और लिखित समर्थन तक सीमित नहीं है.
मुस्लिम लीग मुख्यतः जमींदारों, वकीलों, सामंतों, बड़े किसानों की पार्टी थी. आम जनता यानि छोटे किसानों, मजदूरो तक उनका प्रभाव कम था. ये कमी कम्युनिस्ट पार्टी ने पूरी की.
सन 40 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. देश भर में उसका बड़ा आधार था. ये बात ध्यान देने की है कि आज़ादी के बाद प्रथम चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी ही 55 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी.
कम्युनिस्ट पार्टी ने 1944 में पाकिस्तान की मांग के समर्थन में कैम्पेन शुरू किया. कम्युनिस्ट पार्टी के मुताबिक पाकिस्तान की मांग प्रोग्रेसिव यानी प्रगतिशील थी और पाकिस्तान मुस्लिम जनता का जन्मसिद्ध अधिकार था.
खुद जिन्नाह साहब ने स्वीकार किया कि लीग से ज्यादा कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने प्लेटफॉर्म से पाकिस्तान की मांग को ज्यादा मज़बूती से प्रमोट किया.
कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने अख़बार, लेखों, सभाओं के जरिये पाकिस्तान की मांग को आगे बढ़ाया.
इसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने तमाम मुस्लिम कामरेडों को मुस्लिम लीग में शामिल होने को कहा ताकि लीग के धार्मिक चेहरे को प्रगतिशील, जनपक्षधर चेहरे में बदला जा सके.
लेकिन लीग ने इस पर एतराज किया. जिन्नाह और लियाकत अली खान ने शर्त रखी कि दोहरी सदस्यता नहीं चलेगी. तमाम हिन्दू कामरेड तब कांग्रेस के भी सदस्य थे. लेकिन लीग ने दोहरी सदस्यता से इंकार किया.
तमाम कामरेडों ने मजबूरन कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता छोड़ी और लीग को ज्वाइन किया.
कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी मजदूर रैलियों, किसान सभाओं में लीग के नेताओ को बुलाना शुरू किया जो किसान-मज़दूरों को पाकिस्तान की जन्नत के बारे में जागरूक करते थे.
और इसके बाद 1945 के आम चुनाव आये. इन चुनावों को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग के जनमत संग्रह की तरह प्रस्तुत किया और इसी आधार पर लड़ा भी.
इन चुनावो में लीग का घोषणा पत्र हमारे महान मुस्लिम कामरेडों ने तैयार किया. पाकिस्तान की मांग को प्रगतिशील, सेक्युलर, किसान-मज़दूर हितों के साथ मिला कर प्रस्तुत किया.
पूरे देश में कम्युनिस्ट पार्टी ने मुस्लिम लीग के उम्मीदवारों के समर्थंन में प्रचार किया.
इन चुनावों के बाद मुस्लिम लीग और जिन्नाह, मुस्लिम जनता की आधिकारिक आवाज़ के रूप में उभरे. और अंतिम परिणति भारत के विभाजन के रूप में आयी.
लेकिन कहानी ख़त्म नहीं हुई. कहानी तो अभी बाकी है. लेकिन वो फिर कभी.
ज़रा सोचिये ये वही लोग हैं, मुस्लिम और कम्युनिस्ट जो संघ के स्वाधीनता आंदोलन में रोल पर सवाल उठाते हैं. जो प्रचार करते हैं कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफ़ी मांगी. जिनका अपना एक काला इतिहास है वो इतिहास पर उंगली उठाते हैं.
पाकिस्तान बनने के पीछे मुख्य भूमिका तबके पाकिस्तान की मुस्लिम जनता की उतनी नहीं थी जितनी हमारे यूपी के मुस्लिम भाइयों की थी.
और इन मुस्लिम भाइयों का चरित्र आज भी वही है. देश के टुकड़े के बाद भी नहीं बदला. न कम्युनिस्ट बदले. आज भी कश्मीर में सेल्फ डिटरमिनेशन की मांग करते हैं. JNU में नारे लगाते हैं. कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग का समर्थन करते हैं.
और हम लोग कम्बल में मुंह ढांप कर सोते हैं. सोने वाली कौम का आज तक कुछ न हो सका. वो सोती ही रहेगी.